जापान के जैन समुदाय के एक महान आचार्य थे, रिंजेई। उनकी ख्याति दूर-दूर तक थी। एक दिन एक युवक उनके पास आया। उसने कहा - मुनिवर मैं स्वर्ग और नरक के रहस्य को जानना चाहता हूँ। कृपया मुझे समझाएँ। रिंजेई ने गौर से उसे देखा। फिर प्रश्न किया वह मैं समझाता हूँ। पर तुम कौन हो? करते क्या हो? युवक ने बड़े दर्प से कहा - मैं योद्धा हूँ। राजा की सेना में एक उच्च पद पर... रिंजेई बोले - योद्धा? तुम क्या योद्धा होंगे। देखने में तो घसियारे या मोची लगते हो।
युवक ने तैश में आकर कमरबंद में खोंसी हुई तलवार निकाल ली और बोला - क्या यह तलवार आपको दिखाई नहीं दी? क्या यह मेरे योद्धा होने का प्रमाण नहीं है?
रिंजेई पुन: उपहासपूर्वक उसे देखते हुए बोले - हुंह। तलवार! इस तलवार से तो सब्जी-भाजी भी न कटती होगी। तुम इससे घास छीलते होगे। युवक तलवार को म्यान से खींचकर बोला - बहुत हो गया। अब आपने एक भी अपशब्द कहा तो यह तलवार आपकी गर्दन धड़ से अलग करके ही म्यान में लौटेगी।
रिंजेई के चेहरे पर एक शांत मुस्कान तैरने लगी। वह बोले - युवक, अब तुम नरक में हो। अच्छी तरह देख लो। समझ लो। अपना संयम खोने और आवेश की ज्वाला में जलने का परिणाम क्षण भर में युवक के सम्मुख स्पष्ट हो गया। उसने लज्जित होकर क्षमा माँगी और सिर झुकाकर आचार्य रिंजेई के चरणों के समीप बैठ गया। रिंजेई ने कहा - वत्स, यही स्वर्ग है।