फनी कविता : कोयल की छिपा छाई
- आशीष पारीख
कोयल खेले छिपा छाई,
देती नहीं हमें दिखाई।
शर्त उसने एक लगाई,
दूं मैं अगर तुम्हें दिखाई।
बागों के तुम्हारे होंगे आम,
मैं छिप रही दो तुम दाम।
सुबह से होगी शाम,
मिलने का न लूंगी नाम।
बोल रही मैं लगातार,
ऊंची बोली हर बार।
नहीं मैं सकती हार,
बताओ रही मैं कहां, पुकार।
नहीं ढूंढ सका कोई,
कोयल भी आम के पत्तों में खोई।
कोयल की छिपा छाई
बोली आम दोनों मीठे दे लुटाई।