आत्मानुशीलन का पर्व : पर्युषण
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डॉ. पुष्पेन्द्र मुनिचत्तारिपरमंगाणि, दुल्लहाणीय जंतुणोमाणुसत्तं सुई सद्धार, संजमम्मि य वीरियंआत्मप्रक्षालन में आत्मानुशीलन, आत्माभिव्यक्ति, आत्मचिंतन एवं आत्मा के विशुद्ध भावों की प्रमुखता होती है। मनुष्य जीवन में विशुद्धि आत्मा स्वरूप से पूर्व यह चिंतन किया जाता है कि मैं मनुष्य हूं, मेरा कर्म धर्म-श्रवण है, मेरी शक्ति आस्था के विविध आयामों पर केंद्रित है और मैं विशुद्ध आत्मस्वरूप में स्थित संयम पुरुषार्थ से ऊपर भी हूं।मैं हूं मनुष्य : मननशील व्यक्ति, चिंतनशील व्यक्ति एवं भेद विज्ञान करने वाला मानव भी हूं। मानव में स्थित में शरीर इन्द्रिय, स्थान और पदार्थ की सिद्धि का ध्यान रखता हूं, क्योंकि मनन की क्षमता इसके बिना नहीं हो सकती है।पर्युषण- आत्मानुशीलन का पर्वहम सभी जानते हैं कि मैं मानव से मननशील बना हुआ, आत्मसाधना के लिए, संयम एवं तपाराधना की ओर उन्मुख होता हूं, पर्युषण की आराधना में यही तो है कि जो कुछ भी संसार में उपार्जित कार्य किए वे अज्ञान से परिपूर्ण हैं, अज्ञान अवस्थित है।
आध्यात्मिक चिंतन के पर्व में नई सोच एवं नई दिशा की प्राप्ति होती है इसलिए पर्युषण महापर्व पर जो चिंतन किया जाता है वह सांसारिक पदार्थों से विमुक्ति की ओर ले जाता है।मानव भव दुर्लभता से प्राप्त होता है। उसमें भी उत्तम धार्मिक कुल के साथ-साथ आत्मजागृति के मार्ग वाले महान पर्व पर्युषण मनाने का सौभाग्य जिन्हें प्राप्त होता है वे अपने आपको क्षमाशील बनाने में समर्थ होते हैं। वे आध्यात्मिकता के रंग में रंगे हुए व्रत प्रत्याख्यान एवं तप करने वाले साधना वर्ग की साधना से अलंकृत होते हैं।पर्युषण में आध्यात्मिक, धार्मिक एवं मन को प्रशांत रूप बनाने के साधन रहते हैं तभी तो इस पर्व की पवित्रता में आमोद-प्रमोद जैसे भाव खान-पान, हंसी-मजाक आदि कुछ भी नहीं रहते हैं।अष्ट दिवसीय इस महापर्व में सामान्य पहनावा होता है और इसके विश्राम में भू-शयन अथवा चटाई का आसन ही होता है। इससे जीवन में एक नए परिवर्तन के भाव जागृत होते हैं।मानवीय भावना उच्च शिखर तक पहुंचती है, तब यह कहना पड़ता है कि उपशांति के इस पावन पर्व में वैराग्य की वृद्धि, स्वाध्याय की आत्मशुद्धि एवं क्षमा की असीम शक्ति के दर्शन होते हैं। इस अवस्था में स्थित साधक वर्ग वरण एवं अन्य सभी विवादों को भुलाकर आत्मशुद्धि, शांति एवं समतामय जीवन के कारणों को प्राप्त करता है।