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Written By Author अनवर जमाल अशरफ
Last Updated : शनिवार, 2 जनवरी 2016 (12:39 IST)

साल 2015 शरणार्थी संकट के नाम

साल 2015 शरणार्थी संकट के नाम - Year 2015 Calendar
पश्चिमी देशों को सीरिया से लेकर अफगानिस्तान, और इराक से लेकर लीबिया तक में हमले की रणनीति तैयार करने में कोई परेशानी नहीं हुई। उन्होंने अमेरिका के साथ मिलकर बम बरसाए और युद्ध को अंजाम दिया। आज उन्हीं देशों के युद्धपीड़ित लोग जब शरणार्थी बन कर उनकी सीमा में पहुंचे हैं, तो हैरानी की बात है कि यूरोपीय संघ के पास कोई नीति नहीं, कोई प्लान नहीं।
शरणार्थियों का संकट यूरोपीय संघ के सदस्य देशों के लिए ऐसी परीक्षा लेकर आया है, जो दुनिया की सबसे ताकतवर इकाई को छिन्न-भिन्न कर सकता है। यह एक ऐसी परेशानी है, जिसे खुद पश्चिमी देशों ने खड़ी की है लेकिन इसकी जिम्मेदारी लेने के लिए कोई भी आगे नहीं आ रहा है। यूरोपीय संघ के देशों में शरणार्थी संकट को लेकर एकराय नहीं बन पाई है और ज्यादातर शरणार्थी जर्मनी के शहरों में बिखरे पड़े हैं। जर्मन चांसलर अंगेला मैर्केल ने दरियादिली दिखाते हुए शरणार्थियों के लिए दरवाजा खोल दिया लेकिन यूरोपीय संघ में अपनी बात मनवाने में कामयाब नहीं रहीं।
 
यह बात कहना गलत होगा कि यूरोप को इस समस्या के बारे में कुछ पता नहीं था। यह तो दीवार पर साफ-साफ लिखा नजर आ रहा था कि युद्ध से प्रभावित इलाकों के लोग जब भागेंगे, तो यूरोप का ही रुख करेंगे क्योंकि पड़ोसी देशों में या तो युद्ध छिड़ा है, या सुविधाओं के नाम पर कुछ नहीं है। जॉर्डन और लेबनान जैसे कुछ अपेक्षाकृत शांत अरब देशों में सीरिया और फिलिस्तीन के लाखों लोग रह रहे हैं। लेकिन बरसों बाद भी समाज का हिस्सा बनना तो दूर की बात, उन्हें रात भी तंबुओं में गुजारनी पड़ रही है। जॉर्डन ने खास तौर पर शरणार्थियों के लिए अमेरिका और दूसरे पश्चिमी देशों से मदद मांगी थी, लेकिन तब पश्चिम इसे अपना संकट नहीं मान रहा था। अब उन्हें इस संकट को सुलझाने का उपाय नहीं सूझ रहा है।
 
दरअसल, यूरोपीय संघ के सदस्य कहने को तो एक नियम, एक कानून में बंध गए हैं, लेकिन उनके बीच की आर्थिक असमानता अमीर और गरीब देशों के बीच दीवार का काम करती है। ग्रीस संकट के बाद इस संघ पर विश्वास करने के मुकाबले विश्वास न करने वाले लोगों की संख्या बढ़ी है। ग्रेट ब्रिटेन जैसा ताकतवर देश पहले से ही यूरोपीय संघ में होकर भी कोई जिम्मेदारी नहीं लेता। इसके बाद सारा जिम्मा आर्थिक रूप से मजबूत जर्मनी और फ्रांस के कंधों पर आ जाता है क्योंकि रोमानिया, माल्टा, चेक गणराज्य और स्लोवाकिया जैसे कमजोर देशों से बड़े कदमों की अपेक्षा करना मुश्किल है, जबकि स्पेन और इटली मजबूत तो हैं लेकिन अपने आर्थिक संकट से अब तक उबर नहीं पाए हैं।
 
जर्मनी ने मानवीय आधार पर शरणार्थियों को जगह दी और आनन-फानन में चांसलर मैर्केल का नाम नोबेल शांति पुरस्कार तक के लिए पहुंच गया। हालांकि साल 2015 खत्म होते होते जर्मनी के अंदर भी शरणार्थियों के लिए कोई मुकम्मल नीति नहीं तय हो पाई है। सरकार के अंदर और बाहर शरणार्थियों का विरोध हो रहा है और मैर्केल अपने दम पर इसे संभालने की कोशिश कर रही हैं। लेकिन जर्मनी के लोगों के सब्र की सीमा है और यूरोपीय संघ के अंदर अगर दूसरे देश इस समस्या का हल खोजने में एकजुट नहीं होंगे तो सब्र का बांध टूट सकता है।
 
दूसरे विश्वयुद्ध के बाद टूटे फूटे जर्मनी को दोबारा खड़ा करने में जर्मनों के साथ प्रवासियों की बड़ी भूमिका थी। तुर्की से आए सस्ते मजदूरों ने दिन रात मेहनत कर जर्मनी को ऐसे मुकाम पर पहुंचा दिया कि इसे आर्थिक चमत्कार माना जाने लगा।
 
इरादा था कि जर्मनी के दोबारा उठ खड़े होने के बाद तुर्की के इन मजदूरों को वापस भेज दिया जाएगा, जो हो नहीं पाया। वे जर्मन समाज में रच-बस गए और अब तो उनकी तीसरी पीढ़ियां यहां रह रही हैं। क्या तुर्कों की तरह सीरियाई शरणार्थी भी जर्मनी और यूरोप को आर्थिक संकट से बाहर निकाल पाएंगे।
 
जर्मन जनसंख्या तेजी से बूढ़ी हो रही है और देश के 35 फीसदी लोग 55 साल से ज्यादा उम्र के हैं। ऐसे में उन्हें युवा लोगों की जरूरत तो है लेकिन दक्ष कामगारों की। सीरियाई शरणार्थियों की तुलना तुर्क प्रवासियों से करना उचित नहीं होगा क्योंकि तुर्कों की जरूरत शारीरिक श्रम के लिए थी, जबकि आज जर्मनी को डॉक्टर और आईटी एक्सपर्ट जैसे लोग चाहिए, जिनकी कमी शरणार्थियों की खेप पूरी नहीं कर सकती।
 
यह अचंभित करने वाली बात है कि जिस यूरोप ने पिछले बीसियों साल में भूमध्य सागर पार कर इटली के तटों पर शरणार्थियों को पहुंचते और दम तोड़ते देखा है, उसने भला इसकी तैयारी क्यों नहीं की। इस साल भी महीनों के बाद यूरोपीय और पश्चिमी देश तब हरकत में आए, जब तीन साल के सीरियाई शरणार्थी अयलान का शव तुर्की में सागर तट लहराता मिला।
 
भले ही ज्यादातर शरणार्थियों को जगह जर्मनी ने दी हो लेकिन वीजारहित शेंगन क्षेत्र की वजह से वे आज या कल दूसरे सदस्य देशों में भी जरूर पहुंचेंगे। समूचे यूरोप को यह बात जल्द समझनी होगी कि शरणार्थियों का संकट उनका भी संकट है। ऐसा तो हो नहीं सकता कि दसियों लाख लोग बेघर, बेरोजगार और बंजारों की तरह इन 25-26 देशों में भटकते रहें। आर्थिक और सामाजिक लिहाज से तो यह जरूरी है ही, नैतिकता के हिसाब से भी जरूरी है। आखिर उन्हें इस हाल में पहुंचाने के लिए यूरोप के देश भी कम जिम्मेदार नहीं।