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Written By WD

हे रामकृष्‍ण! तुम्‍हें प्रणाम

रामकृष्‍ण परमहंस
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नूपुर दीक्षित

स्‍थापकाय च धर्मस्‍य सर्वधर्मस्‍वरूपिणे। अवतारवरिष्‍ठाय रामकृष्‍णाय ते नम:।।

-धर्म के प्रतिष्‍ठाता, सर्वधर्मस्‍वरूप, सब अवतारों में श्रेष्‍ठ, हे रामकृष्‍ण, तुम्‍हे प्रणाम।

जब-जब धर्म का हास होता है, तब-तब धर्म के पुन:स्‍थापन के लिए भगवान की विशेष शक्ति का आविर्भाव होता है। रामकृष्‍ण परमहंस भी एक ऐसे ही अवतार हैं, जो धर्म की पुर्नस्‍थापना के लिए इस धरती पर आए थे। वे किसी विशेष धर्म, जाति या राष्‍ट्र के लिए नहीं आए थे वरन् समग्र मानवता की भलाई के लिए इस धरा पर अवतरित हुए थे।

श्री रामकृष्‍ण परमहंस का जन्‍म 18 फरवरी 1836 ई. बुधवार को हुआ। बचपन में उनका नाम गदाधर था। आध्‍यात्मिक ज्ञान की प्राप्ति के उपरांत उनका नाम रामकृष्‍ण परमहंस हो गया। बंगाल के एक गाँव में धार्मिकता और ईश्‍वर के प्रति श्रद्धा के माहौल में पालन-पोषण होने की वजह से बचपन से ही उनके मन में ईश्‍वर दर्शन की अभिलाषा थी।

पाँच वर्ष की आयु में बालक गदाधर का विद्यारंभ संस्‍कार कराकर उन्‍हें गाँव की पाठशाला में पढ़ने के लिए भेजा गया। पाठशाला में उनकी नित नई रचनात्‍मकता प्रकट होने लगी। देवी-देवताओं के चित्र बनाने और मूर्तियाँ गढ़ने में वे अपने सहपाठियों से बहुत आगे थे। उनकी छवि एक ऐसे होनहार बालक की बन गई, जो एक बार किसी बात को सुनने के बाद कभी भूलता नहीं हैं।

जब वे केवल सात वर्ष के थे। तब उनके पिता की अकस्‍मात् मृत्‍यु हो गई। इस घटना से गदाधर को बहुत आघात लगा और उनका विद्यालय जाना बंद हो गया। पिता से वियोग की इस घटना ने नन्‍हें बालक गदाधर के मन में संसार के प्रति वैराग्‍य का भाव जागृत कर दिया।

गदाधर का अधिकांश समय माँ के काम-काज में हाथ बँटाते हुए या चिंतन करने में बीतता था। इसी दौरान एक दिन उन्‍हें देवी के दर्शन हुए और इस घटना ने उनके जीवन को बदल दिया। एक दिन गाँव की सभी औरतें आनुड़ नामक गाँव में विशालाक्षी देवी के मंदिर में दर्शन करने जा रही थी। गदाधर भी उनके साथ जाने लगा। रास्‍तें में महिलाओं ने गदाधर से भजन सुनाने के लिए कहा तो वे देवी के भजन गाने लगे।

इसी दौरान उन्‍हें एक दिव्‍य ज्‍योति के दर्शन हुए। उनकी आँखों से आँसुओं की धारा बहने लगी। महिलाओं ने सोचा कि गदाधर पर देवी का आवेश हुआ है। कुछ देर में गदाधर की चेतना लौट आई। यह बात जब उनकी माँ चंद्रमणि को मालूम पड़ी तब उन्‍होंने इसे कोई बीमारी समझकर झाड़-फूँक करवाई।

वक्‍त अपनी गति से बीतता रहा, भगवान के भजन गाने का बालक गदाधर का शौक भी समय के साथ-साथ बढ़ता रहा। उनका पूरा गाँव प्रतिदिन उनके मधुर कंठ से भजन सुनने के लिए एकत्रित हो जाता था। भले ही बालक गदाधर की वाणी, उनके भजनों पर उनका पूरा गाँव मोहित हो गया था लेकिन उनका मन पढ़ाई- लिखाई में बिल्‍कुल नहीं लगता था।

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विद्याध्‍ययन की ओर उनका मन लगे इसलिए गदाधर को सत्रह वर्ष की उम्र में कलकत्‍ता (कोलकाता) भेजा गया। यहाँ पर आने के बाद गदाधर ने अपने मन में संकल्‍प कर लिया कि वे अपना जीवन केवल आध्‍यात्मिक ज्ञान की उपलब्धि में ही लगाएँगे। कुछ समय बाद ही वे दक्षिणेश्र्वर स्थित कालीमंदिर के पुजारी बन गए। उन्‍होंने अपनी इस नवीन जिम्‍मेदारी को आनंद और उत्‍साह के साथ निभाया।

धीरे-धीरे उनके भीतर माँ जगदम्‍बा के दर्शन करने की उत्‍कट कामना उत्‍पन्‍न हो गई। वे दिन-रात देवी की आराधना करते, ध्‍यान करते और देवी के दर्शन करने के लिए फूट-फूट कर रोते। वे बहुत कम भोजन करते और जरा भी नहीं सोते थे। अंतत: उन्‍हें देवी का दर्शन मिला।

इसके बाद वे कठोर आध्‍यात्मिक साधनाओं में लग गए। उन्‍होंने हिंदू धर्म के साथ इस्‍लाम धर्म और ईसाई धर्म के नियमों का पालन करते हुए, ईश्‍वर का साक्षात्‍कार किया। जिस दौरान श्री रामकृष्‍ण परमहंस इस आध्‍यात्मिक आनंद का अनुभव कर रहे थे। उसी दौरान उनके गाँव में यह बात फैल गई कि वे पागल हो चुके हैं। यह बात सुनकर उनकी माता ने उनका इलाज करवाने के लिए उन्‍हें वापस अपने गाँव बुला लिया।

स्‍वास्‍थ्‍य में सुधार होने के बाद उनका विवाह शारदा देवी के साथ सम्‍पन्‍न हुआ। श्री रामकृष्‍ण अपनी सहधर्मिणी को माँ जगदम्‍बा मानकर उनकी पूजा करते थे। उन दोनों का मिलन केवल आध्‍यात्मिक स्‍तर पर ही रहा। श्री रामकृष्‍ण ने शारदादेवी को गृहस्‍थी से लेकर ब्रहृमज्ञान तक सभी प्रकार से शिक्षित किया। श्री रामकृष्‍ण की तरह शारदादेवी भी आध्‍यात्मिकता के सर्वोच्‍च शिखर तक पहुँची। शारदादेवी को आज भक्‍तगण माँ शारदा कहकर पुकारते हैं।

श्री रामकृष्‍ण कहते थे रात्रि के समय तुम आकाश में अनेक नक्षत्र देखते हो, परंतु सूर्योदय होने पर नहीं देखते। तो क्‍या इसी कारण तुम कह सकते हो कि दिन के समय आकश में नक्षत्र नहीं होते? हे, मानव, चूँकि तुम अपनी अज्ञान अवस्‍था में भगवान को देख नहीं पाते, इसी कारण यह न कहो कि भगवान नहीं हैं।

उनका महाप्रयाण 16 अगस्‍त, 1886 को हुआ। अपने भौतिक शरीर को त्‍यागने से पूर्व उन्‍होंने नवयुवकों के दल का गठन किया। इन नवयुवकों में सबसे गतिशील एवं प्रखर थे- स्‍वामी विवेकानंद। स्‍वामी विवेकानंद के नेतृत्‍व में इस दल ने भारत में और विदेशों में श्रीरामकृष्‍ण के संदेशों का प्रचार किया।