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चंद्रकांत देवताले : मुश्किल है उनकी तरह सरल-तरल होना

चंद्रकांत देवताले : मुश्किल है उनकी तरह सरल-तरल होना - chandrakant devtale
चंद्रकांत देवताले, क्या यह सिर्फ एक नाम था किसी वरिष्ठतम कवि का ....इस नाम के साथ उभरती है एक निहायत ही मासूम से व्यक्ति की याद, एक बेहद आत्मीय से सच्चे सरल इंसान की याद, मुझे याद है उनकी पहली और अंतिम दोनों ही भेंट। 
 
पहली भेंट एक छोटे से साक्षात्कार के सिलसिले में हुई थी। तब जो साक्षात्कार प्रकाशित हुआ था उस पर स्वयं उनका फोन आया था, अरे वाह तुम तो शब्दों को मोती की तरह चुनती हो.. कमाल का लिखा है उतनी सुंदर तो हमारी बातचीत भी नहीं हुई थी। मैं गदगद ...अपने लेखन के शैशव में जब कोई वरिष्ठतम साहित्यकार ऐसे शब्दों से नवाज दे तो मन कैसा गुलाबी-गुलाबी हो जाता है। उसके बाद राज्य संसाधन केन्द्र की कई कार्यशालाओं में उनका आत्मीय सान्निध्य मिला।  
 
पहली मुलाकात में कहा था, तुम्हारा नाम नहीं भूल सकता तुम तो स्वयं स्मृति हो ..पर अंतिम मुलाकात में उनके शब्द थे, मुझे याद है तुमने मेरा साक्षात्कार लिया था... अपन SRC(राज्य संसाधन केन्द्र) में भी मिले हैं पर बुरा मत मानना बेटा मैं तुम्हारा नाम भूल गया... मैं किंचित रूठ सी गई थी अरे सर, आप मेरा नाम कैसे भूल सकते हैं, मैं स्मृति हूं, उत्तर तत्काल आया, तो तुमने भी तो शादी कर ली और मुझे बुलाना भूल गई, मैं भी भूल गया हिसाब बराबर.... 
 
बड़े आत्मीयता से बुलाया था हमको जोड़े से घर मिलने पर मैंने 'सरकारी' जवाब ही दिया था, जी सर जरूर आऊंगी और यह 'सरकारी' जवाब कल मुझे रूला गया। अरे ऐसे कैसे जा सकते हैं देवताले जी.... जो नाम याद आए उन्हें फोन किया यह सुनने के लिए कि कोई तो कह दे कि नहीं खबर झूठी है। पर जिसे भी फोन किया उन्हें यह खबर मुझसे ही मिली, तो मैं हताश हो गई और अंतत: खबर सच थी और बहु‍त बुरी थी। 
 
उनकी मां पर नहीं लिख सकता कविता, हर मदर्स डे पर बिना उनकी अनुमति के वेबदुनिया में लगाती रही हूं..
 
जिन्होंने देवताले जी को उनकी कविताओं, विचारधारा और मंच पर बेलाग टिप्पणियों से जाना, उन्होंने उन्हें बिलकुल नहीं जाना, उन्हें वही जान सका है जो कुछ देर भी उनके सानिध्य में बैठ पाया है। उनके बारे में यह विख्यात रहा कि किसी कार्यक्रम में बुलाओ वे उसी के बारे में कुछ ऐसा कह जाते कि आयोजक भी खिसिया कर रह जाते हैं पर ऐसा उन्होंने कभी जान बुझ कर किया हो मुझे नहीं लगता। वह शख्स बस खरी खरी बोल देने के लिए ही इस दुनिया में आए थे पर बावजूद इसके उनका व्यक्तित्व इतना सौम्य था कि हर विषय पर बातचीत करना सरल था। 
 
वे कहते, मैं बड़ा बेतरतीब हूं तो कहने को मन होता कि कविताएं तो बड़ी व्यवस्थित हैं आपकी, वे कहते मैं थोड़ा रूखा हूं तो मन होता कि कैसा बच्चों जैसा तो मन है आपका। वे कहते मैंने अब तक वह नहीं लिखा जो लिखना चाहता था तो मन होता पर आपने वह लिख दिया है जो हम चाहते थे। उनके काव्य संग्रह के शीर्षक चौंकाने वाले हैं और कविताएं उससे अधिक हैरान कर देने वाली और डूब कर पढ़ो तो हिला देने वाली होती हैं। जमाने की परवाह उस शख्स ने चाहे कभी ना की हो पर अपने साहित्य को लेकर वे कभी बेपरवाह नहीं हुए। 
 
अपने साक्षात्कार में ही उन्होंने कहा था कि ऐसा नहीं है कि बाहर की चीजें हमें खत्म कर रही है, हमारे अपने भीतर बहुत कुछ ऐसा पनप रहा है जो हमें धीरे-धीरे विनष्ट कर रहा है। हमें पहले अपने आपको बचाना है बाहरी ताकतों से तो बाद में भी निपट लेंगे। 
 
उनसे लंबे समय से मुलाकात नहीं हुई, यह खबर मिली तो बस पहली और अंतिम मुलाकात ही याद आई....एक तुम्हारा नाम नहीं भूल सकता मैं, और फिर यह कि तुम्हारा नाम भूल गया। पर उन्हें, उनकी यादों को भूल पाना सचमुच मुश्किल है। जैसे मुश्किल है इस बदलते जमाने के बदलते तेवरों के बीच उनकी तरह सरल-तरल होना। अश्रुपूरित नमन...  
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