शुक्रवार, 26 अप्रैल 2024
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Written By Author दिनेश 'दर्द'

कम नहीं थी शख़्स से शख़्सियत बनने की जद्दोजहद

कम नहीं थी शख़्स से शख़्सियत बनने की जद्दोजहद - Mamta Sangte
''तुम बेसहारा हो तो किसी का सहारा बनो,
तुमको अपनेआप ही सहारा मिल जाएगा
कश्ती कोई डूबती पहुँचा किनारे पे,
तुमको अपनेआप ही किनारा मिल जाएगा...''
 
फ़िल्म 'अनुरोध' के लिए गीतकार आनंद बक्षी द्वारा लि‍क्खे इस गीत की ये पंक्त‍ियाँ, उस वक़्त बरबस ही होठों पर आ गईं, जब ममता सांगते की ही ज़ुबानी, उनके माज़ी के कुछ पन्ने पलटे। बचपन की कश्ती में सवार माज़ी, अगर मझधार के थपेड़े खाते हुए गुज़रा हो, तो पन्ने पलटते वक़्त आँखें भी, बतौर गवाह बोल ही पड़ती हैं। उनकी आँखें भी बोल पड़ीं। कुछ देर होठों के साथ-साथ बोलीं, फिर लफ़्ज़ आगे निकल आए और आँखें अपनी नमी के साथ दास्तान के उसी किनारे पर खड़ी रह गईं। फिर लफ़्ज़ों के सहारे ज्यों-ज्यों दास्ताँ लड़कपन के रास्ते इस ओर बढ़ती गई, संघर्ष की आँच में लफ़्ज़ों की नमी भी सूखती चली गई। और फिर इसी के साथ शुरू हुई अपने बचपन, अपनी ख़्वाहिशों और अपनी ख़ुशियों की नींव पर ख़ुद को एक शख़्स से एक शख़्सियत की शक्ल में तामीर करने की जद्दोजहद।
पूजती हैं भगतसिंह के घर की मिट्टी : ममता सांगते की अब तक की ज़िंदगी एक ही सिक्के के दो पहलू हैं, जिसका एक पहलू ज़रूरतमंदों के काम आना, और दूसरा अपने देश के लिए मर-मिट जाना। शायद इसी पागलपन में वो शहीद भगत सिंह के गाँव खटकर कलां पहुँच गईं। इतना ही नहीं वहाँ पहुँच कर उन्होंने न सिर्फ उस घर की मिट्टी को माथे से लगाया, बल्क‍ि कुछ मिट्टी पोटली में बाँध कर अपने साथ भी ले आईं। आज वो मिट्टी उनके पूजाघर को महका रही है। इसके अलावा उन्होंने देशभक्ति से ओतप्रोत कार्यक्रम 'एक शाम शहीदों के नाम' की शुरुआत की। इसके तहत वे अपनी टीम के साथ उज्जैन सहित देशभर में सांगीतिक-साँस्कृतिक कार्यक्रम भी प्रस्तुत करती हैं।
 
9वीं से करना पड़ा घर-घर झाडू-पोंछा : बहरहाल, जैसा कि मैंने ऊपर कहा, हमारी मौजूदा तस्वीर की बहुत-सी लकीरें हमारे माज़ी में ही खींची जा चुकी होती हैं। यहाँ भी ऐसा ही हुआ। बचपन बहुत तकलीफ़ों में गुज़रा। 9वीं तक पहुँचीं, तो हालात ये थे कि किताबें ख़रीदना भी मुहाल था। मगर ज़िद ये, कि पढ़ना भी ज़रूरी। ऐसे में रोज़ स्कूल से लौटकर, माँ के साथ झाडू-पोंछा करने घर-घर जाना पड़ा। धीरे-धीरे हथेलियों की नाज़ुकी पोंछे के पानी में घुल रही थी। मगर दूसरी तरफ रोज़-रोज़ की यही परेशानियाँ, यही जद्दोजहद उनके किर्दार को तराश कर आला बनाने में जुटी हुई थीं।
गुरुजन का मिला भरपूर सहयोग : ममता ने बताया कि माँ के साथ अपने संस्कृत के सर हरगोविंद पाण्डे के घर भी काम करने जाया करती थी। सुबह वो मुझे स्कूल में पढ़ते हुए देखते और दोपहर को अपने घर झाडू-पोंछा करते। संभवत: मेरे इसी संघर्ष और मेरी लगन से प्रभावित होकर उन्होंने पढ़ाई में मुझ पर अतिरिक्त ध्यान दिया। इसी सिलसिले में मैडम पुष्पा चौरसिया और ज्ञान भार्गव का भी बहुत स्नेह और साथ मिला। ज्ञान मैडम ने तो मेरी स्थिति-परिस्थिति जानते हुए चौकीदार को हिदायत दे दी थी, कि ममता देरी से आए, तो भी गेट खोल दिया करो।
 
संस्कार केंद्र ने समझाए ज़िंदगी के मायने : मेरे गुरुजन ने मुझे झाडू-पोंछे की धूल और नमी से बाहर निकाल कर हरिओम आश्रम में सेवा भारती के संस्कार केंद्र से जोड़ दिया। बाद में जहाँ मैंने अपनी योग्यता और क्षमता के हिसाब से 3 साल तक बच्चों को पढ़ाया-सिखाया। संस्था को मेरा काम पसंद आया। इसी आधार पर शहर की और भी पिछड़ी बस्तियों में संस्कार केंद्र खोले गए। इन्हीं पिछड़ी बस्त‍ियों में काम करते हुए मुझे लोगों की सेवा के बदले मिलने वाली दुआओं से बड़ा सुकून मिलने लगा। यहीं मुझमें सेवा के संस्कार पड़े और यहीं जाना कि सच्ची ख़ुशी किसे कहते हैं। जीवन का मक़्सद भी यहीं से मिला। 
 
जब चोटी कटवा दी पिताजी ने : शायद ये 1992 की बात होगी, सेवा भारती से मुझे 100 रुपए मेहनताना मिलता था। अब पढ़ाई के अलावा मन मार्शल आर्ट की ओर भी झुकने लगा। लिहाज़ा, मन की बात पिताजी को बता दी, लेकिन जाति-समाज-रिश्तों-नातों की तमाम बेड़ियों के बीच पिताजी के लिए मेरे हक़ में फ़ैसला इतना आसान न था। मगर उन्होंने इन सबसे लोहा लेते हुए अपनी बेटी की ख़ुशी को तर्जीह दी, और स्वीकृति दे दी। पिता का ज़िक्र आया है, तो ममता जी की ज़ुबानी उनके पिताजी से जुड़ा एक क़िस्सा भी सुनते चलें। '9वीं की बात है। माँ तो रोज़ सुबह ही काम पर निकल जाती थी। स्कूल जाने के लिए अपनी चोटी ख़ुद मुझे ही गूँथना पड़ती थी। इस बात को लेकर मैं अक्सर चिढ़ जाया करती थी। यह देख पिताजी ने एक दिन मुझसे कहा, 'चल आज तेरा ये चोटी का झंझट ख़त्म ही कर देते हैं।' और मुझे पास ही नाई के यहाँ ले जाकर मेरे बाल कटवा दिए। अब ये मेरा नया लुक था, बिल्कुल लड़कों जैसा। यूँ भी पापा ने मुझे बेटों की तरह ही पाला। मैंने भी एक बेटे की ही तरह अपने सारे फ़र्ज़ अंजाम दिए।
 
टूटकर बिखर जाने का जी चाहा था : मुझे यह तो नहीं पता कि किस मंज़िल पर पहुँच जाना कामयाबी कहलाता है, लेकिन मन ये ज़रूर कहता है कि आज मैं जहाँ भी हूँ, पापा ज़िंदा होते तो मुझे इस मक़ाम पर देखकर ज़रूर ख़ुश होते। अफ़सोस, कि वो स्वाभिमान के साथ खड़ी अपनी बेटी को देखने के लिए अब इस दुनिया में नहीं हैं। ज़िंदगी तो क़दम-क़दम पर इम्तेहान ले ही रही थी, 1997 का साल भी बहुत सदमे दे गया था। इसी साल पहले तो फरवरी में पापा गुज़र गए। ये दु:ख धुंधलाया भी नहीं था कि जुलाई में 16 साल के छोटे भाई ने भी आँखें मूँद लीं। सारा परिवार टूट गया। मैं भी टूट कर बैठ जाना चाहती थी, लेकिन अगर बैठ जाती, तो शायद पापा की आत्मा को बहुत तकलीफ़ पहुँचती, इसलिए ख़ुद को सम्हाला और खड़ी हुई। अपने इकलौते बचे बड़े भाई के साथ मिलकर एक बेटे के फ़र्ज़ निभाने में जुट गई।'

इस स्वतंत्रता दिवस पर हम बता रहे हैं भारत के ऐसे 'हीरोज' के बारे में जो न तो स्वतंत्रता संग्राम सेनानी हैं न ही वर्दीधारी सिपाही। ये हैं हमारे आपके जैसे आम लोग, जिन्होंने अपनी पहल से स्वतंत्रता सेनानियों के 'सपनों के भारत' को साकार बनाने की मुहिम छेड़ रखी है। क्या आप भी जानते हैं किसी ऐसे 'हीरो' के बारे में? यदि हां तो हमें फोटो सहित उनकी कहानी [email protected] पर भेजें। चयनित कहानी को आपके नाम सहित वेबदुनिया पर प्रकाशित करेंगे।  

 
पढ़ें अगले पेज पर... हिक़ारत ने दिया एक नया मक़्सद...


 

हिक़ारत ने दिया एक नया मक़्सद : बहरहाल, पिताजी की स्वीकृति के बाद मैंने लोकमान्य तिलक स्कूल में मार्शल आर्ट सीखने के लिए दाखिला ले लिया। फीस अदा करने के लिए मेरे पास सिर्फ सेवा भारती से मिलने वाले 100 रुपए हुआ करते थे, जबकि फीस इससे ज़ियादा थी। मगर कोच बलराम वाडिया ने मार्शल आर्ट के प्रति मेरा समर्पण देखते हुए मुझसे 100 रुपए ही लेना स्वीकार किया। यहाँ आर्थिक रूप से मुझसे सुदृढ़ परिवारों की लड़कियाँ भी आती थीं। उनकी अमीरी उनके व्यवहार में साफ़ झलकती थी। मन दुखता तो था, लेकिन मेरे सामने मेरे लक्ष्य थे, जिन्हें पूरा करने के सिवा मेरे पास कोई चारा न था। लिहाज़ा, उनके सुलूक को दरकिनार करते हुए मैंने अपना ध्यान अपने खेल पर ही केंद्रित रक्खा। मगर इन हालात ने मुझे एक ख़याल और दिया, वो ये, कि अब मैंने प्रण कर लिया था कि मैं आत्मरक्षा का ये हुनर ग़रीब लड़कियों को नि:शुल्क सिखाऊँगी। मेरी मेहनत और लगन रंग लाई। अगले ही बरस 1993 में मुझे उसी स्कूल की लड़कियों को मार्शल आर्ट सिखाने का मौक़ा मिला, जहाँ मैं पढ़ती थी। इसके अलावा भी शहर भर में शिविर लगा-लगा कर लड़कियों को प्रशिक्षित करती रही। मेरा सीखना और खेलना भी जारी था। 1995 में राज्यस्तरीय कराते स्पर्धा में स्वर्ण पदक जीता। इसके अलावा ताईक्वांडो में 5 स्वर्ण, 3 रजत और 2 कांस्य पदक जीते। फिर होशंगाबाद से रैफरी की परीक्षा पास की और रैफरीशिप भी करने लगी।
 
शिष्या को मिले बहादुरी सम्मान से हुई गर्वित : यूँ तो ममता की
ज़िंदगी में गर्व के कई क्षण आए, लेकिन वो क्षण उनके लिए बहुत ख़ुशी का था, जब उनकी शिष्या प्रिया सैनी को प्रदेश सरकार की ओर से 2008 में 'रानी अवंति बाई बहादुरी सम्मान' दिया गया। हुआ यूँ कि प्रिया ने अप्रैल 2007 में उप्र के मुजफ्फरनगर जिले में उसकी चेन झपटकर भाग रहे एक कुख्यात अपराधी को धर दबोचा था। उसके दूसरे साथी ने अपने साथी को प्रिया की पकड़ से छुड़ाने के लिए प्रिया पर गोली भी चलाई। गोली प्रिया को बेधती हुई पार चली गई, लेकिन जब तक कोई मदद पहुँचती, प्रिया ने उसे दबोचे रक्खा और अपराधियों को पुलिस के हवाले कर के ही दम लिया। वहीं ममता सांगते को समाजसेवा के क्षेत्र में उल्लेखनीय योगदान के लिए वर्ष 2009 का राजमाता सिंधिया समाजसेवा सम्मान दिया गया। मार्च-2010 में डिंडोरी में आयोजित एक समारोह में मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने स्वयं ममता सांगते को इनाम राशि, प्रतीक चिन्ह व प्रशस्ति पत्र भेंट कर सम्मानित किया।
 
केदारनाथ आपदा में ताबड़तोड़ जुटाई थी सामग्री : जहाँ तक समाजसेवा की बात है, तो ममता जी सिर्फ उज्जैन, इंदौर या भोपाल तक ही सीमित नहीं रहीं। देशभर में जहाँ कहीं भी कोई प्राकृतिक आपदा आती, ममता जी मदद करने के लिए ख़ुद को वहाँ जाने से रोक नहीं पातीं। जम्मू-कश्मीर में बाढ़ आने पर भी राहत सामग्री लेकर वहाँ पहुँची। उनका कहना है कि लोगों की मदद के लिए मुझे समाजजनों के सामने हाथ फैलाने से भी कोई गुरेज़ नहीं है। मेरे शहरवासी तो यूँ भी बढ़-चढ़ कर मदद करते हैं। मेरे पीछे मेरे शहर का पूरा-पूरा संबल है। इसी प्रकार जून 16, 2013 को केदारनाथ में हुए हादसे के लिए भी उज्जैन-इंदौर से ताबड़तोड़ राहत सामग्री जुटाई और रुद्रप्रयाग तथा गोचर तक ले जाकर सैनिकों को सौंपी। दूसरी खेप लेकर 24 सितंबर को फिर रवाना हुईं, जिसमें अपने हाथों से प्रभावितों के बीच 300 रजाई, कंबल, चादर सहित बर्तन आदि बाँटे और उन्हें गले लगाया। इसके अलावा 2014 में लगभग 10 क्विंटल राहत सामग्री एकत्रित की और जम्मू व ऊधमपुर के भाई-बहनों के बीच तक्सीम की।
 
काठमांडू पहुँचे राहत सामग्री लेकर : मार्च-2015 में हिमाचल प्रदेश के चंबा जिले के लिल्ह कोठी गाँव के ज़रूरतमंद बाशिंदों के बीच गर्म कपड़े बाँटे। अभी लौटे कुछ ही दिन थे कि 25 अप्रैल को नेपाल में भूकंप ने प्रलय मचा दी। टीवी पर वहाँ की तस्वीरें देख कर दिल दहल गया और हम नेपाल जाने से ख़ुद को रोक नहीं सके। इंदौर-उज्जैन सहित कई जगह से मदद माँगी और राहत सामग्री एकत्र कर तमाम मुश्किलों से जूझते हुए काठमांडु पहुँच, सेना के राहत शिविर में सामग्री सौंपकर ही साँस ली। इसके अलावा समाज के 8 बच्चों को अपने प्रयास से प्रायवेट स्कूलों में शिक्षा दिलवा रही हैं।
 
सलाहियत के बग़ैर हुनर किस काम का : 4 अगस्त की शाम से शुरू हुई मूसलाधार बारिश ने विजयनगर इंदौर सहित शहर की कई बस्तियों को डुबो दिया। ऐसे में वहाँ के रहवासियों के साथ कमर-कमर तक पानी में डूबे लोगों के बीच सेवा कार्य किया। इतना ही नहीं, उन्होंने जेल रोड-उषा फाटक केंद्र पर प्रशिक्षण पा रही सभी 38 महिलाओं और युवतियों से विजयनगर बस्ती के लोगों की मदद करने के लिए भी कहा। इस पर कुछ महिलाएँ अपने-अपने घरों से रोटियाँ बना लाईं और कुछ महिलाओं व छात्राओं ने पैसे इकट्ठे कर आटा ख़रीदा और केंद्र पर ही रोटियाँ बना कर पैकेट तैयार किए। इसमें ख़ास बात यह रही कि दोनों क्षेत्रों की महिलाएँ एक-दूसरे से अपरिचित थीं, लेकिन सारा दिन उनके लिए खाने के पैकेट बनाने में जुटी रहीं। इस पर ममता जी ने कहा कि, यही तो संस्कार हैं। हमने इन्हें सिर्फ़ हुनर सिखाया और सलाहियत नहीं सिखा पाए, तो ये हुनर किस काम का ? उन्होंने इस बात पर रोष भी व्यक्त किया कि डूब वाली बस्ती के आसपास ऊँची-ऊँची इमारतों में कई रईस लोग रहते हैं। वो चाहते तो रातभर से पानी में डूबे भूखे-प्यासे बच्चों के लिए सुबह कुछ खाने-पीने का इंतेज़ाम भी कर सकते थे, लेकिन मदद तो दूर, वो लोग इस बस्ती की तरफ ऐसे कौतूहल से देख रहे थे, जैसे बच्चे किसी तालाब में मगरमच्छ देख कर अचालक उछल-कूद करने लगते हैं।
 
...और वाघा पर सजी, एक शाम शहीदों के नाम : एक और ख़ास बात, जो ममता जी में कूट-कूट कर भरी है, वो है राष्ट्रभक्ति। उन्होंने कई बार वाघा बॉर्डर पर 'एक शाम शहीदों के नाम' का आयोजन किया। इसके अलावा एक और बात है, जो उन्हें सबसे अलग करती है। वो है देश की सीमाओं पर तैनात सैनिकों की कलाई पर ऐन रक्षाबंधन के दिन राखी बाँधना। यह मिशन शुरू हुआ 2008 से, जब अमृतसर में एक संत के पास जाना हुआ। उनसे वाघा बॉर्डर दर्शन करने की गुज़ारिश की। वहाँ पहुँचे, तो तैनात सैनिकों को देखकर पता नहीं क्यूँ, उनकी इस तपस्या के प्रति भावनाएँ उमड़ पड़ीं। सहसा ख़याल आया कि जब रक्षाबंधन पर देशभर में बहनें अपने भाइयों की कलाइयों पर राखियाँ बाँधती होंगी, तब हमारी रक्षा की ख़ातिर सरहदों पर डटे इन भाइयों को भी तो अपनी सूनी कलाइयाँ देखकर अपनी-अपनी बहनें याद आती होंगी। ऐसे में क्यों न ऐन रक्षाबंधन पर ही इनकी कलाइयाँ रक्षासूत्रों से सजा दी जाएँ और तमाम बहनों की कमी ये एक बहन पूरी कर दे।
 
सीमा पर जाकर सैनिकों को बाँधती हैं राखी : अपनी ये ख़्वाहिश ममता ने उन सिक्ख संत को बताई। उन्होंने तत्कालीन उच्च अधिकारी से चर्चा कर ममता की बात करवाई। उच्च अधिकारी ने ममता की ख़्वाहिश पर हैरत जताते हुए सम्मान भाव से अपनी अब तक की सेवा गतिविधियों की विस्तृत जानकारी मंगवाई। घर आकर उन्होंने चाही गई तमाम मसौदा इकट्ठा किया और उन्हें भेज दिया। आख़िर, तमाम औपचारिकताओं के बाद उन्हें एक ख़त के माध्यम से सैनिकों को राखी बाँधने की अनुमति मिल गई। साथ ही अपनी टीम के साथ आने का निमंत्रण भी। यह सूचना पाकर ख़ुशी से पागल हो गईं ममता। इस पर सगे भाई ने पूछा कि रक्षाबंधन पर तू मुझे छोड़कर दूसरों को राखी बाँधने जाएगी ? ममता ने कहा कि भईया आपकी कलाई पर तो घर पर ही, बाकी तीन बहनें भी राखी बाँध सकती हैं, लेकिन ज़रा सीमाओं पर ठण्ड, गर्मी और बरसात में हमारी ख़ातिर अपनी ज़िंदगी दाँव पर लगाने वाले इन फौजी भाइयों के बारे में भी तो सोचिए। माना कि उनसे हमारा ख़ून का रिश्ता नहीं, लेकिन फिर भी वो हमारी हिफ़ाज़त में डटे हुए हैं। इस रिश्ते से ही सही, वो मेरे भाई हुए और मेरे रहते रक्षाबंधन पर मेरे भाइयों की कलाइयाँ सूनी रहें, ये कैसे हो सकता है। अब ममता की इन बातों का किसी के पास कोई जवाब नहीं था। सबके होंठ सिले थे और आँखें खुली थीं, गौरवपूर्ण विस्मय से।
 
उज्जैन का दिन था उस रोज़ वाघा पर :  उस बरस संयोग भी ऐसा था, कि 15 अगस्त को गणतंत्र दिवस और 16 को रक्षाबंधन। ममता अपनी टीम के साथ एक दिन पहले ही पहुँच गईं। 15 अगस्त की पूर्व संध्या पर वाघा बॉर्डर पर बीटिंग रीट्रीट के दौरान रोज़ बजने वाली कैसेट को आराम दिया गया। और सांगीतिक व सांस्कृतिक आयोजन का दायित्व दिया गया ममता सांगते के प्रतिनिधित्व में गई उज्जैन की टीम को। टीम का हर सदस्य इसे उपलब्धि मानते हुए फूला नहीं समा रहा था। बीटिंग रीट्रीट देखने आए सभी लोग उज्जैन के गायकों और साज़िंदों की आवाज़ और धुन पर देशभक्ति के रंग में सराबोर होकर झूम रहे थे। उज्जैन की ही एक बालिका को प्रतीकस्वरूप भारत माता बनने का भी शरफ़ हासिल हुआ। वो समा ममता और उनकी टीम के साथ-साथ वहाँ तैनात सैनिकों और उपस्थित देशवासियों के लिए भी यादगार बन गया। अगले दिन, यानी रक्षाबंधन पर वाघा सहित अटारी मुख्यालय पर ममता और उनके साथ गई तमाम बहनों ने सैनिकों को राखी बाँधी और कृतज्ञता ज्ञापित की। बस, तभी से ये सिलसिला जारी है। इसके बाद वे रक्षाबंधन पर लगातार दो बार वाघा बॉर्डर गईं और फिर उसके बाद आर.एस. पुरा व अन्य सीमाओं पर। इस बार द्रास के लिए डाक से राखियाँ भेजी जा चुकी हैं। स्वयं जाने के लिए 3 सीमाओं के उच्च अधिकारियों से बात चल रही है, जिस सीमा क्षेत्र से स्वीकृति मिल जाएगी, रक्षाबंधन वहीं मनेगा।
 
महिलाओं को बना रहीं आत्मनिर्भर : इन सबके अलावा ममता, सेवा भारती के माध्यम से ग़रीब बस्ती की लड़कियों-महिलाओं को सिलाई-कढ़ाई- बुनाई-पापड़-बड़ी-अचार आदि का नि:शुल्क प्रशिक्षण देती हैं। साथ ही सामाजिक न्याय एवं अधिकारिता मंत्रालय द्वारा प्रायोजित 'महिलाओं हेतु वाणिज्यिक मोटर वाहन प्रशिक्षण और आत्मरक्षा कौशल कार्यक्रम' के तहत महिलाओं को आत्मरक्षा के गुर सिखाने का दायित्व भी मंत्रालय ने ममता सांगते को दिया है। जहाँ तक आय का प्रश्न है, इसके लिए वे भारतीय जीवन बीमा निगम में बीमा अभिकर्ता के रूप में काम करती हैं। साथ ही सामाजिक न्याय एवं अधिकारिता मंत्रालय द्वारा लगाए जाने वाले हाटों में इन्हीं महिलाओं द्वारा बनाई चीज़ें व अन्य रेडिमेड कपड़े बेचती हैं। इससे उनके साथ-साथ काम कर रही महिलाओं को भी आय होती है और साथ ही स्वाभिमानी और आत्मनिर्भर होने की सुखद अनुभूति भी। यह पूछने पर कि ममता जी बचपन से आप संघर्ष कर रही हैं, कहाँ तक पहुँच कर सुस्ताने के लिए रुक जाना चाहती हैं ? उनका जवाब था, आख़िरी साँस पर।
अगले पेज पर पढ़ें... आज़ादी के ये मायने तो हरगिज़ नहीं...

आज़ादी के ये मायने तो हरगिज़ नहीं : आज़ादी की 68वीं सालगिरह मनाने की तैयारियाँ की जा रही हैं, लेकिन ममता सांगते अभी भी आज़ादी से मुत्मइन नहीं हैं। उनका मानना है कि किसी भी देश की जान उसके युवा होते हैं और जब युवा ही आज़ादी के सही-सही मायने नहीं समझेंगे, तो ऐसी आज़ादी हमारे किस काम की ? आज़ादी की क़ीमत युवाओं को समझना चाहिए। आज अधिकांश युवा मौज-मस्ती, नशाखोरी आदि को आज़ादी समझते हैं। इसके बरअक्स आज़ादी तब होगी, जब लड़कियाँ-महिलाएँ खुली हवा में साँस ले सकेंगी। मगर मैं उन ज़ियादातर लड़कियों-महलाओं का विरोध करूँगी, जो आज़ादी के नाम पर तंग और छोटे पहनावे को तरजीह देती हैं। उनके भाइयों या अन्य लोगों के एतिराज़ उठाने पर, उल्टा उन्हें अपनी नज़र सम्हालने और ख़ुद पर नियंत्रण रखने की नसीहत तक दे डालती हैं, लेकिन अपना पहनावा शालीन नहीं करतीं। मैं ख़ुद लड़की हूँ और पूरी ज़िम्मेदारी के साथ कहती हूँ कि सजने-सँवरने से मुझे कोई इन्कार नहीं, लेकिन लड़कियों को अपने पहनावे पर ध्यान देना चाहिए।
तरक्कीपसंद तब भी थीं महिलाएं : आज़ादी के लिए संषर्घरत भारत में पुरुषों के साथ महिलाएँ भी कंधे से कंधा मिलाकर चलती थीं। इसका मतलब ये हुआ कि उस समय की महिलाएँ भी जागरूक और तरक्कीपसंद थीं, लेकिन वो हमेशा सादगीपूर्ण पहनावे में ही नज़र आईं। लिहाज़ा, आज की स्त्रियाँ ख़ुद को तरक्कीपसंद कह कर तंग पहनावे की पैरवी नहीं कर सकतीं।
 
विरासत में मिली आज़ादी का मर्म समझना होगा : ममता जी मानती हैं कि आज़ाद होकर भी हम पूरी तरह से आज़ाद नहीं हो पाए। दरअसल हमें आज़ादी विरासत में मिली है, शायद इसीलिए हमारी नज़र में आज़ादी का वो सम्मान नहीं, जो होना चाहिए था। आज विरासत के रूप में मौजूद इमारतों को भी हम सिर्फ़ तफ़्रीह की दृष्टि से देखने या निहारने जाते हैं। उस इमारत का कोई पत्थर उखड़ जाने पर हमें ज़रा भी तकलीफ़ नहीं होती। तो फिर आज़ादी का मर्म समझने की तो बात ही छोड़िए।
 
हमें सिर्फ़ व्यक्तिगत आज़ादी से मतलब : इसका एक और मुख्य कारण हमारा अपनी आज़ादी के संघर्ष और शहीदों की शहादत को नज़रअंदाज़ कर उससे दूर चले आना रहा है। जबकि होना यह चाहिए कि बाल्यकाल से ही हमें अपने बच्चों को आज़ादी के संघर्षों और उसके नायकों के बारे में बताना चाहिए। स्कूलों में इन्हें पाठ्यक्रम में शामिल किया जाना चाहिए। जहाँ मनोरंजन के नाम पर इतने सारे फूहड़ धारावाहिक या कार्यक्रम बनते हैं, वहीं कुछ निर्माता-निर्देशक ऐसे भी हों, जो राष्ट्रभक्ति से ओतप्रोत कार्यक्रम तैयार करें। वास्तव में, हमारी आज़ादी अब ख़ुद तक ही महदूद रह गई है। इसी सोच ने हमें बाकी सब लोगों या कहें कि शेष भारत से काट कर हमें अपने-अपने घर-परिवार तक सीमित आज़ादी में, क़ैद कर दिया है। और ऐसी आज़ादी को कम-अज़-कम मैं तो आज़ादी नहीं कह सकती।