पवित्रता से सर्व सुखों की प्राप्ति
सफलता दिलाती है मन की पवित्रता
मन की पवित्रता ही सर्वश्रेष्ठ पवित्रता है। मन की पवित्रता से संपूर्ण शरीर की पवित्रता संभव है। अधिकतर लोग शरीर को पवित्र बनाने के बारे में सोचते रहते है परंतु मन की पवित्रता के बारे में सोचते भी नहीं है। वास्तव में मन की पवित्रता से दैनिक दिनचर्या में होने वाले कर्मों में भी पारदर्शिता और पवित्रता की झलक साफ दिखाई देती है। सफलता और असफलता बहुत हद तक मन की स्थिति पर निर्भर रहती है। उसे कोई हरा नहीं सकता। मन की पवित्रता से ही मनुष्य अपने मन को एकाग्र कर सर्व इंद्रियों पर विजय प्राप्त करता है। भगवान ने भी गीता में कहा है कि जो व्यक्ति मन से पवित्र और निश्छल होता है वही मुझे प्रिय है। इसीलिए अपने स्मरण और प्राप्ति के संबंध में 'मनमनाभव' के मंत्र को ही सर्वश्रेष्ठ याद की विधि बताया है। क्योंकि जब तक हमारा मन पवित्र नहीं होगा ईश्वरीय याद और परमात्मा की मदद नहीं ले सकते, मुक्ति और जीवनमुक्ति की बात तो दूर है। मन के संदर्भ के बारे में अपने विद्वानों द्वारा अनेक बातें कही गई है। किसी ने मन को घोड़ा के समान चंचल बताया है तो किसी ने मन को शैतान तक कह दिया है। किसी ने मन को बच्चे की भाँति बताया है। परंतु मन आत्मा की तीन शक्तियों मन, बुद्धि और संस्कार में से एक है। यह मन तभी कार्य करता है जब आत्मा शरीर धारण किए रहती है। मन का कार्य निरंतर सोचते रहना है।
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घंटे के दौरान अपने भूत-भविष्य और वर्तमान के बारे में सोचना मन का कार्य है। सोच में अच्छा और बुरा दोनों हो सकता है परंतु अच्छे और बुरे का निर्णय बुद्धि करती है फिर कर्म होता है और कर्मों के परिणाम से ही दुख-सुख, पाप-पुण्य, यश-अपयश की प्राप्ति होती है जिससे व्यक्तित्व का निर्माण होता है। आत्मा को शरीर छोड़ने के बाद भी यदि याद किया जाता है तो सिर्फ उसके कर्मों के फल के आधार पर। कहा जाता है कि मन के हारे हार और मन के जीते जीत। अर्थात जो मन से हार जाता है उसका अपना भी पराया हो जाता है और जो मन पर पूर्ण विजय प्राप्त कर लेता है उसके लिए संसार की कोई भी वस्तु अप्राप्त नहीं होती है। फिर उसकी जीत तो पक्की है।