लघुकथा-खामोश सपना
- अक्षय नेमा मेख
सुबह के छः बजे थे, उसने दरवाजा खोला। भुकभुका सा प्रकाश मेरी आंखों पर पड़ा और नींद टूट गई। एक अंगड़ाई लेते हुए बिस्तर पर ही बैठ गया। एक हाथ में मंजन तो दूसरे हाथ में बाल्टी जिसे लेकर वह आंगन में पानी के लिए जा रही थी। मैं बिस्तर से बाहर आया उससे बाल्टी ली और नल से पानी ले आया। उसने मंजन किया और रसोई में चली गई।
अब समय जैसे सबको बारी-बारी से जगाने लगा, सब अपनी नित्य क्रियाओं से संपन्न होकर डाइनिंग टेबल की कुर्सियों पर तन-तन कर बैठ गए। ऐसा लग रहा था जैसे आज सब मौन व्रत धारण किए है। उसी वक्त वो हम सब के लिए चाय और नाश्ता ले आई, सबने अपना काम शुरू किया, खा-पीकर सब अपने-अपने कमरों की तरफ बढ़ते गए और कमरों में समा गए।
यहां कुर्सी पर वो अकेली बैठी चाय पी रही थी। एकाएक मौन व्रत टूटा, कमरे से निकलता हुआ छोटू जो स्कूल की ड्रेस में तैयार होकर आया था बोला- "मम्मी में स्कूल जा रहा हूं।" तब चाय पीते और अख़बार पर नजर दौड़ाते हुए माँ का उत्तर केवल 'हां' था।
इतने वार्तालाप के बाद जैसे मौन ने फिर सबकी जिव्हा पकड़ ली हो। सब अपने-अपने काम से मां को बताकर जाने लगे, लेकिन सबके लिए मां का उत्तर केवल "हां" ही था। हां के सिवा आज कुछ और शब्द सुना ही न गया था। सब काम अपने-अपने समय से हो रहे थे। दोपहर का भोजन, शाम की चाय सब साथ तो थे लेकिन ख़ामोशी पूरे घर में फैली थी। मैने मां से कुछ बात करनी चाही लेकिन हो न सकी।
अचानक ही दरवाजा खुला और वही भुकभुका सा प्रकाश आंखों पर पड़ा, मैं उठ भी गया लेकिन इस बार दरवाजे पर मां नहीं थी। क्योकि मां थी ही नहीं, मेरी आंखें नम हो गई। सोचा खामोश ही सही, पर काश यह सपना हकीकत होता।