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समझा था आकाश जिसे वो
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मधुर नज्मी झरना निकला पर्वत निकला सागर निकलाहर लम्हे की आँखों से क्या मंज़र निकलाक़दमों की आहट सुनकर दिल ने दोहरायाबरसों बाद जहाँ से कोई मुसाफिर निकला ना दरवाजा ना दीवारें ना छत कोईवो मलबों का ढेर तो मेरा ही घर निकलासाँसों की हल्की टक्कर से बिखर गया हैक्या बतलाऊँ जीवन कैसा जर्जर निकलाना पूछो क्या मेरे दिल पर गुज़री साहिलसमझा था आकाश जिसे वो पिंजर निकला । साभार:प्रयास