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तन की मीठी झील में
हरीश निगम अंग-अंग के सुर नए, बदली-बदली ताल,आग लगाता-सा लगे, फागुन अब के साल।रंगों की बौछार में, ताजमहल-सी देह,मोरपंख से मन उगे, सुआपंखियाँ-नेह।खट्टी-मीठी चिट्ठियाँ, फगुनाहट की बाँच,सपनों के वन में भरे, मन का हिरन कुलाँच।खिली-खिली-सी चाँदनी, धूली-धूली-सी धूप,बौराई इस गंध में, बहके-बहके रूप।साधों की नदिया चढ़ी, कोई ना ठहराव,पाल खुले तूफान में, डगमग होती नाव।अंग छरहरी नीम के, उठती मीठी पीर,अभी-अभी तो हँस रही, अभी-अभी गंभीर।गूँजे सारे गाँव में, ढोलक ताशे फाग,पिया बसे परदेश में, सारे विरहा-राग।तन की मीठी झील में, खिले कमल के फूल,हल्दी बोरी चिट्ठियाँ, अब तो करो कबूल।