डायरी की कविता
- रामदरश मिश्र
तुमने कविताएं लिखींकहानियां लिखींउपन्यास लिखेऔर जानें क्या-क्या लिखें लेकिन तुम सीधे किसी में नहीं उतरेतुम्हारे अपने दर्दऔर उसमें समाए आसपास के सुख-दुखअनेक काल्पनिक स्रोतों में बहते रहेदूसरों की सुनते रहे, अपनी कहते रहेलोगों के मन परउनका जो बेचैन प्रभाव पड़ता रहावह यह सोचकर हलका हो जाता रहाकि अरे यह सब तो काल्पनिक हैलेकिन मुझमें तो तुम सीधे उतरे-अपने नंगे सत्य के साथतुम्हारे भीतर कितना कुछ अनकहा रह गया थाकितने ही छोटे-छोटे मर्म क्षणऔर भाव-स्पंदन यों ही चले जाते रहेउन सबको लिए-दिएआज मैं तुम्हारा आईना बन गई हूंलोग मुझमें तुम्हें देखते हैं तो पूछते हैं-अरे यह किसका चेहरा हैलगता है-इसे पहले भी कहीं देखा है-लेकिन दूसरों के चेहरों मेंअरे सफल और अखंड-सादिखने वाला यह आदमीइस दर्पण में तो एक ठेठ आदमी दिख रहा हैगिरता हुआ, उठता हुआटूटता हुआ, बनता हुआहंसी में आंसू और आंसू में हंसी छिपाए हुएमैं तुम्हारे निजीपन का दर्द अपने में कसे हुएपरम प्रसन्न हूं कि लोगों ने तुम्हेंएक ठेठ आदमी के रूप में जान लियाजिसने यहां तक पहुंचने के लिएकितनी ही टूटी पगडंडियों से यात्रा की हैलेकिन तुमने मुझे दर्द के सिवा भी तोबहुत कुछ दिया हैप्रकृति और मनुष्य की न जाने कितनी छवियांअपने में भरकर मुझमें व्याप्त हुए होमैं पूनम की चांदनी-सी डहडहा रही हूंप्रभात की जीवन-रश्मियों में नहा रही हूंमुझमेंपावस बरस रहा है झर झर झर झर वसंत की मदमस्त हवाएं फाग गा रही हैंकितने-कितने उत्सव मस्ती से हंस रहे हैंकितने-कितने रंगों के पल-पांखी उड़ रहे हैंकितने-कितने जाने-अनजाने लोग आ-जा रहे हैंमैं उल्लसित होती-होती थरथराने लगती हूं-पीडि़तों और बेबसों के लिए तुम्हारी संवेदना सेलेकिन उस संवेदना से फूटती हुई ज्योतिमुझमें एक उजास भर देती हैलगता है दर्द में एक चाहचाह में एक राह फूट रही हैऔर एक दृष्टि-आलोक उसेदिशा दिखा रहा हैवाह, कितना अच्छा लगता है किलोगों की कुछ अच्छी रचनाओं कीपंक्तियां भर दी है धूप के टुकड़ों-सीअपने प्रसन्न आस्वाद के साथमैं चुपचापवे पंक्तियां गुनगुनाया करती हूंऔर मैं कितनी सद्भाग्या हूं कि बैठी-बैठीतुम्हारे द्वारा की गई यात्राओं के साथ हो लेती हूंकितनी-कितनी भूमियों की अपनी-अपनी गंधमुझमें अंतर्व्याप्त हैंयह अच्छा किया तुमनेकि मुझ पर भारी-भारी फलसफोंऔर गरिष्ठ सिद्धांत-चर्चाओं का बोझ नहीं लादालादा होता तो मैं ठस हो गई होतीऔर आलोचना ताना मारती किमेरा ही काम करना था तो तू डायरी क्यों हुई रीमैं भी चुप कहां रहती, कहती-मैं तेरे पास कहां गई थी री अभिमानिनीमेरे घर में तू ही बरजोरी से घुस आई है।