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कविता : सुनो नकाबपोश

कविता : सुनो नकाबपोश - Poem On Mask man
चारों तरफ दिख रहे हैं
 
दुनिया में नकाब लगाए लोग
 
आपसे मिलने, बतियाने से
 
हाथ मिलाने से घबराते हुए
 
जल्दी से किनारे से निकलकर
 
मुंह छिपा कर भाग जाते हुए
 
मैं सोचता हूं कि क्या वे वही
 
नकाबपोश हैं जो बरसों पहले
दादी की कहानी में आए थे
 
और तमाम
 
बहुमूल्य सामान चुराकर भाग गए थे
 
मैं सोच रहा हूं और धीरे से बुदबुदाता हूं
 
नकाबपोश
 
इन्होंने चुरा लिया
 
नदियों से उनका पानी
गायों, भैंसों, बकरियों से उनके बच्चों के हिस्से का दूध
जंगलों से उनके हिस्से के पेड़
सोन चिरैया, गौरैया, तितलियां
 
पहाड़ों से उनकी उनकी वादियों के मुस्कराते झरने
फूल, जंगल और पेड़
 
चिरैया से घोंसला
हाथियों, शेरों से पतझड़
बसंत, शरद, मानसून
 
पता नहीं क्या-क्या
और तो और अपनों से बड़ा पन
 
राजनेता बन चुरा लिया
निरीह अपनों की आंखों में सजे सपने
 
और करते रहे फेयर एंड लवली
 
और फेयर एंड हैंडसम का प्रचार
 
अपने असली चेहरों को छुपाए
 
लेकिन तुम्हारी चोरी के
विभिन्न अपराधों की धाराओं को
 
प्रकृति ने तुम्हारे मुंह पर लिख दिया है
 
और तुम भाग रहे हो नकाब लगाए
 
अपने मुंह को छिपाए। 
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