lockdown poem : संभाल कर रखिए जनाब ये फ़ुरसत के लम्हें
संभाल कर रखिए जनाब ये फ़ुरसत के लम्हें
बड़ी क़ीमत अदा कर ये दौर ए सुकूं पाया है
अपने हाथों से दे रहे थे ज़ख्म बेहिसाब
कुदरत ने तो बस आज आईना दिखाया है
सिमट आए है रिश्ते चार दिवारी में
खौफ ने ही सही, मकान को घर तो बनाया है
मुद्दतों बाद खुश है आज बूढ़ा दरख़्त
शाख से टूटे पत्तों को कोई रौंदने नहीं आया है
थम गया है शोर ए रफ़्तार जमाने का
ये कौन सा पंछी मेरे आंगन में चहचहाया है
आ भुला दे खुद को इन खामोश फिज़ाओं में
खुद को खोया जिसने उसी ने खुद को पाया है...