नई कविता - उम्मीद
कई सालों से देख रहा हूं
मंदिर के बाहर
एक कोने में बैठी
अस्सी के आसपास होती उम्र की
उस वृद्धा को ।
जिसे होती है उम्मीद कि
आने-जाने वाले भक्तों से
इतना तो मिल ही जाएगा उसे
जिससे निकल जाएगी रात
आधा-दूधा खाकर परिवार की।
इसी उम्मीद में सह जाती है वह
बदन को थरथराती ठंड
ग्रीष्म की तपन और
बरसात का पानी भी ।
पाया है मैंने हमेशा ही
उसके झुर्रीदार पोपले चेहरे पर
गजब का आत्मसंतोष।
देखकर उसे सोचता हूं अक्सर ही
क्यों नहीं है सब कुछ पाकर भी
वह प्रेममयी मुस्कान और
आत्म संतोष चेहरे पर हमारे ।
मांगती वह भी है और
मांगते हम भी हैं मंदिर जाकर ।
नहीं मिलता है उसे भी और हमें भी
रोज उम्मीद के मुताबिक
पर फिर भी रहती है वह संतुष्ट
और हम असंतुष्ट, क्यों ...?