कविता : फिर बाद बरस के
स्वाति गौतम
फिर इस साल बाद बरस के
कुछ दीप मैंने जलाए हैं
अपने मन के कुछ उजियारे
फिर तुझ तक पहुंचाए हैं
कुछ खील, बताशे, मिठाई से
रिद्धि-सिद्धि की तैयारी है
तेरे स्वागत में गली, मोहल्ले, नुक्कड़ तक
ज्योति की लड़ी लगाई है
जो घुला-मिला सा रूप जिसे
आधुनिक सभ्यता कहते हैं
वहां कुछ लोग सड़कों पर गोबर, कपास, सींक
तलाशते पाए हैं
फिर इस साल एक टीके से
कानून-व्यवस्था हारी है
फिर इस साल छोटे मन के कोनों में
मैंने आस्था का अंकुर उगाया है
राम-रावण के भेद को
कंधे पर बिठा दिखाया है
मर्यादा, शील, क्षमा, दया
तेरे रुद्ररूप का दर्शन उनको करवाया है
क्यों मर्यादापुरुषोत्तम है ?
क्यों गोवर्धन गिरधारी है ?
तेरी हर छवि क्यों जग से निराली है ?
जो बढ़कर जब परिपक्व बने
हर कदम उसे ये भान रहे
जब पहुंचे चांद पे वो
कहे गर्व से हर जन से
जाने कितने किस्से मेरी मां ने
चंदा मामा के सुनाए हैं