नई कविता : नाराजगी
देवेंन्द्र सोनी
रिवाज सा हो गया है आजकल
बात-बेबात पर नाराज रहने का।
यह नाराजगी होती है,
कभी अच्छी तो
कभी देती है पीड़ा अधिक
पर मैं इसे हमेशा सुखद ही
मानता हूं
चलता है इससे मन में
रूठने और मनाने का द्वंद
जो उपजाता है - अंततः करुणा
परिणित होना ही होता है जिसे
फिर आनंददायी प्रेम में।
रहती है जब तक यह
सीमा में अपनी
देती है सीख कई, नई-नई
पर तोड़े जब यह मर्यादा
मिलती है फिर पीड़ा घनी
चुनना हमको ही है इनमें से
नाराजगी का कोई एक रूप
सुख से रहना है या
रहना है फिर दुखी सदा
अटल सत्य है यह तो
रहना है जिंदा जब तक
छूट सकती नहीं हमारे
स्वभाव से नाराजगी
होती है यह ज्यादा कभी तो
खुद ही हो भी जाती है कम
समझ लें इसको थोड़ा सा
और खुशहाल रहें हरदम।