हिन्दी कविता: सिकुड़े फुटपाथ
नाचती अट्टालिकाएँ हैं
सड़क को मुँह चिढ़ाती
चादरें हैं ओस की
फुटपाथ अब सिकुड़े पड़े हैं
जमी सी धमनियों में
भूख की गर्मी है बहती
किटकिटाहट दाँत की
बिना बोले सब है कहती
मुस्कुराते होंठ तो
दिखता लहू पपड़ियों में
अलाव की राख में
उकड़ू कमर दर्द सहती
ऊपर अट्टालिका में
शॉल यूँ बिखरे बड़े हैं
घूमते अर्धनग्न से ये
बड़े-बड़े चिकने घड़े हैं
चादरें हैं ओस की
फुटपाथ अब सिकुड़े पड़े हैं
सूखे दृग अब जम गए
हवा ठंडी जब लगी
देख इनकी दुर्दशा तो
कुछ की मानवता जगी
बन के जथ्था आ गए
लाये हैं कुछ गर्म कपड़े
फुटपाथ की बाहें जो फैली
खींची हैं फ़ोटो बड़ी
दान की फ़ोटो खिंचा के
इनपर ठप्पे गड़े हैं
तमगे लेते सेवाओं के
दाता मंचों पे चढ़े हैं
चादरें हैं ओस की
फुटपाथ अब सिकुड़े पड़े हैं
संक्षिप्त परिचय:
समकालीन साहित्यकारों में सामाजिक विडम्बनाओं को उजागर करती लेखनी के लिए जानी जाने वाली, महू मध्यप्रदेश की लेखिका एवं कवियित्री तृप्ति मिश्रा साहित्य के साथ लोकगायन को भी संरक्षित कर रही हैं। साथ ही 17 से अधिक वर्षों से मिट्टी के गणेश पर निःशुल्क कार्यशालाएं करती आई हैं। अपने कार्यों के लिए इन्होंने अनेक सम्मान प्राप्त किये हैं।