ग़ज़ल 1
हर एक कतरा समंदर हो गया,
दर्द मेरा देखो कलंदर हो गया।
आंसुओं का रिसाव मत रोको,
दरिया-सा दर्द तेरे अंदर हो गया।
तितली-सी उड़ती हैं हवा में यादें,
दिल मेरा वीरान मंदर हो गया।
मैंने शोहरत को जब भी ठुकराया,
गुमनाम-सा मैं देखो सिकंदर हो गया।
धूप की धमकी से देखो ओस सहमी है,
न जाने क्यों आज सूरज समंदर हो गया।
गुरुर जिस पे था वो बेवफा निकला,
हवा का झोंका देखो बवंडर हो गया।
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ग़ज़ल 2
वक्त की परिभाषा क्यों बदलती है,
देह वही है भाषा क्यों बदलती जाती है।
कागज के फूल कभी महका नहीं करते,
तेरे अंदर की निराशा क्यों बदलती जाती है।
आंगन में उदास चूल्हा क्यों धुआं देता है,
मां की रोटी की आशा क्यों बदलती जाती है।
दर्द शब्दों में क्या समेटा जा सकता है,
तेरे मेरे प्यार की परिभाषा क्यों बदल जाती है।
संसद में पड़े बेहोश सच को भी देखो,
चुनाव में नेताओं की भाषा क्यों बदल जाती है।
रिश्तों के अनुबंध टूटकर क्यों बिखर जाते हैं,
स्नेह के स्पर्श की अभिलाषा क्यों बदल जाती है।
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ग़ज़ल 3
खुशियां दामन में कहां समाती हैं,
बारिश मौसम में कहां समाती हैं।
न चाहकर भी तुमसे प्यार करते हैं,
ये आशनाई मन में कहां समाती है।
रिश्तों का सच कुछ सहमा-सा लगता है,
ये रुसवाइयां रिश्तों में कहां समाती हैं।
कुछ नई कलियां खिली हैं बगीचे में,
उड़ती महक कलियों में कहां समाती है।
तितलियां कान में कुछ कह जाती हैं,
ये तितलियां मुट्ठी में कहां समाती हैं।
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ग़ज़ल 4
जब भी देखा हर शै में तुझे देखा,
हर जर्रे में हर वक्त में तुझे देखा।
मुंह मोड़ा जब भी ख़ुशी ने मेरे दर से,
हर जख्म के हर जर्रे में तुझे देखा।
न जाने कितने चेहरों से मुलाकात हुई,
हर पल हर एक चेहरे में तुझे देखा।
चांद को कभी भर नजर नहीं देखा,
जब भी आसमां देखा चांद में तुझे देखा।
तू मेरे करीब कुछ इस कदर रहता है,
जब भी झांका अंदर रूह में तुझे देखा।
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