शिक्षा के बाद
शादी हो कर जाती दूसरे घर में
जहां पर हर चेहरे/रिश्ते नए
मां जब खाना खाती, तब ऐसा लगता
बेटी होती तो काम में हाथ बंटाती ।
कभी ऐसा लगता जैसे बेटी ने
आवाज दी हो।
वार-त्योहारों पर आती उसकी यादें
मां की आंखों में, बहने लग जाते आंसू ।
पड़ोसी,रिश्तेदार पूछते, क्या हो गया
झूठ-मूठ कह देती, कुछ नहीं ।
जिनकी बेटियां होती है
वो ही इस मर्म को समझ सकती
बोल उठती, क्या बेटी की याद आ रही है
रोते हुए "हां" शब्द, निशब्द बन जाते हैं।
रिश्तों की फिल्म ही जीवन में
कुछ इस तरह चलती है
पहला भाग बाबुल का होता
मध्यांतर हो जाता पिया का घर
हकदार बदल जाते हैं
यही तो जीवन का सच है
वार-त्योहारों पर
किसी से बेटी कि शक्ल मिलने पर
उसे मन निहारता रहता
और आंखों से आंसू
यादों के रूप में गिराता रहता ।
इसलिए हर इंसान के दिल में
यादें बसाई है
जो मर्म को समझ कर
इंतजार करवाती हैं और
आंखों से आंसू गिरवाती है
फिर कोई पूछता है कि
क्या हुआ-क्या बिटिया की
याद आ रही है
तब मां कहती - "हां"
यही क्रम हर घर में चलता है
जिनकी बेटियां होती हैंं।