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कथाशिल्पी शरतचंद्र शोध का नहीं बोध का विषय है

कथाशिल्पी शरतचंद्र शोध का नहीं बोध का विषय है - Sharatchandra chatopadhyay
शरतचन्द्र चटोपाध्याय के लेखन की शताब्दी अवसर पर इंदौर में कार्यक्रम 
 
कथा शिल्पी शरत चंद्र के शब्दों का शती उत्सव
 
भारतीय भाषाओं के साहित्य में बांगला साहित्य की अपनी विशिष्ट पहचान है। इस भाषा के अनेक रचनाकारों ने अपनी संवेदनशील लेखनी के दम पर दुनिया के साहित्य पटल पर प्रभुत्व स्थापित किया है। शरत चंद्र चट्‌टोपाध्याय का नाम इस सूची में सर्वोच्च और अजर अमर है।

सूत्रधार और वामा साहित्य मंच की साझा मेज़बानी में कथाशिल्पी शरतचन्द्र चटोपाध्याय के लेखन की शताब्दी के उपलक्ष्य में 'शरत शब्द की शती' शीर्षक से एक बेहद रचनाशील आयोजन सम्पन्न हुआ। इस साहित्यिक समागम में बतौर मुख्य वक्ता श्री दिलीप गुप्ते, डॉक्टर आशुतोष दुबे और श्री संजय पटेल शामिल हुए। 
 
श्री पटेल ने युवा उपन्यासकार प्रभात रंजन की बहुचर्चित पुस्तक कोठागोई से पुस्तक का वह भावपूर्ण अंश पढ़कर सुनाया जिसमें युवा शरत चंद्र के मुजफ्फरनगर आने की चर्चा है। वे यहां सरस्वती नाम की युवती से मिलते हैं जो लेखन सीखने की ललक में शरत बाबू से मिलती है। नौ दिन बाद वह ट्रेन पकड़कर चली जाती है और एक चिट्‌ठी में सोने की निब वाला कलम छोड़ जाती है सोने की निब वाले इसी कलम से शरत बाबू ने परिणीता लिखा। देवदास लिखने के बाद उन्होंने पहली प्रति पर लिखा 'पारो के लिए' और अपनी प्रिय कलम की निब तोड़ दी उसके बाद उस कलम से कुछ नहीं लिखा गया। क्या शरत बाबू की सरस्वती ही देवदास की पारो है इसी रहस्य और जिज्ञासा पर संजय पटेल ने अपना वाचन समाप्त किया। 
 
सुप्रतिष्ठित कवि डॉ. आशुतोष दुबे ने शरत चंद्र के नारी पात्रों की स्मृति पर अपनी बात रखी। उन्होंने कहा कि मात्र शरत चंद्र ही ऐसे साहित्यकार हैं जो अपने रचे स्त्री पात्रों के मन को इतनी गहराई से समझ और पढ़ सके। उतनी ही कुशलता से उसे अभिव्यक्त भी कर सके। अपने आसपास के स्त्री संघर्ष को उन्होंने इतने करीब से देखा और महसूस किया कि हर स्त्री पात्र पूरी जीवंतता से सामने आता है। 'शेष प्रश्न' की कमल और 'देवदास' की पारो को उनके स्त्री पात्रों का प्रतिनिधि रुप भी कह सकते हैं। जो बंगाली पात्र होते हुए भी देशभर की स्त्रियों के मन को स्पर्श कर सकती हैं। शरत बाबू के पात्र संवेदनशील हैं और बंगाल के समाज की बारीकी खोजते हुए नए आयाम के धरातल पर समूचे स्त्री जगत के सवालों की बात करते हैं। 
 
डॉ आशुतोष दुबे ने उन्हें एक क्रांतिकारी लेखक निरूपित किया। डॉ. दुबे ने बताया कि हिन्दी पट्टी के गणमान्य लेखकों की कर्मस्थलियों की जो उपेक्षा हुई है उसके विपरीत बंगाल में शरत बाबू के घर को सजगता से सहेजा और संरक्षित देखना सुखद है। शरत बाबू के नारी पात्र वही हैं जो वास्तव में उनके इर्दगिर्द मौजूद थे। यह अत्यंत महत्वपूर्ण है कि शरत जिस भाषा में अनुदित हुए वे वहां के पाठकों को अपनी ही ज़ुबान के लेखक प्रतीत होते हैं।
 
शरत बाबू की कालजयी रचना देवदास पर बनी विभिन्न फिल्मों के बारे में समीक्षक दिलीप गुप्ते ने जानकारी दी कि देवदास बांगला, तमिल, तेलुगु और असमिया जैसी भारतीय भाषाओं में तो बनी ही, इसके अलावा पाकिस्तान, श्रीलंका और बांगलादेश में भी इस पर फिल्में बनी हैं और आज तक इस उपन्यास को नई दृष्टि से देखने की चेष्टा हो रही है लेकिन मेरी नजर में विमल राय की बनाई देवदास सर्वोत्कृष्ट है क्योंकि इसमें सिनेमेटिक लिबर्टी के नाम पर उपन्यास के मूल रूप से कहीं कोई छेड़खानी नहीं हुई है। 
 
 श्री दिलीप गुप्ते ने रोचकता से देवदास पर ब्यौरा पेश करते हुए कहा कि 20 जुदा जुदा भाषाओं में इस अमर उपन्यास पर फिल्में बनी हैं। पाकिस्तान में दो बार बनी है देवदास। एक बार कुछ गम्भीर और दूसरी बार  संजय लीला भंसाली की देवदास का मख़ौल उड़ाती हुई।
 
अंत में शरत बाबू के उपन्यास पर बनी शबाना आजमी और गिरीश कर्नाड अभिनीत फिल्म स्वामी दिखाई गई। सूत्रधार की ओर से सत्यनारायण व्यास और वामा साहित्य मंच की ओर से पद्मा राजेन्द्र ने अतिथि वक्ताओं का स्वागत किया। शरत प्रसंग का सुरुचिपूर्ण संचालन स्मृति आदित्य ने किया। 
 
एक महान कथाकार पर डॉ. आशुतोष दुबे के वक्तव्य की यह पंक्ति श्रोताओं के लिए शरत संध्या का खास हासिल थी कि शरत बाबू का लिखा शोध का नहीं बोध का विषय है।