प्रभु जोशी की कहानी 'उखड़ता हुआ बरगद' का हुआ पाठ
इन्दौर। जनवादी लेखक संघ, इन्दौर के मासिक रचना पाठ का 100वां कार्यक्रम शासकीय श्री अहिल्या केन्द्रीय पुस्तकालय में किया गया। इसमें प्रभु जोशी को याद किया गया और उनकी एक कहानी 'उखड़ता हुआ बरगद' का पाठ उनके पुत्र पुनर्वसु जोशी ने किया। कहानी पाठ से पहले पुनर्वसु ने रेखांकित किया कि उनकी अधिकतर कहानियों में गाँव से शहर में विस्थापित हुए पात्र होते हैं और जब एक ग्रामीण शहर में आता है तो उसकी समझ में भूचाल की तरह एक परिवर्तन आता है। 1973 में लिखी गई 'उखड़ता हुआ बरगद' एक पिता की कहानी है जो शहर में अपने पुत्र के पास आते हैं। एक ग्रामीण जब शहर में आता है तो किस तरह से असमंजस में पड़ता है और कैसे उसे अपने अस्तित्त्व पर खतरा नज़र आता है, यह इस कहानी में बड़ी रोचकता से बुना गया है।
कहानी पाठ के बाद चर्चा करते हुए नेहा लिम्बोदिया ने कहा कि यह एक रोचक कहानी है। देवेन्द्र रिणवा ने कहा कि इस कहानी में भाषा का अपना सौन्दर्य है जो ग्रामीण परिवेश से शहर में आए व्यक्ति का बखूबी चित्र खींचता है। युवा कथाकार आनन्द ने कहानी के अंतिम वाक्य पर चर्चा करते हुए कहा कि एक प्रभु दा रेखांकित कर देते हैं कि यह संसार एक बरगद है जो ऊपर से जितना विशाल है, अपने भीतर भी उतनी ही विविधताएँ समेटे हुए है। कहानी की भाषा में आंचलिकता नहीं होती तो ग्रामीण परिवेश के व्यक्ति का चित्रण भी उतनी ख़ूबसूरती से नहीं होता।
मधु कान्त ने कहानी को सार्थक और बांधे रखने वाली बताते हुए कहा कि कहानी में कई ऐसे वाक्य आते हैं जो सूत्र वाक्य की तरह गहरे अर्थ में जाते हैं जैसे– गोबर के एक दाने से हज़ार दाने बाहर आते हैं, यह बात खेती और किसानी को जानने वाला ग्रामीण परिवेश में रहा आदमी ही समझ सकता है।
रजनी रमण शर्मा ने कहा कि इस विषय वस्तु के साथ अपनी भाषा, वाक्य विन्यास और आंचलिकता में यह कहानी समाज में खत्म होती जा रही है मानवीय संवेदनाओं को सशक्त रूप से बयान करती है और पाठक को एक टीस देकर जाती है। लघुकथाकार योगेन्द्र नाथ शुक्ल में कहा कि इस कहानी में तत्कालीन समाज के बुजुर्गों का दर्द बखूबी उभर कर आता है, इसके साथ ही इस कहानी में एक भारतीय ब्राह्मण का अंतर-द्वन्द भी बेहद सशक्त रूप से उभर कर आता है।
उन्होंने कहा कि इस कहानी में ग्रामीण परिवेश के एक व्यक्ति का चित्रण है जबकि आज के साहित्य यहाँ तक कि फिल्मों में भी ग्रामीण समाज और उसका संघर्ष ही सिरे से ग़ायब है। प्रदीप कान्त ने कहा कि इस कहानी का आस्वाद प्रभु दा की अन्य कहानियों से बिलकुल अलग है। वे परिवेश और पात्र के अनुसार कहानी की भाषा का चयन करते हैं और ग्रामीण परिवेश से शहर में आए व्यक्ति के असमंजस को सशक्त तरीके से अभिव्यक्त कर जाते हैं।
उन्होंने कहा कि पुनर्वसु का पाठ भी प्रभु दा की याद दिलाता है। कहानी पाठ को भी श्रोताओं द्वारा बेहद सराहा गया। अंत में वरिष्ठ कवि सरोज कुमार जी ने कहा कि प्रभु जोशी की प्रयोगधर्मिता पर भी चर्चा की और कहा कि उनकी कहानियाँ किसी छोटे उपन्यास की भाँती बेहद लम्बी होती है लेकिन अपनी विषय वस्तु में बेहद सशक्त होती हैं। कार्यक्रम का संचालन किया रजनी रमण शर्मा ने और आभार माना देवेन्द्र रिणवा ने।