पंकज सोनी
हाल ही हिंदी नाटकों की एक क़िताब पढ़ी 'सुबह अब होती है.. तथा अन्य नाटक'। शिवना प्रकाशन की यह किताब सुप्रसिद्ध लेखक पंकज सुबीर की चार कहानियों का नाट्य रूपांतरण है। नाट्य रूपांतरण किया है सुप्रसिद्ध रंगकर्मी और लेखक नीरज गोस्वामी ने। इन चारों कहानियों को मैं पहले ही पढ़ चुका था। और चारों ही मेरी पसंदीदा कहानियां हैं।
किसी कहानी को मैं उसकी समग्रता में पसंद करता हूं। मसलन उसमें निहित सामाजिक सोद्देश्यता, रोचकता, कहानीपन और चूंकि नाटकों की दुनिया से जुड़ा हूं तो उसमें नाटकीय तत्वों का होना बेहद जरूरी है, जो कि पंकज सुबीर की लगभग हर कहानी में होते ही हैं। चारों ही कहानियां मन को झकझोर देती हैं। जिन पर लंबी चर्चाएं की जा सकती हैं। चूंकि मैं समीक्षक नहीं हूं। सिर्फ एक रसिक पाठक हूं। पर बतौर रंगकर्मी उसे एक अलग नजरिये से जरूर देखता हूं। मेरा मानना है कि एक सजग रंगकर्मी को पढ़ने की आदत एक साहित्यकार से भी ज्यादा होनी चाहिए। क्योंकि यही उसकी बौद्धिक ख़ुराख है। एक बिन पढ़ा अभिनेता, रंगकर्मी कम रंगकर्मचारी ज्यादा लगता है।
हिंदी नाटकों में नई और अच्छी पटकथा का सर्वथा अभाव देखा गया है। उसका कारण भी यही है कि नाट्य आलेख अब कम ही लिखे जा रहे हैं। एक अच्छी पटकथा वही है। जिसका मंचन संभव हो। और पटकथा लिख पाना तभी संभव है जब पटकथा लेखक के रंगकर्मियों से ताल्लुक़ात हों या लेखक खुद ही रंगकर्मी हो। हिंदी साहित्य के कथा सागर में अथाह मोती हैं। बस डुबकी लगाने की ही जरूरत है। नीरज गोस्वामी अखंड पाठक हैं। उन्होंने कथा सागर में डुबकी लगाई और पंकज सुबीर की कहानियों के चार मोती चुन लिए।
पटकथा लेखन बहुत ही श्रम साध्य काम है। यह इतना कठिन काम है कि आपको रस से लबालब भरे एक प्याले को हाथों में थामे एक नट की तरह रस्सी पर चलना है और मजाल है रस की एक बूंद भी छलक जाए। यह बहुत बड़ी चुनोती है कि आपको किसी कहानी का नया शरीर गढ़ना है लेकिन उसकी आत्मा को मारे बगैर। दरअसल पटकथा लेखक मूल कहानी की व्याख्या ही कर रहा होता है। नाटककार का बौद्धिक स्तर एक विचारक की तरह ही होना चाहिए। क्योंकि विचारों के विस्तार का ही दूसरा नाम पटकथा है। रचना संसार मे कोई पुरुष नहीं होता वहां सिर्फ मांएं ही होती है। क्योंकि सृजन भी जन्म देने की तरह है।
विचार भी भ्रूण की तरह विकसित होते हैं। उस दौरान सृजनकार भी उतनी ही प्रसव वेदना से गुजरता है जितनी कि कोई मां गुजरती है। यदि मूल लेखक उस रचना की मां है तो उस रचना के नाटककार का दर्जा भी सेरोगेट मदर से कम नहीं है। क्योंकि वो किसी और के बच्चे को अपनी कोख में पाले उसे अपने रक्त मज्जा से सींच रहा होता है। वो भी प्रसव वेदना से गुजरता है। हो सकता है, उस संतान में उसके जीन्स का भी हिस्सा आ जाता हो। नाट्यलेखन एक स्वतंत्र विधा है। किसी कहानी का नाट्य रूपांतरण एक प्रकार का transcreation है। इसमें एक विधा दूसरी विधा का रूप ले रही होती है। इसलिए नाट्य रूपांतरण का मूल लेख से कम योगदान नहीं होता है। कई बार वो मूल रचना से भी महान रचना हो जाती है। भीष्म साहनी के उपन्यास 'तमस' पर बनी गोविंद निहलानी की कृति 'तमस' इसका बेहतरीन उदाहरण है। पंकज सुबीर की इन चारों कहानियों के लिए भी यही कहा जा सकता है कि उनकी कहानियां तो श्रेष्ठ हैं ही उनके नाट्य रूपांतरण भी श्रेष्ठ हैं। और इसका श्रेय नाटककार नीरज गोस्वामी को जाता है। चारों नाटकों पर विस्तार से बात करना जरा मुश्किल है। इसलिये संक्षिप्त में ही लिख रहा हूं। पहला नाटक है , ' सुबह अब होती है..., इसी नाम से पंकज सुबीर की रहस्य से भरपूर कहानी है। हंस ने रहस्य विशेषांक निकाला था जिसमें यह कहानी पुरुस्कृत हुई है। हिंदी साहित्य में रहस्य कथाओं को दोयम दर्जे का माना जाता रहा है। जिसे बाज लोग छुपकर पढ़ते हैं। लेकिन यही साहित्य जब अंग्रेजी में हो तो वो ड्रॉइंग रूम में शान से रखा जाता है। वो स्टेटस सिंबल बन जाता है। अपराध कथाओं को हम नजरअंदाज नहीं कर सकते हैं क्योंकि अपराध समाज का हिस्सा हैं। जब तक समाज मे असमानता है।
निर्धनता है। जात-पात या अन्य किस्म का भेदभाव है। अपराध होते रहेंगे। 'सुबह अब होती है... है तो रहस्य कथा पर यह अपराध के कारण और उसके मनिविज्ञान पर बात करती है। यह अंतहीन घुटन की कहानी है। कुछ लोग अति से ज्यादा परफेक्टनिस्ट होते हैं। उन्हें हर चीज अनुशासित और नियमपूर्वक चाहिए। उनकी यही आदत उन्हें सनकी और ख़बती बना देती है। वो यह भूल जाते हैं कि इस दुनिया मे कोई भी चीज परफेक्ट नहीं होती। कुदरत उनके बनाए नियमों से नहीं बल्कि अपने नियमों से चलती है। उसके अपने अनुशासन हैं। जब वो अपने अनुशासन दूसरों पर थोप देते हैं। उन्हें अहसास ही नहीं होता कि वो उनके जीवन को कितना कष्टप्रद बना देते हैं। ऐसे नमूने हर दो चार परिवार में मिल जाते हैं। उन्हें हर चीज यथास्थान चाहिए। वो इस हद तक यथास्थितिवादी होते हैं कि उनका बस चले तो वे मौसमों को भी बदलने से रोक दें। जबकि परिवर्तन संसार का नियम है।
संसार मे शाश्वत यदि कुछ है तो वो है खुद परिवर्तन। यह कहानी एक सस्पेंस के साथ आगे बढ़ती है। थाने में एक गुमनाम चिट्ठी आती है जिसमें लिखा होता है कि फलां कॉलोनी में एक बुजुर्ग की मौत हुई है वो स्वभाविक मौत नहीं है बल्कि हत्या है। बस उसी तफ़्तीश में कहानी परत दर परत खुलती है। जितना अच्छा शिल्प पंकज सुबीर ने गढ़ा है उससे एक इंच भी कम नहीं है नाटक का शिल्प। बल्कि नाटककार ने उसको शरीर और आवाज देकर उसमें प्राण ही फूंके हैं। दूसरा नाटक है, 'औरतों की दुनिया ' यह दुनिया यदि औरतों ने बनाई होती शायद ज्यादा बेहतर होती। शिकार युग से ही मर्दों ने औरतों की खूबियों को पहचान लिया था। उन्हें अपनी सत्ता छीने जाने का डर था। उसने उस पर चौका चूल्हा और बच्चों को पालने की जिम्मेदारी से बांध दिया। यहां तक कि उस पर अपना सौंदर्यबोध भी थोप दिया। वो अपने श्रृंगार में कुछ यूं उलझी की उसे पता ही नहीं चला कि वो अपनी चोटी से ही बंध कर रह गई।
हज़ारों सालों से औरतों से मर्दों ने सत्ता कुछ यूं छीनी की दुनिया मे उनके लिए कोई जगह ही छोड़ी। मजबूरन औरतों की अपनी अलग दुनिया है। उस दुनिया मे प्रेम है, समर्पण है, ममता है। वहां घृणा नहीं है,नफरत नहीं है,छल कपट नहीं है,वासना नहीं है। वे किसी का अपमान नहीं करती हैं। किसी का हक नहीं छीनती है। उनमें दुःख बर्दाश्त करने की अद्भुत छमता है। पुरुषों ने केवल छीना है। जीता है। तमाम युद्ध औरत की छाती पर ही लड़े जाते हैं। सुहाग भी औरत का ही मिटता है। गोद भी औरत की ही उजड़ती है। किस्सा कुछ यूं है कि एक शहरी नौजवान को लगता है कि गाँव में रहने वाले उसके सगे चाचा ने चालाकी से विरसे में मिली पैतृक संपत्ति में उनके हिस्से की जमीन को हथिया लिया है। सो वो मामले को कचहरी तक ले गया। परिवार के सभी लोग उसके इस कदम के ख़िलाफ़ हैं,ख़ासकर औरतें। आगे कहानी कुछ यूं मोड़ लेती है। जिनके ख़िलाफ़ अदालत में केस लगाया है। उन्हीं के घर पर रह रहे हैं। उन्हीं के घर का बना हुआ खा रहे हैं। खाना खाते हुए प्यार मनुहार, शिक़वे शिकायतें चलती हैं। नौजवान को लगने लगता है कि घर के मामले को कचहरी तक ले। जाकर उससे वाकई गलती हो गयी। चाची सिर्फ चाची ही नहीं होती वो दोस्त और मां दोनों ही होती है। चाचा एक ऐसा पिता होता है जिससे दोस्तों जैसा नाता होता है। जो बातें पिता से भी नहीं बोली जा सकती वो चाचा से शेयर की जा सकती हैं।
झूठा अहम और लालच यदि न हो तो यह रिश्ता बहुत ही पवित्र होता है। नाटक के क्लाइमेक्स में एक सीन है। नौजवान पश्चाताप के आंसू बहा रहा है। उसकी चाची भावुक होकर कहती है " अब चुप कर मुन्ना बस कर। जो हुआ सो हुआ। पहले ही घर आ जाता बेटा तो इत्ते साल तो दुःख में न बीतते। अच्छा हुआ जो आज तूने औरतों की दुनिया मे झांकना सीख लिया। काश, अगर सब हमारी इस दुनिया की झलक पा लें तो दुनिया से नफऱत जड़ से ख़तम हो जाए। " तीसरा नाटक है 'कसाब.गांधी@यरवदा डॉट इन ' यह कहानी पंकज सुबीर की सबसे ज़्यादा चर्चित कहानी है। पहली बार जब इसे पढ़ी थी तब से ही यह जेहन में घूम रही थी। इसको लिखने के लिये लोहे का ज़िगर चाहिए।
ज्ञात हो कि अज़मल क़साब ने जेल में गांधी की जीवनी पढ़ी थी। और पूना की यरवदा जेल की जिस बैरक में वो कैद था वहां कभी मोहनदास करमचंद गांधी भी कैद थे। कथाकार का यह जीनियस है कि वो कल्पना करता है कि फांसी की आख़िरी रात क़साब को आभास होता है कि उसके साथ बैरक में कोई और भी है। वो और कोई नहीं बल्कि खुद महात्मा गांधी हैं। कहानी में अज़मल क़साब और गांधी का लंबा वार्तालाप है। कहानी का जिस्ट यह है कि आतंकवादी पेड़ पर नहीं उगते हैं। वो भी व्यवस्था की ही उपज होते हैं।
इस दुनिया मे अमीर और गरीब की लंबी खाई का नहीं बल्कि जमीन और आकाश का अंतर है। जहाँ एक ओर एक अमीर आदमी अपनी पत्नी को तोहफे में पांच हज़ार करोड़ का मकान बनाकर देता है। वहीं दूसरी ओर इतनी ग़रीबी है कि लोग कूड़े के ढेर से खाना बटोरते हैं। जहाँ मुट्ठी भर लोग जन्नत की जिंदगी बसर कर रहे हैं वहीं लाखों लोग जहन्नुम के कीड़ों की तरह बिलबिला रहे हैं। आज़ादी के इतने साल बाद भी देश की जनता आर्थिक गुलाम है। आज भी लाखों लोग शिक्षा,स्वास्थ और रोज़गार जैसी मौलिक जरूरतों से महरूम है। दूसरा यह कि आज भी बार बार गांधी को सवालों के कटघरे में खड़ा कर दिया जाता है। यहां भी गांधी सवालों के कटघरे में खड़े हैं और क़साब उनसे सवाल पूछ रहा है।
पंकज सुबीर की कहानी जब नाटक में तब्दील होती है तब नीरज गोस्वामी का जीनियस टच उसको और महान बना देता है। नाटक में गांधी की पहचान कैदी नंबर 189 और क़साब की पहचान कैदी नंबर 7096 है। कहानी में दोनों के बीच सिर्फ संवाद है पर नीरज अपने नाटक में उसे और आगे ले जाते हैं। यहां कथानक में क़साब का परिवार भी आ जाता है। और बताया गया है कि कैसे गरीबी का फ़ायदा उठाकर घाघ राजनीतिज्ञ गरीबों के बच्चों से आतंकवाद जैसा घिनोने काम करवाते हैं। इसे उन्होंने नाटक में पिरोया है। नाटक में अज़मल क़साब की मां का एक संवाद है। "क्यों है इतना खून ख़राबा क्यों? मैं कहती हूं अगर मांओं के हाथ मे यह दुनिया सौंप दी जाये, तो ये सारा खून-ख़राब ये सारी हिंसा ही रुक जाए। मगर आप लोग ऐसा होने नहीं देंगे क्योंकि मांएं इस दुनिया को बदल देंगी। वो बुहार देंगी दुनिया के नक्शे पर खींची गई सारी लकीरों को, इधर से उधर तक सब एक सा कर देंगी। झाड़ू लेकर साफ कर देंगी सारी बारूदों को और फेंक आएंगी उसे कूड़ेदान में। वो जानती हैं कि बारूद हमेशा किसी मां की कोख को ही झुलसाती है।
वो इस दुनिया को सचमुच रहने के काबिल बना देंगी,यदि आप ये दुनियां उन्हें सौंप दें। "पूरा नाटक इस तरह से गढ़ा गया है कि दर्शक या पाठक खुद को पात्र की तरह महसूस करने लगते हैं। आने वाले समय मे लोग नीरज गोस्वामी को इस नाटक के रचयिता के रूप में जानेंगें। चौथी और अंतिम कहानी है 'चौथमल मास्साब और पूस की रात' आप लोगों ने प्रेमचंद की पूस की रात तो पढ़ी ही होगी। यह पंकज सुबीर की लिखी पूस की रात है। ये एक शरारत भरी कहानी है। इंसान को जीने के लिए सिर्फ रोटी कपड़ा और मकान की ही नहीं और भी वगैरह की जरूरत होती है। यह वगैरह वगैरह आदिम भूख का नाम है। जिसे हम ठरक कहते हैं। जो होती तो हर किसी में है। पर स्वीकारता कोई नही है। इस से तो देवता, दानव यक्ष और गंधर्व भी नहीं बच पाए तो बेचारे चौथमल मास्साब तो फिर एक इंसान ही हैं। बेचारे चौथमल मास्साब घर से सौ किमी दूर एक गांव में मास्टर हैं। पूरे गांव में वही एक पढ़े लिखे मनुष्य हैं। गांव में बड़ी ठाठ है उनकी। ख़ूब इज्ज़त है। बस कमी है तो उस चीज की जो इस आदिम भूख को शांत कर सकती है।
सरसरी तौर पर देखो तो यह एक हल्की कहानी जान पड़ती है पर इसको गम्भीरतापूर्वक सोचो तो बड़ी असाधारण कहानी है। मजाक मज़ाक में लेखक पाठकों को एक गम्भीर मैसेज दे देता है कि कैसे रोज़ी रोटी की तलाश में अपनी पत्नी से दूर रह रहे पुरुष सेक्सुअल फ्रस्टेशन का शिकार हो जाते हैं। और दूसरा मैसेज यह है कि चौथमल मास्साब हर मर्द के अंदर होते हैं। वरना क्यों पाठक अंत तक इस कहानी को पढ़ रहे होते हैं कि आगे क्या हुआ होगा। यही हाल नाटक पढ़ते या देखते समय होता है। दर्शक अंत तक यह जानने के लिये उत्सुक रहते हैं कि मास्साब चौथमल की पूस की रात कैसे बीती। क्लाइमैक्स में सूत्रधार दर्शकों से कहता है कि हम सब मे कहीं न कहीं चौथमल मास्साब छुपे बैठे हैं जो वक्त और मौका मिलते ही बाहर आ ही जाते हैं। " इस नाटक को पढ़कर कहानीकार और नाटककार दोनों की रेंज पता चलती है की वो यदि गम्भीर कहानियाँ लिख सकते हैं तो हल्के फुल्के अंदाज में लोगों को हंसा भी सकते हैं। नाटक के संवाद बहुत ही चुटीले हैं। पढ़ते वक्त कई बार हंसी फूट पड़ती है। कुल मिलाकर जो रंगकर्मी नई स्क्रिप्ट की तलाश में रहते हैं उनके लिये यह किताब एक अच्छा उपहार है।
पुस्तक - सुबह अब होती है... तथा अन्य नाटक
कहानीकार- पंकज सुबीर, नाट्य रूपांतरण- नीरज गोस्वामी
प्रकाशन: शिवना प्रकाशन
मूल्य- 150 रुपए,
पृष्ठ - 136