योग के दूसरे अंग नियम का दूसरा उपांग है- संतोष। संतोष से शांति की प्राप्ति होती है। शांति से मन और शरीर निरोगी बनते हैं। काया का निरोगी और मन का मनमौजी होना जरूरी है तभी संसार या संन्यास को साधा जा सकता है।
सांसारिक संतोष : संसार में सुखी और निरोगी जीवन जीना है तो कम से कम, लेकिन जरूरी आवश्यकताओं पर ध्यान दें- रोटी, कपड़ा और मकान। मेहनत और लगन द्वारा प्राप्त धन-सम्पत्ति से अधिक की लालसा न करना, न्यूनाधिक की प्राप्ति पर शोक या हर्ष न करना ही संतोष है। संतोषी सदा सुखी।
आध्यात्मिक संतोष : साधना या सिद्धि में वही व्यक्ति प्रगति कर पाता है जिसमें धैर्य और संतोष है। व्यग्र व्यक्ति 'ध्यान' द्वारा थोड़ा बहुत प्राप्त हुआ धन भी खो देता है। स्यवं के द्वारा अर्जित ध्यान, भजन, भक्त या साधना में जो संतोष मिलता है वह किसी दूसरे के द्वारा बताए गए मार्ग से नहीं। अपना मार्ग स्वयं खोजो। तंत्र, मंत्र, यंत्र, ज्योतिष या बाहरी उपक्रम से साधना या संसार के हित नहीं सधते बल्कि ये व्यक्ति को भटकाते हैं। शक्ति या शांति स्वयं के भीतर ही विराजमान है।
असंतोष का नुकसान : अत्यधिक असंतोष से मन में बेचैनी और विकार उत्पन्न होता है, जिससे शरीर और मन रोगग्रस्त हो जाता है। असंतोष की भावना लगातार रहने से व्यक्ति किसी गंभीर रोग का शिकार भी हो सकता है। असंतोष से अनिंद्रा रोग उत्पन्न होता है तथा ब्लड प्रेशर की शिकायत भी हो सकती है। असंतोष से ईर्ष्या, द्वैष, क्रोध, द्वंद्व आदि मनोरोग भी उत्पन्न होते हैं।