प्राचीन समय में बिना बिजली से कैसे चलते थे फव्वारे?
- अथर्व पंवार
आज यह बात हमें आश्चर्य से भर देती है कि प्राचीन समय में जब बिजली नहीं होती थी तब भी फव्वारे चलाए जाते थे। यह सब किसी भी जादू से नहीं होता था,इन सभी के पीछे विज्ञान था। आर्कमेडिक के सिद्धांत, दबाव के बल के उपयोग और गुरुत्वाकर्षण बल के उपयोग से तकनीक का प्रयोग कर के फव्वारों को चलाया जाता था। सर्वप्रथम बिना बिजली के फव्वारे का सन्दर्भ प्रथम शताब्दी में मिलता है। इसका अविष्कार अलेक्ज़ेनड्रिया के हेरॉन ने किया था। वह एक अविष्कारक, गणितज्ञ और भौतिकशास्त्री के रूप में जाने जाते थे। उन्होंने गुरुत्वाकर्षण बल और हवा के दबाव के प्रयोग से इसका क्रियान्वयन किया था।
इसमें एक बड़े कुंड में पानी भर दिया जाता था जिसे एक पतली नली के माध्यम से नीचे बने एक टैंक में भेजा जाता था। पतली और लम्बी नली के कारन यह 9.8 मीटर प्रति सेकंड की गति से नीचे गिरता था। उस टैंक में पहले से जमा की गयी हवा अर्कमेडिक के सिद्धांत के कारन एक दूसरी नाली के माध्यम से दूसरे टैंक में जाती थी। यह टैंक कुंड और प्रथम टैंक के मध्य होता था। इस टैंक में हवा पहले से पानी एकत्रित होता था। नली के द्वारा आ रही हवा से इस टैंक का दबाव बढ़ता जाता था और हवा के दबाव् से पानी को धक्का लगता था और वह एक अलग नली से ऊपर की ओर उठ जाता था और एक फव्वारे के रूप में चलने लगता था। चूंकि यह फव्वारा उसी कुंड में रहता था तो यह प्रक्रिया निरन्तर चलती रहती थी।
बिना बिजली के फव्वारे का प्रमाण भारत में भी मिलता है। आगरा स्थित शाहजहां के महल में एक अंगूरी बाग़ है। यहां भी फव्वारे लगे हुए हैं। यहां बड़े बड़े टैंकों में पानी का एकत्रीकरण किया जाता था और दबाव के सिद्धांत से फव्वारे चलाए जाते थे। गाइड के अनुसार पानी को इकठ्ठा करके एक वेग से छोड़ा जाता था। जिससे दबाव बनता था और फव्वारे चलने लगते थे।