प्यार, दोस्ती और शांति के दूत हैं- बच्चे
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नूपुर दीक्षित दुनिया के अलग-अलग देशों में लोगों के रहन-सहन, बातचीत और तौर-तरीकों मे कई अंतर होते हैं। इसलिए एक देश के लोग खुद को दूसरे देश के लोगों से अलग समझते हैं। लेकिन दुनियाभर में हर देश के बच्चे एक जैसे होते हैं- मासूम, साफदिल, भोले-भाले, प्यारे और जिज्ञासु। बच्चे बहुत जल्दी दोस्ती कर लेते हैं और सबको अपना बना लेते हैं। सोचिए अगर बच्चे कभी बड़े ही ना हो, तो दुनिया में युद्ध और अशांति की स्थिति ही ना बने। यह तो संभव नहीं है कि बच्चे बडे़ ना हो। पर बच्चों की मासूमयित और उनके निश्छल मन में यदि बचपन से ही दोस्ती के बीज डाले गए हो, तो जब ये बच्चे बड़े हो जाएँगे, तब भी यह दोस्ती उनके मन में जिंदा रहेगी। अमेरिका के भूतपूर्व राष्ट्रपति ड्वेट डी एजनहॉवर के मन में एक ऐसा ही ख्याल आया। उन्होंने अपने देश के बच्चों को दोस्ती के संदेश के साथ हर साल अन्य देशों में भेजने की योजना बनाई। इस बात पर विचार-विमर्श करने के लिए उन्होंने सन् 1956 में व्हाइट हाउस में एक बैठक बुलाई। इस बैठक में यह फैसला लिया गया कि हर साल अमेरिका के बच्चे अन्य देशों में राष्ट्रपति के दूत के रूप में यात्रा करेंगे। इन बच्चों को 'स्टुडेंट एम्बेसेडर' का नाम दिया गया।
सन् 1963 से अमेरिका के बच्चों ने राष्ट्रपति के दूत के रूप में विदेश यात्रा करना प्रारंभ की और यह सिलसिला आज तक जारी है। हाल ही में एक 12 वर्षीय बालक चिराग कुलकर्णी से हमारी मुलाकात हुई, जो अमेरिका के राष्ट्रपति का शांति दूत बनकर एथेंस, रोम और वेटिकन सिटी की यात्रा पर गया था। चिराग मूलत: भारतीय है, पर फिलहाल वो अमेरिका में रहता है। चिराग ने हमें बताया कि उसका नाम इस कार्यक्रम में भाग लेने के लिए उसके स्कूल की ओर से प्रस्तावित किया गया था। उसके साथ 40 बच्चे और थे।
इन बच्चों ने यात्रा पर जाने की तैयारी एक साल पहले से ही शुरू कर दी थी। इस एक साल में इन्हें उन देशों के बारें में बहुत जानकारियाँ हासिल करने के लिए कहा गया, जहाँ वे जाने वाले थे। उन देशों का इतिहास, वहाँ की संस्कृति, भौगोलिक परिस्थितियों के बारे में इन बच्चों को बहुत सा अध्ययन करना पड़ा। सालभर तक नियमित अंतराल पर मीटिंग्स होती रही। आखिरकार वह समय आ गया जब इन बच्चों का दल रवाना हुआ। इन बच्चों को वहाँ केवल घुमने- फिरने और मौज- मस्ती करने के लिए ही नहीं भेजा गया था। इन नन्हें शांतिदूतों से यह अपेक्षा थी कि वे वहाँ से कुछ सीखकर और विदेशी धरती पर कुछ लोगों के मन में दोस्ती के बीज बोकर आए।हर जगह है मेहमान का सम्मानचिराग ने बताया कि एथेंस में जिस परिवार के साथ वह रहा, उन लोगों ने उसकी खूब आवभगत की। हालाँकि मेहमाननवाजी का उनका अपना तरीका था, पर एक बात जो स्पष्टतया समझ आ रही थी, कि उन लोगों को हमारा वहाँ ठहरना बहुत अच्छा लग रहा था। जिस परिवार के साथ मैं ठहरा था, उस घर में छह बच्चे थे। उनके माता-पिता को मिलाकर घर में आठ सदस्य थे। इतना बड़ा परिवार मैंने अमेरिका में कभी नहीं देखा था। अपनी इस यात्रा के दौरान मुझे एक भी शाकाहारी व्यक्ति नहीं मिला। वहाँ पर डाइनिंग टेबल पर कोहनियाँ टिकाकर बैठना अशिष्ट व्यवहार समझा जाता है। हम सभी को इस तरह ना बैठने के निर्देश दिए गए थे। वहाँ के बाजार मुझे बड़े अजीब लगे, दुकानदार जोर-जोर से आवाज लगाकर ग्राहकों को अपनी दुकान में बुलाते हैं और बहुत मोल-भाव करते हैं। ऐसे बाजार अमेरिका में नहीं है। कुल मिलाकर यह हम सब के लिए एक यादगार अनुभव था। मैं चाहता हूँ कि मुझे ऐसा एक और मौका मिले। हम बच्चों को जो लोग 'छोटा बच्चा' कहकर यूँ ही टाल देते है, उन्हें क्या पता कि जो काम बड़े नहीं कर पाते उसे हम बच्चे करते है।