हम तो हार गए....
- अतुल कनक
लो जी, हम ऑस्ट्रेलिया गए और हार गए। हारे भी तो ऐसी शान से कि खुद जीत इसे देखकर शरमाने लगे। इसे कहते हैं 'कमिटमेंट।' हारे तो फिर जीतने की कोशिश ही नहीं की। जीत जाते तो भी क्या कर लेते? विज्ञापन ही तो करने होते हैं न हमारे खिलाड़ियों को या फिर थोड़ी मौज-मस्ती करनी होती! तो इधर नहीं की मौज-मस्ती, उधर ही कर ली। क्या कहा? लोगों को बुरा लग रहा है? लोगों का क्या है? उन्हें तो बुरा मानने की जैसे आदत ही पड़ गई है। लोकतंत्र में जिन्हें बुरा मानने से न नौकरशाही रोक सकी है, न सत्ताशाही, उन्हें बेचारे क्रिकेट खिलाड़ी कैसे रोक लेंगे? जो खिलाड़ी अपना विकेट गिरने से नहीं रोक सके, आप यदि उनसे यह उम्मीद करें कि वे लोगों को बुरा मानने से रोक लेंगे तो यह रेगिस्तान में साफ पानी तलाशने की कवायद जैसा है। क्या हो जाता यदि हमारे खिलाड़ी दो-चार मैचों में कंगारुओं की टीम को हरा देते तो? क्या इससे देश के सामने पसरा पड़ा भ्रष्टाचार का मुद्दा समाप्त हो जाता? क्या लाखों बेरोजगारों को नौकरी मिल जाती? क्या पुलिस वाले बेगुनाहों को सताना बंद कर देते? क्या नक्सली आतंक समाप्त हो जाता? क्या धर्म के नाम पर पाखंड का सिलसिला समाप्त हो जाता? क्या सरकारी सौदों में रिश्वतखोरी बंद हो जाती? क्या बिना दहेज की बहुओं को प्रताड़ित किया जाना समाप्त हो जाता? क्या मनचलों के झुंड किसी अबला को अकेला देखकर छेड़खानी बंद कर देते?
आखिर क्या हो जाता यदि हमारे क्रिकेट खिलाड़ी ऑस्ट्रेलिया में टेस्ट क्रिकेट की श्रृंखला जीत जाते तो। अनाप-शनाप फीस लेकर मामूली रन बनाने वाले हमारे खिलाड़ियों को यह दिव्य ज्ञान हो चुका है कि देश के सामने क्रिकेट के मुकाबले जीतने से भी कहीं अधिक जरूरी मुद्दे हैं। फिर नाहक वे हार को गंभीरता से क्यों लें?फिर हर हाल में खिलाड़ी जीत कर ही आएं ऐसा तो किसी आचार-संहिता में भी नहीं लिखा है। मन किया तो जीत गए, मन किया तो हार गए। बुजुर्ग तो पहले ही कह गए हैं कि मन के हारे हार है, मन के जीते जीत। पिछली बार जीते थे तो सरकार ने मकान, गाड़ी, नकद पैसा - सब कुछ लुटा दिया था। जब सब कुछ मिल ही गया है तो फिर किसके लिए जीतें? जीत जाते तो फिर सरकारें, संगठन और जन समूह वही पैसों की बरसात करते। यह पैसा आम आदमी की मेहनत से कमाए हुए पैसे पर दिए गए टैक्स से इकट्ठा होता है। हमारे खिलाड़ी नहीं चाहते कि आम आदमी के खून-पसीने की कमाई से इकट्ठे हुए टैक्स की राशि का दुरुपयोग हो। फिर जब सारे खिलाड़ी पैवेलियन में बैठे आराम फरमा रहे हों तब कोई भी खिलाड़ी पिच पर विकेटों के बीच दौड़-दौड़कर रन क्यों बनाए? जीत का सारा श्रेय एक ही खिलाड़ी ले ले, हमारे संस्कारों में ऐसा संभव नहीं है। एक खिलाड़ी आउट होकर पैवेलियन चला जाता है तो उसके खराब प्रदर्शन का दुख हमारे बाकी खिलाड़ियों को इतना सताता है कि वे भी तुरत-फुरत आउट होकर उसके पास जा बैठते हैं। यह समझाने के लिए कि देख, दुख मत कर। तू ही नहीं, हम भी अपना मैदान छोड़ आए हैं।सौ बातों की एक बात। लो जी हम तो हार गए, क्योंकि हम दुनिया को यह दिखाना चाहते थे कि देख लो, हमारी जीतों से यह भ्रम मत पाल लेना कि हम हारना ही भूल गए हैं।