ॐ नमो वासुदेवाय नम:।
dev uthani ekadashi: धार्मिक ग्रंथों में दीपावली के बाद आने वाली देवउठनी एकादशी बहुत महत्व की मानी गई है। इस बार मंगलवार, 12 नवंबर 2024 को कार्तिक शुक्ल ग्यारस तिथि पर देवउठनी या देवप्रबोधिनी एकादशी मनाई जा रही है। इस दिन तुलसी और शालिग्राम जी का विवाह भी संपन्न किया जाता है। आइए यहां आपके लिए विशेष तौर पर प्रस्तुत हैं देवउठनी एकादशी की व्रत की 3 पौराणिक कथा-कहानियां....
Highlights
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तुलसी विवाह की कहानी क्या है?
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शंखचूड़ को किसने हराया था?
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देवउठनी एकादशी की कथा जानें?
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1. सत्यभामा और रुक्मिणी की कथा : भगवान श्री कृष्ण की पत्नी सत्यभामा को अपने रूप पर बड़ा गर्व था। वे सोचती थीं कि रूपवती होने के कारण ही श्री कृष्ण उनसे अधिक स्नेह रखते हैं। एक दिन जब नारद जी उधर गए तो सत्यभामा ने कहा कि आप मुझे आशीर्वाद दीजिए कि अगले जन्म में भी भगवान श्री कृष्ण ही मुझे पति रूप में प्राप्त हों।
नारद जी बोले, 'नियम यह है कि यदि कोई व्यक्ति अपनी प्रिय वस्तु इस जन्म में दान करे तो वह उसे अगले जन्म में प्राप्त होगी। अतः आप भी श्री कृष्ण को दान रूप में मुझे दे दो तो वे अगले जन्मों में जरूर मिलेंगे।' सत्यभामा ने श्री कृष्ण को नारदजी को दान रूप में दे दिया। जब नारद जी उन्हें ले जाने लगे तो अन्य रानियों ने उन्हें रोक लिया।
इस पर नारद जी बोले, 'यदि श्री कृष्ण के बराबर सोना व रत्न दे दो तो हम इन्हें छोड़ देंगे।' तब तराजू के एक पलड़े में श्री कृष्ण बैठे तथा दूसरे पलड़े में सभी रानियां अपने−अपने आभूषण चढ़ाने लगीं, पर पलड़ा टस से मस नहीं हुआ। यह देख सत्यभामा ने कहा, यदि मैंने इन्हें दान किया है तो उबार भी लूंगी। यह कह कर उन्होंने अपने सारे आभूषण चढ़ा दिए, पर पलड़ा नहीं हिला। वे बड़ी लज्जित हुईं।
जब सारा समाचार रुक्मिणी जी ने सुना तो वे तुलसी पूजन करके उसकी पत्ती ले आईं। उस पत्ती को पलड़े पर रखते ही तुला का वजन बराबर हो गया। नारद तुलसी दल लेकर स्वर्ग को चले गए। रुक्मिणी श्री कृष्ण की पटरानी थीं। तुलसी के वरदान के कारण ही वे अपनी व अन्य रानियों के सौभाग्य की रक्षा कर सकीं। तब से तुलसी को यह पूज्य पद प्राप्त हो गया कि श्री कृष्ण उसे सदा अपने मस्तक पर धारण करते हैं। एकादशी को तुलसी जी का विशेष व्रत व पूजन किया जाता है।
2. दानव शंखचूड़ की कथा : देवउठनी एकादशी की एक प्रमुख कथा शंखासुर नामक राक्षस की है। शंखासुर ने तीनों लोकों में बहुत ही उत्पात मचाया हुआ था। तब सभी देवताओं के आग्रह करने पर भगवान विष्णु ने उस राक्षस से युद्ध किया और यह युद्ध कई वर्षों तक चला। युद्ध में वह असुर मारा गया और इसके बाद भगवान विष्णु विश्राम करने चले गए। कार्तिक शुक्ल एकादशी के दिन भगवान विष्णु की निद्रा टूटी थी और सभी देवताओं ने भगवान विष्णु की पूजा की थी।
शिव महापुराण के अनुसार पौराणिक समय में दैत्यों का राजा दंभ हुआ करता था। वह बहुत बड़ा विष्णु भक्त था। कई सालों तक उसके यहां संतान नही होने के कारण उसने शुक्राचार्य को अपना गुरु बनाकर उनसे श्री कृष्ण मंत्र प्राप्त किया। यह मंत्र प्राप्त करके उसने पुष्कर सरोवर में घोर तपस्या की। भगवान विष्णु उसकी तपस्या से प्रसन्न हुए और उसे संतान प्राप्ति का वरदान दे दिया।
भगवान विष्णु के वरदान से राजा दंभ के यहां एक पुत्र में जन्म लिया। इस पुत्र का नाम शंखचूड़ रखा गया। बड़ा होकर शंखचूड़ ने ब्रह्मा जी को प्रसन्न करने के लिए पुष्कर में घोर तपस्या की। उसकी तपस्या से प्रसन्न होकर ब्रह्मा जी ने उसे वरदान मांगने को कहा। तब शंखचूड़ ने वरदान मांगा कि वह हमेशा अजर-अमर रहे व कोई भी देवता उसे नही मार पाए। ब्रह्मा जी ने उसे यह वरदान दे दिया और कहा कि वह बदरीवन जाकर धर्मध्वज की पुत्री तुलसी जो तपस्या कर रही है उससे विवाह कर लें। शंखचूड़ ने वैसा ही किया और तुलसी के साथ विवाह के बाद सुखपूर्वक रहने लगा। उसने अपने बल से देवताओं, असुरों, दानवों, राक्षसों, गंधर्वों, नागों, किन्नरों, मनुष्यों तथा त्रिलोकी के सभी प्राणियों पर विजय प्राप्त कर ली। वह भगवान श्रीकृष्ण का परम भक्त था।
शंखचूड़ के अत्याचारों से सभी देवता परेशान होकर ब्रह्माजी के पास गए और ब्रह्मा जी उन्हें भगवान विष्णु के पास ले गए। भगवान विष्णु ने कहा कि शंखचूड़ की मृत्यु भगवान शिव के त्रिशूल से ही होगी, अतः आप उनके पास जाएं। भगवान शिव ने चित्ररथ नामक गण को अपना दूत बनाकर शंखचूड़ के पास भेजा। चित्ररथ ने शंखचूड़ को समझाया कि वह देवताओं को उनका राज्य लौटा दे। परंतु शंखचूड़ ने मना कर दिया और कहा कि वह महेश्वर से युद्ध करना चाहता है।
भगवान शिव को जब यह बात पता चली तो वे युद्ध के लिए अपनी सेना लेकर निकल पड़े। इस तरह देवता और दानवों में घमासान युद्ध हुआ। परंतु ब्रह्मा जी के वरदान के कारण शंखचूड़ को देवता नहीं हरा पाए। भगवान शिव ने शंखचूड़ का वध करने के लिए जैसे ही अपना त्रिशूल उठाया, तभी आकाशवाणी हुई कि- जब तक शंखचूड़ के हाथ में श्रीहरि का कवच है और इसकी पत्नी का सतीत्व अखण्डित है, तब तक इसका वध असंभव है।
आकाशवाणी सुनकर भगवान विष्णु वृद्ध ब्राह्मण का रूप धारण कर शंखचूड़ के पास गए और उससे श्रीहरि कवच दान में मांग लिया। शंखचूड़ ने वह कवच बिना किसी संकोच के दान कर दिया। इसके बाद भगवान विष्णु शंखचूड़ का रूप बनाकर तुलसी के पास गए। शंखचूड़ रूपी भगवान विष्णु ने तुलसी के महल के द्वार पर जाकर अपनी विजय होने की सूचना दी।
यह सुनकर तुलसी बहुत प्रसन्न हुई और पतिरूप में आए भगवान का पूजन किया व रमण किया। ऐसा करते ही तुलसी का सतीत्व खंडित हो गया और भगवान शिव ने युद्ध में अपने त्रिशूल से शंखचूड़ का वध कर दिया। तब तुलसी को पता चला कि वे उनके पति नहीं हैं बल्कि वे तो भगवान विष्णु है। क्रोध में आकर तुलसी ने कहा कि आपने छलपूर्वक मेरा धर्म भ्रष्ट किया है और मेरे पति को मार डाला। अतः मैं आपको श्राप देती हूं कि आप पाषण होकर धरती पर रहे।
तब भगवान विष्णु ने कहा- देवी। तुम मेरे लिए भारत वर्ष में रहकर बहुत दिनों तक तपस्या कर चुकी हो। तुम्हारा यह शरीर नदी रूप में बदलकर गण्डकी नामक नदी के रूप में प्रसिद्ध होगा। तुम पुष्पों में श्रेष्ठ तुलसी का वृक्ष बन जाओगी और सदा मेरे साथ रहोगी। तुम्हारे श्राप को सत्य करने के लिए मैं पाषाण (शालिग्राम) बनकर रहूंगा। गण्डकी नदी के तट पर मेरा वास होगा। हिंदू धर्म मान्यता के अनुसार देव प्रबोधिनी एकादशी के दिन तुलसी-शालिग्राम विवाह करने से अपार पुण्य प्राप्त होता है। इस दिन श्रीहरि के निद्रा से जागने तथा भगवान शालिग्राम व तुलसी का विवाह संपन्न करने से समस्त शुभ मांगलिक कार्यों का प्रारंभ हो जाता है।
3. भगवान विष्णु के सुंदरी रूप की कथा : एक राजा था। उसके राज्य में प्रजा सुखी थी। एकादशी को कोई भी अन्न नहीं बेचता था। सभी फलाहार करते थे। एक बार भगवान ने राजा की परीक्षा लेनी चाही। भगवान ने एक सुंदरी का रूप धारण किया तथा सड़क पर बैठ गए। तभी राजा उधर से निकला और सुंदरी को देख चकित रह गया। उसने पूछा- हे सुंदरी! तुम कौन हो और इस तरह यहां क्यों बैठी हो?
तब सुंदर स्त्री बने भगवान बोले- मैं निराश्रिता हूं। नगर में मेरा कोई जाना-पहचाना नहीं है, किससे सहायता मांगू? राजा उसके रूप पर मोहित हो गया था। वह बोला- तुम मेरे महल में चलकर मेरी रानी बनकर रहो। सुंदरी बोली- मैं तुम्हारी बात मानूंगी, पर तुम्हें राज्य का अधिकार मुझे सौंपना होगा। राज्य पर मेरा पूर्ण अधिकार होगा। मैं जो भी बनाऊंगी, तुम्हें खाना होगा।
राजा उसके रूप पर मोहित था, अतः उसने उसकी सभी शर्तें स्वीकार कर लीं। अगले दिन एकादशी थी। रानी ने हुक्म दिया कि बाजारों में अन्य दिनों की तरह अन्न बेचा जाए। उसने घर में मांस-मछली आदि पकवाए तथा परोसकर राजा से खाने के लिए कहा। यह देखकर राजा बोला- रानी! आज एकादशी है। मैं तो केवल फलाहार ही करूंगा। तब रानी ने शर्त की याद दिलाई और बोली- या तो खाना खाओ, नहीं तो मैं बड़े राजकुमार का सिर काट लूंगी। राजा ने अपनी स्थिति बड़ी रानी से कही तो बड़ी रानी बोली- महाराज! धर्म न छोड़ें, बड़े राजकुमार का सिर दे दें। पुत्र तो फिर मिल जाएगा, पर धर्म नहीं मिलेगा। इसी दौरान बड़ा राजकुमार खेलकर आ गया।
मां की आंखों में आंसू देखकर वह रोने का कारण पूछने लगा तो मां ने उसे सारी वस्तुस्थिति बता दी। तब वह बोला- मैं सिर देने के लिए तैयार हूं। पिताजी के धर्म की रक्षा होगी, जरूर होगी। राजा दुःखी मन से राजकुमार का सिर देने को तैयार हुआ तो रानी के रूप से भगवान विष्णु ने प्रकट होकर असली बात बताई- राजन! तुम इस कठिन परीक्षा में पास हुए। भगवान ने प्रसन्न मन से राजा से वर मांगने को कहा तो राजा बोला- आपका दिया सब कुछ है। हमारा उद्धार करें। उसी समय वहां एक विमान उतरा। राजा ने अपना राज्य पुत्र को सौंप दिया और विमान में बैठकर परम धाम को चला गया।
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