मन की शक्ति जीती
आयकुड़ी का चमत्कार
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मंगला रामचन्द्रन विकलांग वे नहीं हैं, जो शरीर से लाचार हैं। विकलांग वे होते हैं जिनमें इच्छाशक्ति का अभाव होता है। गर इच्छाशक्ति हो तो 'असंभव' शब्द खुद ही अपनी हस्ती मिटा देता है। तमिलनाडु के एक गाँव के रामकृष्णन ने गर्दन से नीचे पूरी तरह विकलांग होने के बावजूद न केवल अर्थपूर्ण जीवन जिया है बल्कि अपने योगदान से समाज को अपना ऋणी बना लिया है।तमिलनाडु के 'आयकुड़ी' गाँव के उत्साही, होनहार युवक रामकृष्णन सदैव उत्साह से भरे रहते। पढ़ाई-लिखाई, खेल-कूद, गाँव के पूजा-उत्सव, किसी की मदद करना हो, सबमें आगे रहते। साधारण परिवार के बेटे को उनके पिताश्री ने बड़े अरमान से कोयम्बटूर इंजीनियर कॉलेज में पढ़ने भेजा। कॉलेज के चौथे वर्ष में थे, तब नौसेना का एक विज्ञापन देखा। ऑफिसर्स के चयन और ट्रेनिंग संबंधी सूचना देखकर रामकृष्णन जैसा 21 वर्षीय उत्साही युवक भला चुप कैसे बैठता? फार्म भरकर भेजा और परीक्षा देने बंगलोर पहुँच गया। दो-तीन दिन में लिखित, मौखिक व शारीरिक परीक्षाओं का क्रम था। प्रारंभ के दोनों ही क्रम अच्छे से निपट गए। शारीरिक परीक्षा में न जाने कैसे और कहाँ चूक हुई, 20 फुट ऊपर से जिस लकड़ी के तख्ते पर कूदना था, वह गर्दन पर जोर से लग गया।रामकृष्णन को उस तख्ते से 10 फुट नीचे जमीन पर ही कूदना था, पर वे तो चोट से आहत जमीन पर आ गिरे। बंगलूर के आर्मी अस्पताल में कई महीने इलाज चला। 10 अक्टूबर 1975 को यह हादसा हुआ था। रामकृष्णन अपने हाथ-पैर ढूँढ-ढूँढकर थक गए। आखिरकार उन्हें समझ में आ गया कि उनके हाथ-पैर ही नहीं, गर्दन के नीचे का कोई भी अंग संचालन नहीं कर रहा है।आर्मी अस्पताल के पलंग पर पड़े-पड़े वे अपनी हालत पर खून के आँसू रोते रहे। रामकृष्णन ने भगवान से प्रश्न अवश्य किया कि मेरे साथ ऐसा क्यों किया? लेकिन तब भी अपना विश्वास और आत्मबल पूरी तरह नहीं खोया। बंगलोर और पुणे के आर्मी अस्पतालों में 20 महीनों तक इलाज चला, लेकिन नतीजा सिफर रहा। अंततः पुणे के आर्मी अस्पताल से उन्हें आयकुड़ी लाया गया। शिशु के जन्म लेने के साथ माँ क्रमशः उसकी प्रथम रक्षक, शिक्षक और परीक्षक बन जाती है। उसके बाद बच्चा बड़ा होकर जीवन के रणक्षेत्र में कूद पड़ता है और अपना रास्ता स्वयं बनाता है।रामकृष्णन तो उस स्थिति को पार करते-करते जीवनभर के लिए एक शिशु की तरह अपनी माता पर निर्भर हो गया। इक्कीस-बाईस वर्ष के बेटे का एक-एक काम माँ करती। मन ही मन टूट चुकी उनकी माँ अपने दुःख को बेटे के सामने किसी तरह प्रकट न होने देती। रामकृष्णन के पिता, भाई, बहन, दोस्त सभी तरह-तरह से उनकी मदद करते। चौबीसों घंटे किसी न किसी को उनकी देखभाल में रहना ही होता था। खाना खिलाने और दूसरे कामों के अलावा हर घंटे उनकी करवट बदलवाना आवश्यक था। इन हालात में बिस्तर पर पड़े-पड़े रामकृष्णन सोचते कि प्रभु ने उन्हें इतने बड़े हादसे के बाद भी जीवित रखा है तो इसका कोई मकसद अवश्य है। गर्दन के ऊपर उनकी चमकती आँखें, चौकन्ना, सजग दिमाग, नाक-कान सब दुरुस्त थे। उन्होंने बिस्तर पर पड़े-पड़े बच्चों को पढ़ाने का काम प्रारंभ किया।उन दिनों (1977) गाँव की आबादी मात्र 6,000 थी। रामकृष्णन की माँ बेटे की खुशी और आत्मबल बढ़ाने को कुछ भी करने को तत्पर रहती थीं। गाँव में बच्चों के माँ-बाप को समझा-बुझाकर बच्चों को लेकर आतीं। माँ का मन कहता कि बच्चों को शिक्षित कर बेटा आत्मगौरव का अनुभव करे। 4-5 वर्ष बाद घर के पास एक नर्सरी स्कूल की स्थापना की, जिसमें 75 बच्चे थे। इससे रामकृष्णन के मन में अपने भावी जीवन के लिए एक निश्चित दिशा का सूत्रपात हुआ।
उस असहाय परिस्थिति में उनके दिलो-दिमाग में एक संस्था की स्थापना का विचार आया। वे चाहते थे कि पोलियो से ग्रस्त या हादसे में विकलांग हुए बच्चों के लिए विद्यालय और चिकित्सा सुविधा उपलब्ध हो। अंतरराष्ट्रीय विकलांग वर्ष में जून 1981 में उन्होंने 'अमर सेवा संघ' की स्थापना और रजिस्ट्रेशन करवाया।उनके घर के पास एक छोटे-से कमरे से प्रारंभ हुआ यह संघ कई मायने में अद्वितीय है। संघ के नाम पर दृष्टिपात करें। पौने दो वर्ष आर्मी अस्पताल में इलाज के दौरान रामकृष्णन के कई डॉक्टरों में से एक थे डॉ. अमरजीतसिंह चहल। उनका रामकृष्णन के प्रति विशेष स्नेह और विश्वास था। वे हमेशा कहा करते थे, 'रामकृष्णन, आशा और हौसला कभी मत छोड़ना, तुम अवश्य ही कुछ करोगे।' '
अमर सेवा संघ' में पोलियोग्रस्त बच्चों को लाया गया। उनकी चिकित्सा, शिक्षा के बाद कैलिपर्स बनवाकर चलने में मदद की गई।10
वर्ष तक संघ के लिए अध्यक्ष रामकृष्णन व स्वेच्छा से कार्य करने वाले कार्यकर्ताओं ने दिन-रात एक करके जनसेवा की मिसाल कायम की। फिर तमिल की अंतरराष्ट्रीय स्तर की लेखिका शिवशंकरी को किसी परिचित से रामकृष्णन के हादसे और हौसले की बात का पता लगा। वे आयकुड़ी जाकर उनसे मिलीं।वहाँ की गतिविधियाँ देख बहुत उद्वेलित हुईं। उन्होंने विस्तारपूर्वक सारी बातों का खुलासा करते हुए एक तमिल साप्ताहिक में भावपूर्ण लेख लिखा। शिवशंकरी के लेख का तो अद्भुत प्रभाव पड़ना ही था। एक गुमनाम-सा गाँव लोगों के आवागमन और चंदे की रकम से भरपूर हो गया। इसी के साथ चेन्नई दूरदर्शन पर शिवशंकरी द्वारा बनाया हुआ वृत्तचित्र 'ए फेस इन द क्राउड' भी दिखाया गया।फिर तो देशी-विदेशी पत्रकारों में मानो होड़ ही लग गई। भावपूर्ण लेखों की श्रृंखला ने रामकृष्णन के हौसले, धैर्य और चातुर्य को लाखों लोगों के लिए प्रेरणास्पद बना दिया। रामकृष्णन ने किसी से स्वयं के लिए आर्थिक मदद कभी नहीं ली, परंतु संघ के लिए वे सदा मदद की गुहार करते। उन्होंने जिन क्रियाकलापों की कल्पना की थी, उन सबके लिए धनागमन होने लगा।कोलकाता में इलाहाबाद बैंक में एक उच्च पदस्थ अफसर श्रीनिवासन की पत्नी सुलोचना ने पत्र-पत्रिकाओं में रामकृष्णन के बारे में पढ़कर मदद करनी चाही, और की।जब बड़ी जगह की दरकार हुई तो सुलोचनाजी से ही उन्होंने गुहार लगाई। सुलोचनाजी ने न सिर्फ राशि से मदद की वरन भूमि खरीदने में भी मदद की। इसीलिए 'अमर सेवा संघ' का पता सुलोचना गार्डन्स रखा गया। यहाँ 1991 में भवन बनना प्रारंभ हुआ और 1992 में विद्यालय व अन्य कार्य बड़े पैमाने पर यहाँ चलने लगे। संघ के विस्तार और कार्यकलापों को देखकर कोई भी चकित रह जाएगा। सिर्फ रुपए का आगमन ही सब कुछ नहीं होता। उसका दूरदृष्टि के साथ ही सही उपयोग करना बहुत बड़ी कला है। रामकृष्णन इस कला में माहिर हैं। अपनी शारीरिक परेशानी के बावजूद गाड़ी में प्रतिदिन संघ के ऑफिस आना, हिसाब-किताब, हर विभाग की देखभाल, कार्यकर्ताओं व वैतनिक कर्मचारियों से बातचीत के अलावा बच्चों से घिर जाना और बातें तथा चुहलबाजी करना उनकी दिनचर्या है। संघ और संघ के अध्यक्ष रामकृष्णन यहाँ के बच्चों और बड़ों (शारीरिक रूप से अक्षम) को स्वाभिमान से जीना सिखा रहे हैं। इन लोगों के चेहरे पर हीनभावना के चिन्ह या चेहरे पर शिकायत का चिरस्थायी नोटिस विद्यमान नहीं रहता है। व्हील चेयर पर हो या घिसटकर चलते, चेहरे पर सहज दोस्ताना मुस्कान ही होती है। 5.32
एकड़ में फैले 'अमर सेवा संघ' में 1992 में एक और इसी तरह के विलक्षण व्यक्तित्व का आगमन हुआ। ये हैं शंकररामन जो जन्म से मस्क्युलर डिस्ट्रोफी के शिकार हैं। परंतु इनकी शारीरिक कमी को इनके माता-पिता के हौसले व इनके स्वयं के बुद्धि-चातुर्य ने मात देदी।घर पर शिक्षक से शिक्षा ग्रहण कर उच्च शिक्षा के लिए स्कूल, कॉलेजों में अनेक विरोधों व अड़चनों को पार कर शिक्षा दिलवाई। सीए की परीक्षा में पहले प्रयत्न में सामान्य छात्र के रूप में प्रथम रहना साधारण-सी बात नहीं है। प्रेक्टिस अच्छी चल रही थी, तभी 'अमर सेवा संघ' तथा रामकृष्णन के बारे में पढ़ा-सुना। शंकररामन के मन में जनसेवा का जज्बा था ही और वे कहीं सेवा कार्य से जुड़ना चाह रहे थे। 'अमर सेवा संघ' का जानकर उन्हें मानो अपना ठिकाना मिल गया। सन् 1992 में ये दोनों विलक्षण व्यक्तित्व एक-दूसरे से मिले तथा संघ को एक और एक ग्यारह की ताकत मिल गई। इसी गाँव की चित्रा नामक युवती संघ के बच्चों को पढ़ाती और संगीत सिखाती थी। इसके संगीत ने रामकृष्णन को आकर्षित किया। चित्रा उनकी सहायिका (पत्र लिखना, ऑफिस का काम करना) भी रहीं। 1994 में रामकृष्णन से विवाह करके सही अर्थों में वे उनकी अर्द्धांगिनी हो गई।
अमर सेवा संघ की गतिविधियाँ- * नर्सरी और मिडिल स्कूल का संचालन। गरीब व शारीरिक रूप से अक्षम बच्चों को आवास, भोजन, वस्त्र, चिकित्सा, चिकित्सा उपकरण तथा शिक्षा निःशुल्क। उच्च शिक्षा के लिए इन्हें पास के शहरों में पढ़ाने के लिए मदद की जाती है। इंदिरा गाँधी राष्ट्रीय मुक्त विश्वविद्यालय का कम्प्यूटर व कॉमर्स के डिप्लोमा तथा डिग्री कोर्सेस का केंद्र भी यहाँ है। * मानसिक रूप से बाधित 50 बच्चों के डे केयर सेंटर में स्वयं की साफ-सफाई और आधार शिक्षा का प्रबंध। साथ ही ऐसे बच्चों के माता-पिता को इन बच्चों की खास तरह से देखभाल का प्रशिक्षण भी दिया जाता है। * मेडिकल टेस्टिंग यूनिट भी यहाँ है। इससे किसी भी व्यक्ति की विकलांगता का प्रतिशत कितना है, क्या इलाज हो, यह आकलन हो सकता है। फिजियोथैरेपी की व्यवस्था के अलावा छात्रों को फिजियोथैरेपी की ट्रेनिंग भी दी जाती है। * कैलिपर मैकिंग यूनिट है। * पोस्ट ऑपरेटिव एक्यूट केयर के लिए कुछ बिस्तरों के साथ वार्ड भी हैं। यहाँ रीढ़ में चोट या ऑपरेशन के बाद भी चिकित्सा व फिजियोथैरेपी का इंतजाम है। * कम्प्यूटर ऑपरेशन, टाइपिंग, नोटबुक बनाना व बुक बाइंडिंग, टेलरिंग, हैंडीक्राफ्ट (खिलौने बनाना, कढ़ाई व अन्य कई तरह के क्रिया-कलाप) का प्रशिक्षण दिया जाता है। * अधिकतर विभागों में शारीरिक रूप से अक्षम पूर्व छात्र शिक्षा दे रहे हैं, जो अत्यंत ही स्तुत्य प्रयास है।