खांटी समाजवादी नेता और सांसद शरद यादव इन दिनों अपने राजनीतिक जीवन के सर्वाधिक चुनौतीभरे दौर से गुजर रहे हैं। उनका बनाया हुआ जनता दल (यू) दो फाड़ हो चुका है। तीन दशक तक उनके सहयोगी रहे बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार चार महीने पहले अपनी सरकार के साथ भाजपा के सहयोगी बन चुके हैं। जिन नीतीश कुमार के लिए शरद यादव ने विभिन्न राज्य इकाइयों की असहमति के बावजूद पार्टी की अध्यक्षता छोड़ी, अपने लंबे अध्यक्षीय कार्यकाल में दिल्ली सहित विभिन्न प्रांतों की राजधानियों में पार्टी द्वारा दफ्तरों के लिए अचल संपत्ति खड़ी की गई थी, उसके सारे कानूनी दस्तावेज नीतीश को सौंप दिए ताकि पार्टी सुचारू रूप से चलती रहे, वही नीतीश कुमार एकाएक रास्ता बदलकर भाजपा के काफिले में शरीक होकर अपने पुराने नेता के खिलाफ खड़े हो गए हैं। इस हद तक खिलाफ कि शरद यादव की राज्यसभा की सदस्यता भी खत्म कराने पर आमादा हैं।
शरद यादव के साथ ही उनके सहयोगी सांसद अली अनवर अंसारी की राज्यसभा सदस्यता पर भी संकट मंडरा रहा है। इस सिलसिले में राज्यसभा सचिवालय ने दोनों नेताओं को नोटिस जारी कर आठ नवंबर को सभापति एम. वेंकैया नायडू के समक्ष हाजिर होकर अपना जवाब पेश करने को कहा है। सभापति इस बारे में क्या फैसला दे सकते हैं, इस बारे में शरद यादव कहते हैं, उन पर दबाव तो बनाया ही जा रहा है। प्रधानमंत्री और भाजपा नेतृत्व पर भी दबाव डाला जा रहा है। हम तो सभापति के समक्ष अपना पक्ष रख देंगे, वे क्या फैसला करेंगे, हम इस बारे में ज्यादा नहीं सोच रहे हैं।
राज्यसभा की सदस्यता बचेगी या नहीं, यह हमारे लिए बहुत छोटा मुद्दा है। हमने तो बड़े मकसद के लिए संघर्ष छेड़ रखा है। यह मकसद है देश के संविधान और लोकतंत्र को बचाना। इसी मकसद से मैंने तो दो बार (1976 और 1996 में) लोकसभा की सदस्यता से भी इस्तीफा दिया है। राज्यसभा की सदस्यता के संदर्भ में तो हमारा इतना ही कहना है कि अपनी विचारधारा और पार्टी हमने नहीं, उन लोगों ने छोड़ी है जो हमारी सदस्यता खत्म कराने के लिए परेशान हो रहे हैं। हम तो आज भी वही हैं, जहां पहले थे।
अगर राज्यसभा के सभापति शरद यादव की राज्यसभा सदस्यता खत्म करने का फैसला करते हैं तो ऐसे में वे क्या करेंगे? शरद कहते हैं कि लोकतंत्र में ऐसी चुनौतियों का सामना करना पड़ता है। आपको हर तरह की कुर्बानी के लिए तैयार रहना चाहिए। आखिरी और असली फैसला तो जनता ही करती है। इतना सब कहने के साथ ही शरद यादव कहते हैं कि अगर किसी तरह के दबाव में आकर हमारी राज्यसभा की सदस्यता खत्म की जाती है तो इसका खामियाजा भाजपा को भुगतना होगा। इस देश ने ऐसे प्रयासों को और उसके परिणामों को पहले भी देखा है, जब इंदिरा गांधी की लोकसभा की सदस्यता हमारी जनता पार्टी की सरकार ने ही अपने बहुमत के बल पर खत्म कर दी थी, जिसके चलते सत्ता में उनकी वापसी आसान हो गई थी।
नीतीश कुमार के भाजपा का दामन थाम लेने के बाद यह विवाद भी खड़ा हो गया है कि पार्टी का बहुमत किस धड़े के साथ है और वास्तविक जनता दल (यू) किसे माना जाए? शरद यादव का दावा है कि पार्टी की 20 में से 16 राज्य इकाइयां हमारे साथ हैं और यह बात उन्होंने हलफनामा देकर कही है। पार्टी की राष्ट्रीय परिषद और राष्ट्रीय कार्यकारिणी में भी बहुमत से भी ज्यादा सदस्य हमारे साथ हैं। हमने इस बारे में सारे दस्तावेज चुनाव आयोग के समक्ष पेश किए हैं, जहां पर अभी फैसला होना है। शरद यादव का दावा है कि बिहार सरकार के कुछ मंत्री और कई विधायक भी उचित समय पर हमारे साथ खड़े दिखाई देंगे। उनका यह भी दावा है कि बिहार में जमीनी स्तर पर जनता दल (यू) राष्ट्रीय जनता दल और कांग्रेस का महागठबंधन अभी भी कायम है और आगे भी रहेगा।
किसी भी मामले में नीतीश कुमार पर निजी तौर पर कोई टिप्पणी करने से बचते हुए शरद यादव कहते हैं कि लोकतांत्रिक मूल्यों में आस्था रखने वाले दल में किसी व्यक्ति विशेष की सनक के आधार पर फैसले नहीं लिए जाते हैं, वहां किसी भी अहम नीतिगत मुद्दे पर व्यापक विचार-विमर्श होता है। जनता दल (यू) कभी भी व्यक्ति आधारित या किसी एक व्यक्ति के परिवार की पार्टी नहीं रही, लेकिन बिहार में महागठबंधन को मिले जनादेश के विपरीत भाजपा के साथ जा मिलने और उनके साथ सरकार बनाने के मसले पर पार्टी में कोई विचार-विमर्श नहीं हुआ और एक व्यक्ति की सनक के आधार पर फैसला ले लिया गया। यह फैसला बिहार की 11 करोड़ जनता के साथ धोखा है। बिहार की जनता इस फैसले से अपने को ठगा हुआ महसूस कर रही है और समय आने पर वह इसका माकूल जवाब देगी।
हालांकि भाजपा का दामन थामते वक्त नीतीश चाहते थे कि शरद यादव भी उनके साथ रहें। इसके लिए उन्हें पार्टी की ओर से केंद्र सरकार में महत्वपूर्ण महकमे के साथ मंत्री पद देने की पेशकश भी की गई। भाजपा की ओर से केंद्रीय वित्तमंत्री अरुण जेटली और आंध्रप्रदेश के मुख्यमंत्री एन. चंद्रबाबू नायडू ने भी शरद को मनाने की कोशिश की। पुराने एनडीए के दौर का हवाला दिया गया, जब पहले जॉर्ज फर्नांडीस और बाद में शरद यादव एनडीए के संयोजक हुआ करते थे, लेकिन उनकी कोशिशें नाकाम रहीं।
यहां सवाल उठता है कि एक समय भाजपा के अहम सहयोगी और संयोजक के रूप में एनडीए के आधार स्तंभ रहे शरद यादव आखिर अब एनडीए शामिल होने से क्यों परहेज बरत रहे हैं। इस सवाल का जवाब देते हुए शरद यादव कहते हैं, पहले हम लोग जब एनडीए का हिस्सा बने थे तो हमने भाजपा नेतृत्व से अपनी शर्तें मनवाई थीं। हम लोगों के ही दबाव में अयोध्या विवाद, समान नागरिक कानून और अनुच्छेद 370 जैसे विवादास्पद और विभाजनकारी मुद्दे छोड़ने के लिए भाजपा को बाध्य होना पड़ा था। हम जब तक एनडीए में रहे, भाजपा के सांप्रदायिक एजेंडा को हाशिए पर रखने में कामयाब रहे। उस समय के भाजपा नेतृत्व ने भी उदारता और समझदारी का परिचय देते हुए देशहित में हमारे वैचारिक आग्रहों का सम्मान किया था, लेकिन अब भाजपा में वह बात नहीं रही।
शरद यादव के मुताबिक, अब तो जिन लोगों के हाथों में भाजपा और सरकार की बागडोर है, वे इस देश की साझा विरासत और स्वाधीनता संग्राम के दौरान विकसित हुए साझा मूल्यों को नष्ट करने पर आमादा हैं। संविधान जो कि हमारे लोकतंत्र की आत्मा है, उसके साथ रोजाना छेड़छाड़ हो रही है। सत्ता में बैठे लोग संसद को भी अप्रासंगिक बनाने की कोशिश कर रहे हैं। मांसाहार, लव जेहाद, घर वापसी जैसे बेमतलब के मुद्दों को लेकर आए दिन दलितों और अल्पसंख्यकों को सताया जा रहा है, उन पर हिंसक हमले हो रहे हैं, उनकी हत्या की जा रही है।
यह सब करने वालों पर सरकार का कोई नियंत्रण नहीं है। एक तरह से देश में गृहयुद्ध जैसे हालात बनते जा रहे हैं। सरकार की दिशाहीन नीतियों के चलते देश में बेरोजगारी का संकट भयावह रूप ले चुका है। किसानों की आत्महत्या का सिलसिला कहीं से भी थमता नजर नहीं आ रहा है। छोटे व्यापारियों, दस्तकारों, बुनकरों के सामने रोजी-रोटी का संकट खड़ा हो गया है। ऐसे हालात में इस सरकार का साथ देना एक तरह का राष्ट्रीय अपराध है।