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Written By Author श्रवण गर्ग
Last Updated : मंगलवार, 14 जून 2022 (18:37 IST)

न तो पीएम चुप्पी तोड़ेंगे, न भाजपा बदलने वाली है!

न तो पीएम चुप्पी तोड़ेंगे, न भाजपा बदलने वाली है! - Neither Narendra Modi will break the silence nor BJP is going to change
सत्तारूढ़ दल के 2 (पूर्व) प्रवक्ताओं द्वारा की गईं विवादास्पद टिप्पणियों से उठे तूफ़ान के बाद फ़िल्म अभिनेता नसीरुद्दीन शाह ने उम्मीद ज़ाहिर की है कि सद्बुद्धि प्राप्त होगी और नफ़रत की आंधी थमेगी। नसीर ने प्रधानमंत्री से भी अपील की कि वे हस्तक्षेप करके नफ़रत के ज़हर को फैलने से रोकें।
 
ऐसी ही कई अपीलें नासिर के अलावा सैकड़ों बुद्धिजीवियों, सेना के पूर्व वरिष्ठ अधिकारियों, सेवानिवृत्त आईएएस अफ़सरों आदि ने कोई 6 माह पूर्व हरिद्वार में आयोजित हुई उस 'धर्म संसद' के बाद भी की थीं जिसमें हिन्दुओं से अल्पसंख्यकों के ख़िलाफ़ शस्त्र धारण करने का आह्वान किया गया था। नसीर ने तब भय व्यक्त किया था कि- 'ये लोग (धर्म संसद के आयोजक) नहीं जानते कि वे क्या कह और कर रहे हैं? ये लोग खुलेतौर पर गृहयुद्ध को आमंत्रित कर रहे हैं।' सड़कों पर जो कुछ भी इस समय दिखाई पड़ रहा है, वह यह बताता है कि तमाम अपीलों का किसी पर कोई असर नहीं हुआ।
 
सरकारों में बैठे हुए लोग जब अपने ही धर्मनिरपेक्ष नागरिकों की आवाज़ों को सुनना बंद कर देते हैं तो दूसरे मुल्कों की उन कट्टरपंथी ताक़तों को हस्तक्षेप करने का मौक़ा मिल जाता है जिनका धर्मों की समानता और मानवाधिकारों की रक्षा में प्रजातांत्रिक व्यवस्थाओं जैसा यक़ीन नहीं है। उत्तेजनापूर्ण क्षणों के दौरान पार्टी प्रवक्ता द्वारा की गई दुर्भाग्यपूर्ण टिप्पणी का परिणाम यही निकला है कि सरकार को अपने बाक़ी ज़रूरी काम छोड़कर स्पष्टीकरण और आश्वासन देने का काम उन मुल्कों के सामने करना पड़ रहा है, जहां न तो प्रजातंत्र है और न ही जिनकी हुकूमतों का किताबी तौर पर भी किसी भी तरह की धर्मनिरपेक्षता में भरोसा है।
 
स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद शायद पहली बार किसी सरकार को इस्लाम के नाम पर आपस में ही लड़ते रहने वाले मुल्कों के सामूहिक विरोध का सामना करना पड़ रहा है। याद किया जा सकता है कि शिया और सुन्नी मुस्लिमों में विभाजित ये तमाम मुल्क धारा 370, तीन तलाक़, नागरिकता क़ानून, गोमांस, मॉब लिंचिंग, धर्म संसद आदि मुद्दों पर अभी तक चुप्पी साधे रहा है। सिर्फ़ एक अवांछनीय टिप्पणी और उसके ख़िलाफ़ की गई आधी-अधूरी कार्रवाई ने सब कुछ उलटकर रख दिया।
 
इसे इस्लामी मुल्कों के सामूहिक दबाव का नकारात्मक असर भी माना जा सकता है कि वे तमाम अल्पसंख्यक जो पिछले कुछ वर्षों से धार्मिक विभाजन और अलगाववाद की घटनाओं से अपने आपको प्रताड़ित अनुभव कर रहे थे, उनमें अचानक से संगठित होकर सड़कों पर विरोध व्यक्त करने की ताक़त उत्पन्न हो गई।
 
आश्चर्य व्यक्त किया जा सकता है कि देश की बहुसंख्य जनता ने पूरे मामले में रहस्यमय तरीक़े से तटस्थता ओढ़ रखी है। सार्वजनिक रूप से ऐसा व्यक्त नहीं हो पा रहा है कि ताज़ा विवाद में पूरा देश एक स्वर से सरकार के साथ है, विपक्ष तो है ही नहीं। भारतीय जनता पार्टी और संघ के हिन्दू राष्ट्रवादी कार्यकर्ता चाहे जितनी बड़ी संख्या में नूपुर शर्मा के साथ खड़े हुए नज़र आ रहे हों, इस्लामी मुल्कों को भारत के ख़िलाफ़ सामूहिक रूप से दबाव बनाए रखने का एक हथियार प्राप्त हो गया है जिसके कि हमारी विदेश नीति पर दूरगामी प्रभाव पड़ सकते हैं।
 
भारत में धार्मिक स्वतंत्रता के सवाल पर अमेरिका और यूरोपीय देशों द्वारा की जाने वाली विपरीत टिप्पणियों की कोड़ीभर चिंता नहीं करने वाली सरकार को अगर खाड़ी के छोटे-छोटे मुस्लिम मुल्कों ने हिलाकर रख दिया है तो उसके कारण भी साफ़ हैं। भारतीय मूल के कोई 70 लाख नागरिक सिर्फ़ संयुक्त अरब अमीरात, सऊदी अरब और कुवैत में ही कार्यरत हैं। कतर, बहरीन, जॉर्डन, इराक़, ओमान, लेबनान में काम करने वालों की संख्या अलग है। ये नागरिक प्रत्येक वर्ष अरबों रुपए की धनराशि अपने परिवारों को भारत भेजते हैं। यह राशि 40 अरब डॉलर से अधिक की बताई जाती है। भारत अपनी ज़रूरत का 60 से 68 प्रतिशत कच्चा तेल खाड़ी के देशों से आयात करता है। इस सबके अलावा अनुमानित तौर पर भारत से 50 हज़ार करोड़ का सामान खाड़ी के देशों को हर साल निर्यात होता है।

 
अब अहम सवाल यह है कि एक टीवी चैनल की बहस के बाद से जो माहौल देश में निर्मित हुआ है, उससे सबक़ लेकर संघ और भाजपा क्या कट्टर हिन्दुत्व की अपनी छवि में धर्मनिरपेक्षता का संशोधन करना चाहेंगे और अपनी इस घोषणा को चरितार्थ करके दिखाएंगे कि 'भारतीय जनता पार्टी को ऐसा कोई भी विचार स्वीकृत नहीं है, जो किसी भी धर्म-समुदाय की भावनाओं को ठेस पहुंचाए। भाजपा न ऐसे किसी विचार को मानती है और न ही प्रोत्साहन देती है।' क्या 'गोदी मीडिया' के विशेषणों से आभूषित राष्ट्रीय चैनल अपने स्थापित चरित्र की हत्या कर देंगे?
 
पिछले 8 वर्षों के दौरान अपनाई जा रही सांप्रदायिक ध्रूवीकरण की नीति को सत्ता-प्राप्ति की दिशा में भाजपा की बुनियादी ताक़त माना जाता है। अपनी इसी (80 बनाम 20) ताक़त के दम पर भाजपा एक के बाद एक चुनाव जीतती रही है। राष्ट्रीय चैनलों पर चलने वाली (एकतरफ़ा) हिन्दू-मुस्लिम बहसें सत्तारूढ़ दल की मदद में महत्वपूर्ण भूमिका अदा करती हैं। नूपुर शर्मा अगर पैग़ंबर साहब का ज़िक्र नहीं करतीं तो उनके बाक़ी कहे पर कोई कभी ध्यान नहीं देता, मुस्लिम मुल्क तो बिलकुल ही नहीं। कहा जाता है कि नूपुर शर्मा जैसी आक्रामक छवि वाले पार्टी-प्रवक्ताओं की संख्या 3 दर्जन से ज़्यादा है।
 
बताया गया है कि हाल के अप्रिय घटनाक्रम के बाद अपने प्रवक्ताओं की मीडिया बहसों में भागीदारी के लिए भाजपा ने कुछ दिशा-निर्देश जारी किए हैं। इन दिशा-निर्देशों का उद्देश्य निश्चित ही ऐसी बातों पर टिप्पणी करने से बचना होगा, जो किसी धर्म-विशेष की भावनाओं या उसके पूजनीयों के सम्मान को ठेस पहुंचा सकती हो। सवाल यह है कि ये प्रवक्ता अगर हिन्दू-मुस्लिम की बात करना बंद कर देंगे तो फिर देखने-सुनने वाले तो फ़र्क़ ही नहीं कर पाएंगे कि वे किस पार्टी का पक्ष रख रहे हैं और फिर चैनलों के एंकर क्या करेंगे?
 
8 वर्षों की सफल सत्ता-यात्रा के बाद भाजपा और संघ अपने मूल को इसलिए नहीं छोड़ सकते हैं कि अल्पसंख्यक तुष्टिकरण की नीति का अगर वे घरेलू मोर्चे पर तिरस्कार करते हैं, तो अपनी सरकार को विदेशी मोर्चे पर भी उसके पालन की इजाज़त नहीं दे सकते। दूसरे यह कि चैनलों की बहसों में भाग लेने वालों के लिए तो दिशा-निर्देश जारी किए जा सकते हैं, उन लाखों कार्यकर्ताओं के बोलने और आचरण पर प्रतिबंध नहीं लगाए जा सकते जिनका पूरा प्रशिक्षण ही हिन्दू राष्ट्र की स्थापना के लिए हुआ है। किसी से छुपा हुआ नहीं है कि एक बड़ी संख्या में भाजपा और संघ के समर्थक नूपुर शर्मा और जिंदल के ख़िलाफ़ की गई निलंबन-निष्कासन की कार्रवाई का विरोध कर रहे हैं।
 
कट्टर हिन्दुत्व की अपनी नीति पर आक्रामक तरीक़े से वापस लौटने और नूपुर शर्मा-जिंदल जैसे बहुचर्चित प्रवक्ताओं का पुनर्वास/पुनर्स्थापन करने के लिए भाजपा को स्थिति के सामान्य होने तक की प्रतीक्षा करनी होगी और उसमें देर भी लग सकती है। साथ ही यह भी मानकर चला जा सकता है कि तमाम कूटनीतिक कोशिशों के बावजूद अगर खाड़ी के मुस्लिम मुल्क भारत के ख़िलाफ़ अपनी दबाव की रणनीति क़ायम रखते हैं तो एक स्थिति के बाद सरकार उनकी नाराज़गी को नज़रंदाज़ करने का साहस भी जुटा सकती है।
 
इस समय बड़ा सवाल 2024 में फिर से सत्ता में लौटने का है। नूपुर शर्मा की टिप्पणी और बाद की घटनाओं ने भाजपा के पक्ष में ध्रूवीकरण को और मज़बूत करने में मदद ही की है। किसी को भी इस भ्रम में नहीं रहना चाहिए कि प्रधानमंत्री अपनी चुप्पी तोड़ देंगे, वे अब बदल जाएंगे या भाजपा देश से माफ़ी मांग लेगी।

(इस लेख में व्यक्त विचार/ विश्लेषण लेखक के निजी हैं। इसमें शामिल तथ्य तथा विचार/ विश्लेषण 'वेबदुनिया' 
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