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Written By Author राम यादव
Last Updated : शनिवार, 18 नवंबर 2023 (12:35 IST)

विज्ञान कहता है- उपवास करें, दीर्घायु बनें

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Fasting is Self Cure : उपवास रखना केवल भूखा रहना नहीं है। पश्चिमी चिकित्सा विज्ञान भी अब उपवास को वैज्ञानिक शोध का विषय और आधुनिक जीवन पद्धति की कई बीमारियों का उपचार मानने लगा है। हमारी रहन-सहन प्रकृति से हमें मिली आनुवांशिक देन की अपेक्षा कहीं ज़्यादा बोझिल हो गई है।
 
सुख-सुविधाओं और धन-संपत्ति की भूखी पश्चिमी दुनिया के लोग भी स्वीकार करने लगे हैं कि कम भोजन कई बार अधिक सुखदायक हो सकता है। हमेशा भरे भेट की अपेक्षा कुछ समय भूखे रहना स्वास्थ्य के लिए वरदान बन सकता है। यही कारण है कि यूरोप-अमेरिका के लोग भी अब योग-ध्यान के अलावा समय-समय पर उपवास भी रखने लगे हैं।
 
हमेशा एलोपैथिक डॉक्टरों के पास दौड़ने के बदले वैकल्पिक या प्राकृतिक चिकित्सा पद्धति वाले डॉक्टरों के पास भी जाने लगे हैं। जर्मनी पश्चिमी जगत का संभवत: ऐसा पहला देश है, जहां 1 सदी पूर्व 1920 में एक ऐसा सैनिटोरियम बना जिसमें कुछ दिन रहकर लोग उपवास द्वारा अपना इलाज़ करवा सकते थे।
 
इस बीच हर साल क़रीब 2,000 लोग इस सैनिटोरियम में उपचार करवाने आते हैं। दक्षिणी जर्मनी की सुरम्य झील, 'लेक कांस्टंस' के पास स्थित इस सैनिटोरियम में जिस विधि से उपवास करवाया जाता है, उसे सैनिटोरियम के संस्थापक ओटो बूख़िंगर ने 100 साल पूर्व विकसित किया था।
 
डॉक्टरी विधियां काम नहीं आईं : बूख़िंगर अपने समय की जर्मन सेना के एक डॉक्टर हुआ करते थे। जोड़ों के दर्द के कारण 1918 में पहिया कुर्सी यानी व्हीलचेयर से बंध गए। उस समय की ज्ञात डॉक्टरी विधियां जब काम नहीं आईं तो उन्होंने उपवास को आजमाकर देखा। 2 बार के उपवासों के बाद वे पूरी तरह ठीक हो गए।
 
अपने लिए उन्होंने जो उपवास विधि सोची थी, इस सैनिटोरियम में वही विधि आज भी प्रचलित है। हर उपचार 1 से 3 सप्ताह तक चलता है। रोगी को हर दिन 2 बार 250 कैलोरी के बराबर कोई हल्का-सा सूप (शोरबा) या किसी फल का ताज़ा रस दिया जाता है। इससे उपवास को झेलना थोड़ा आसान हो जाता है।
 
रोगी को कुछ न कुछ चलते-फिरते भी रहना पडता है। उपवास की अवधि बीत जाने के बाद घर जा रहे रोगियों से कहा जाता है कि उन्हें बहुत सावधानी के साथ और धीरे-धीरे फिर से खाना-पीना शुरू करना चाहिए, वर्ना उपवास के सारे लाभ उपहास का कारण बन जाएंगे। इस बीच जर्मनी में कई ऐसे अस्पताल और सैनिटोरियम बन गए हैं, जहां कुछेक परिवर्तनों के साथ उपवास की लगभग यही विधि प्रचलित है।
 
हमारा आहार ही हमें बीमार कर रहा है। जर्मनी की राजधानी बर्लिन के यूरोप में सबसे बड़े विश्वविद्यालय अस्पताल 'शारिते' में उपवास का गहन अध्ययन किया जा रहा है। प्रोफ़ेसर अन्द्रेयास मिशालसन वहां शरीर की आंतरिक बीमारियों के विशेषज्ञ हैं। वे जानते हैं कि भोजन का अभाव शरीर में किस प्रकार के उपयोगी प्रभाव पैदा करता है। कहते हैं कि 'हमारा वर्तमान रहन-सहन हमारी आनुवांशिक क्षमताओं की दृष्टि से अधिकतम हानिकारक हो गया है। हमारा शरीर, निरंतर पूरी तरह अघाए पेट की अपेक्षा, कुछ समय के अभाव से कहीं बेहतर ढंग से निपट सकता है।'
 
प्रो. मिशालसन के कहने का तात्पर्य यही है कि खाने-पीने की चीजों की आजकल इतनी अधिकता और विविधता है कि हमारा आहार ही हमें बीमार कर रहा है। तो क्या इस आहार के नियमित इंकार से हम आधुनिक सभ्यता वाली बीमारियों से बच सकते हैं? प्रो. मिशालसन के अनुसार 'बिलकुल।
 
आजकल की जो अनेक लंबी चलने वाली बीमारियां हैं- जैसे गठिया और वात रोग, कैंसर के विभिन्न प्रकार, लकवा, नर्वस सिस्टम (तंत्रिका तंत्र) की बीमारी 'मल्टीपल स्क्लेरॉसिस' इत्यादि हमारे अब तक के प्रयोगों वाले तथ्यों और आंकड़ों के अनुसार उपवास करने पर वे होंगी ही नहीं। बहुत ही दिलचस्प है कि नियमित उपवास करने से क्या-क्या टाला जा सकता है?'
 
मधुमेह को बख़ूबी टाला जा सकता है : उदाहरण के लिए डायबिटीज यानी मधुमेह को बख़ूबी टाला जा सकता है जिससे भारतीय आजकल सबसे अधिक परेशान हैं। जर्मनी के दक्षिणी पड़ोसी ऑस्ट्रिया में ग्रात्स शहर के टोमास पीबर मधुमेह (डायबिटीज) की जड़ में पहुंचना चाहते हैं।
 
कहते हैं कि 'आहार-चिकित्सा के क्षेत्र में हम अब तक बिलकुल ग़लत प्रश्नों के उत्तर ढूंढ रहे थे। यह जानने में लगे थे कि अलग-अलग खाद्य पदार्थों के बीच कैसा समन्वय होना चाहिए कि हमें उनका सबसे बेहतर लाभ मिले। किसी के दिमाग़ में यह बात आती ही नहीं थी कि हम वह क्यों नहीं करते, जो प्रकृति ने पहले से ही तय कर रखा है यानी बीच-बीच में कुछ खाएं ही नहीं, उपवास रखें।'
 
प्रकृति ने हमारी आनुवांशिक संरचना इस तरह की नहीं बनाई है कि हम हमेशा कुछ न कुछ खाते-पीते रहें। बार-बार या जमकर खाने-पीने से मिली फ़ालतू ऊर्जा वसा (चर्बी) बनकर हमारे शरीर में जमा होती रहती है और किसी-न-किसी समस्या का कारण बनती है।
 
टोमास पीबर कहते हैं कि 'हमारे शरीर के पास हार्मोनों और जैव-रासायनिक क्रियाओं के रूप में 140 से 150 ऐसे जन्मजात उपाय हैं जिनसे हम भोजन से मिली ऊर्जा को शरीर में संचित कर सकते हैं और बाद में उसका सर्वोत्तम उपयोग भी कर सकते हैं। लेकिन हमारे शरीर के पास शायद ही ऐसा कोई उपाय है, जो फ़ालतू खान-पान से हमें बचा सके। यदि हम आदतन हमेशा खाते रहें या कुछ ज़्यादा ही खाया करें तो हमारा वज़न बढ़ना और स्वास्थ्य घटना निश्चित है।'
 
शरीर भीतर से बदलने लगता है : वज़न घटाने या किसी बीमारी के कारण उपवास करने के शुरुआती दिन काफ़ी कष्टदायी हो सकते हैं। लेकिन धीरज और समय के साथ शरीर अपने आपको नई स्थिति के अनुरूप ढालने लगता है। उपवासी उपचार के शुरू में फलों के रस या शोरबे के रूप में कोई तरल आहार लिया जाता है। ठोस आहार न होने पर भी हमारी चयापचय क्रिया (मेटाबॉलिज़्म) चलती रहती है। हफ्तेभर के अंदर हमारे शरीर की कोशिकाएं अभाव वाले समय का चतुराई के साथ उपयोग करना शुरू कर देती हैं।
 
बर्लिन में 'शारिते' अस्पताल के प्रो. मिशालसन ने पाया है कि 2 चीज़ें हमारे शरीर ने अपने विकास क्रम (इवैल्यूशन) के दौर में ख़ुद ही बहुत पहले सीख ली हैं। एक तो यह कि सुबह का नाश्ता और दोपहर तथा शाम का खाना हमेशा नहीं मिला करता। ऐसे दिन भी हो सकते हैं, जब खाने के लिए कुछ भी नहीं या बहुत कम कुछ मिले। तब शरीर को अपने ऊर्जा-भंडार का कंजूसी के साथ उपयोग करना पड़ता है।
 
कोशिकाओं का नवीकरण होता है : हमारे शरीर ने दूसरी बात यह सीखी है कि आहार के अभाव में जब उस के पास कैलरी की तंगी हो, तब ऊर्जा के ऐसे दूसरे स्रोतों का उपयोग करना चाहिए, जो शरीर में अब भी यहां-वहां हैं। ऐसी स्थिति में कोशिकाओं के नवीकरण की एक बहुत ही महत्वपूर्ण प्रक्रिया, जो उपवास के बिना शुरू नहीं होती, अपने आप शुरू हो जाती है।
 
प्रो. मिशाएलसन का कहना है कि 'इसी कारण हमारी सोच के विपरीत (भले ही कुछ कम) पर नियमित रूप से हर दिन खाते रहना स्वास्थ्य के लिए हितकारी नहीं है। अपने शोध के आधार पर हम यही कहेंगे कि हमें सामान्य मात्रा में या उतना ही खाना चाहिए जितना स्वादिष्ट लगे। लेकिन बीच-बीच में अंतराल का एक ऐसा समय भी रखना चाहिए जिसके दौरान हम कुछ भी नहीं खाएं।'
 
बुढ़ापा टलता है, आयु बढ़ती है : उपवास वाले अंतराल में हमारी कोशिकाओं के भीतर अपने आप जो प्रक्रिया चल पड़ती है, उसे 'ऑटोफ़ैजी' या 'ऑटोफ़ैजोसाइटोसिस' (Autophagy/ Autophagocytosis) कहा जाता है। यह कोशिका-नवीकरण की एक ऐसी 'रिसाइकलिंग' प्रक्रिया है जिसमें शरीर की कोशिकाओं को जब यह संकेत मिलता है कि भोजन से मिलने वाली कैलरी की तंगी है तो वे अपने क्षतिग्रस्त हिस्सों या पुरानी दोषपूर्ण प्रोटीनों आदि को हटाते-खपाते हुए या तो अपना नवीकरण करने लगती हैं या नई कोशिकाओं के लिए जगह बनाती हैं। इससे बुढ़ापा आने की गति घटती है और हमारी आयु बढ़ती है।
 
'ऑटोफ़ैजी' की कार्यविधि का पता लगाने वाले जापान के योशिनोरी ओसुमी को इसी कारण 2016 में नोबेल पुरस्कार मिला था। 'ऑटोफ़ैजी' वाली 'रिसाइकलिंग' के कई फ़ायदे हैं। कोशिकाओं में कई ऐसे जीन सक्रिय हो जाते हैं, जो पहले निष्क्रिय थे। वे ऐसे नए प्रोटीन बनने लगते हैं, जो आयु बढ़ाने में सहायक होते हैं। 'ऑटोफ़ैजी' बहुत चमत्कारिक है।
 
ऑस्ट्रिया में ग्रात्स के आणविक जीव विज्ञान संस्थान में इस बारे में और अधिक अध्ययन के लिए 90 लोग चुने गए। उन्हें 3 ग्रुपों में बांटा गया। 30 लोग ऐसे थे, जो पहले से ही उपवास किया करते थे। दूसरे 30 हमेशा 1-1 दिन का अंतर रखकर 1 दिन खाते और 1 दिन उपवास करते थे। अंतिम 30 लोगों का ग्रुप ऐसा था, जो पहले की ही तरह हर दिन बिना किसी उपवास के अपना सामान्य भोजन लेता रहा।
 
इम्यून सिस्टम के लिए भी उपवास लाभदायी है : इस अध्ययन में 3 मुख्य प्रश्नों पर ध्यान दिया गया- पहला यह कि उपवास वाले और बिना उपवास वाले दिन शरीर की चयापचय (मेटाबॉलिज़्म) क्रिया में क्या होता है? इसमें इन्सुलिन का बनना-न-बनना और शर्करा (शुगर) की मात्रा भी शामिल है। दूसरा यह कि हृदयगति और रक्त संचार की स्थिति कैसी रहती है? और तीसरा यह कि रोग प्रतिरक्षण प्रणाली (इम्यून सिस्टम) की वे कौन-सी कोशिकाएं हैं और उनके जीनों की प्रोग्रामिंग कैसी है, जो शरीर की ख़राब या क्षतिग्रस्त कोशिकाओं के विघटन द्वारा नवीकरण की क्रिया शुरू करती हैं? यानी हमारे रोग प्रतिरक्षण तंत्र और कोशिका नवीकरण के लिए भी उपवास बहुत ही लाभदायक है।
 
ऑस्ट्रिया में ग्रात्स के आणविक जीव विज्ञान के इस संस्थान में 2015 से उपवास के लाभों को जानने के अध्ययन हो रहे हैं। परिणाम अब तक बहुत ही उत्साहवर्धक रहे हैं। तब भी उपवास के हर पक्ष को और अधिक गहराई से समझने के विचार से मधुमेह (डायबिटीज) के एक नए अध्ययन की तैयारी भी शुरू हो गई है। मधुमेह की गुत्थी समझने में लगे टोमास पीबर का मानना है कि उन्हें एक ऐसी कुंजी मिल गई है 'जिससे उपवास द्वारा मधुमेह की रोकथाम संभव हो सकती है।'
 
शरीर हमारी सोच से कहीं अधिक होशियार : टोमास पीबर के अनुसार 'हमारा शरीर उससे कहीं अधिक होशियार मालूम पड़ता है जितना हम पहले सोच रहे थे। वह अपनी चयापचय क्रिया को खुद ही नियंत्रित कर सकता है। मूल समस्या शायद यह नहीं है कि हम खाते बहुत हैं बल्कि यह है कि हम हर दिन, सुबह नाश्ता तो दोपहर तथा शाम को भी कुछ-न-कुछ खाते रहते हैं।
 
कभी कुछ नहीं खाएं या नियमित रूप से पूरे दिन उपवास रखा करें तो हमारी चयापचय क्रिया इतनी बेहतर हो सकती है कि मधुमेह की बीमारी पास फटके ही नहीं।' पूरे दिन से उनका तात्पर्य है कि हर सप्ताह कम से कम पूरे 1 दिन यानी 24 घंटे तक कुछ नहीं खाना, उपवास करना। पानी ज़रूर पीना चाहिए और आराम भी करना ही चाहिए, पर चीनी वाली मीठी चीज़ों से दूर रहना चाहिए।
 
भारत में हम अक्सर सुनते हैं  कि हमारे ऋषि-मुनि जंगलों-पहाड़ों में रहते और शतायु होते थे। उस समय की वर्णाश्रम प्रथा के अनुसार वानप्रस्थ आश्रम वनों में रहने और ध्यान-तपस्या करने का जीवनकाल होता था। ध्यान-तपस्या का अर्थ ही है उपवास करना। शायद इसीलिए वे निरोग रहकर शतायु बनते थे। पश्चिमी जगत भारत की इस प्राचीन प्रथा से अनजान है इसलिए उपवास संबंधी अपनी व्याख्या के लिए वह विकासवाद के सिद्धांत (इवैल्यूशन थ्योरी) का सहारा लेता है।
 
विकासवाद का सिद्धांत : इस सिद्धांत के अनुसार पृथ्वी पर जीवन विकसित होने की प्रक्रिया के दैरान अन्य जीव-जंतुओं की तरह मनुष्यों को भी अक्सर ऐसे समयों से गुज़रना पड़ा है, जब ख़राब मौसम, सूखे, अकाल या असफल शिकार के कारण कई-कई दिन भूखे रहना पड़ता था।
 
खेती करना क़रीब 12 हज़ार वर्ष पहले शुरू हुआ था। खेती भी सब जगह और पूरे वर्ष हो नहीं सकती थी। अकेले खेती के भरोसे जीना भी संभव नहीं था। हमारे पूर्वजों के ये अनुभव 20 लाख वर्ष पूर्व बनना शुरू हुए हमारे जीनों में अब भी मौजूद हैं। उपवास करना हमारे जीनों में सोए हुए इन्हीं पुराने अनुभवों को जगाने के समान है।
 
हमारे समय की आधुनिक बीमारियों में कैंसर का अपना अलग ही आतंक है। ऑस्ट्रिया में ग्रात्स के आणविक जीव विज्ञान संस्थान के एक दूसरे वैज्ञानिक अन्द्रेयास प्रोकेश की टीम जानना चाहती है कि उपवास का क्या कैंसर के मामले में भी कोई उपयोग हो सकता है? इसके लिए एक ऐसे प्रोटीन का चयन किया गया है जिसे कैंसर संबंधी शोध में लंबे समय से 'ट्यूमर सप्रेसर' (अर्बुद प्रतिरोधक) के तौर पर देखा जाता है।
 
p53 नाम का प्रोटीन : प्रोटीनों के 'लीबिक्स मॉलिक्यूल' नाम वाले वर्ग का वह p53 प्रोटीन है। अन्द्रेयास प्रोकेश के अनुसार उनके लिए प्रश्न यह है कि विकासवाद एक 'ट्यूमर सप्रेसर' को पीढ़ी-दर-पीढ़ी आगे क्यों बढ़ा रहा है? कैंसर की बीमारियां अधिकतर ऐसी बीमारियां हैं, जो प्रजननकारी आयु के बाद होती हैं।
 
कह सकते हैं कि विकासवाद ऐसी किसी चीज़ को आगे बढ़ाने का क्रम जारी नहीं रखेगा, यदि उससे किसी प्रजाति विशेष को बनाए नहीं रखना है। एक दूसरा उत्तर यह हो सकता है कि p53 प्रोटीन के शरीर क्रिया में कुछेक ऐसे भी कार्य हैं जिनका अर्बुद-निरोध या प्रतिरोध से कोई संबंध नहीं है।
 
p53 प्रोटीन की खोज 1979 में हुई थी। वह आमतौर पर हमारे शरीर की कोशिकाओं के भीतर मिलता है और उसका संबंध कोशिका के DNA से होता है। किसी कोशिका के DNA को क्षति पहुंचने पर यह प्रोटीन-अणु सक्रिय होकर उस कोशिका को कैंसर की कोशिका बनने या मरने से रोकने का प्रयास करता है। अन्द्रेयास प्रोकेश की टीम यह जानना चाहती थी कि p53 प्रोटीन को किसी अंग की कोशिकाओं के भीतर तब भी सक्रिय कैसे किया जा सकता है, जब कैंसर का आगमन नहीं हुआ हो।
 
आहार की कमी कैंसर से बचाव के लिए उपयोगी : चूहों के साथ अन्द्रेयास प्रोकेश के प्रयोगों ने दिखाया कि आहार की कमी कैंसर से बचाव की प्रक्रिया को अपने आप सक्रिय कर देती है। अपेक्षाकृत एक लंबे समय तक कोई आहार नहीं मिलने पर चूहों के यकृत (लिवर) में p53 प्रोटीन अपने आप सक्रिय हो जाता है। 'हमारे प्रयोगों में चूहों को 24 घंटों तक जब कोई आहार नहीं मिलता था,' अन्द्रेयास प्रोकेश का कहना है, 'तब p53 का चेतावनी का अलार्म अपने रास्ते की पूरी लंबाई तक बजने लगता था।'
 
इन प्रयोगों का दूसरा भाग ऐसे चूहे थे जिनमें p53 प्रोटीन को जान-बूझकर बाधित कर दिया गया था। इन चूहों से उपवास करवाने पर देखा गया है कि उनके यकृत में चर्बी बढ़ गई थी और उनके शरीर को अमीनोएसिड तथा ग्लूकोज़ को संभालने में भारी कठिनाई हो रही थी। इसका अर्थ यही हुआ कि उपवास के दौरान शरीर के ऊर्जा-प्रबंधन के लिए p53 प्रोटीन की सक्रियता बहुत ज़रूरी है।
 
नियमित उपवास कैंसर से बचा सकता है : इन दोनों प्रकार के प्रयोगों का सार यही है कि कैंसर के अर्बुद (ट्यूमर) को रोकने वाले p53 प्रोटीन का असली काम उपवास के समय में शरीर की चयापचय क्रिया पूर्ववत चालू रखना है। यह भी कहा जा सकता है कि नियमित रूप से उपवास करने पर कैंसर के यदि सभी प्रकारों की नहीं, तब भी कुछेक प्रकारों की रोकथाम तो की ही जा सकती है। कैंसर यदि हो भी गया है, तब भी उपवास करने से उसके इलाज़ में सहायता मिल सकती है। इलाज़ यदि कीमोथैरेपी द्वारा हो रहा है, तो पहले यह देखना होगा कि कैंसरग्रस्त कोशिकाओं के p53 प्रोटीन में कहीं उत्परिवर्तन (म्यूटेशन) तो नहीं हुआ है?
 
जर्मनी में बर्लिन के शारिते अस्पताल और ऑस्ट्रिया में ग्रात्स के आणविक जीव विज्ञान संस्थान के इन अध्ययनों से इस बात की भी पुष्टि होती है कि भारत के हज़ारों वर्ष पूर्व के ऋषि-मुनि निरोग और दीर्घजीवी क्यों होते थे? उन्होंने अनेक ऐसे अवसरों और त्योहारों की रचना की, जो कि उपवास करने के सुअवसर बन गए हैं। अब तक के शोध-परिणाम ये भी दिखते हैं कि केवल कुछेक तीज-त्योहारों या रमजान के उपवासों से वे लाभ नहीं मिल सकते, जो हर सप्ताह 24 घंटे के पूरे 1 दिन के उपवास से मिल सकते हैं।
 
उपवास भी आधुनिक जीवन की एक मांग है : भारत के तपस्वियों और ऋषियों-मुनियों को जीन, जेनेटिक्स, ऑटोफ़ैजी या p53 जैसी चीज़ों का पता नहीं था। पर वे जानते थे कि तपस्या करना या भूखा रहना भी निरोग और जीवित रहने की ही एक ज़रूरत है।
 
आज हम कहेंगे कि योग-ध्यान की तरह ही उपवास भी आयु और स्वास्थ्यवर्धक आधुनिक जीवन की एक मांग है। तब भी बुद्धिमत्ता इसी में है कि नियमित उपवास शुरू करने से पहले अपने वैद्य, डॉक्टर या उपवास करने वाले किसी अनुभवी व्यक्ति से परामर्श कर लेना या उसकी देखरेख में उपवास शुरू करना बेहतर है।
 
Edited by: Ravindra Gupta
 
(इस लेख में व्यक्त विचार/ विश्लेषण लेखक के निजी हैं। इसमें शामिल तथ्य तथा विचार/ विश्लेषण 'वेबदुनिया' के नहीं हैं और 'वेबदुनिया' इसकी कोई जिम्मेदारी नहीं लेती है।)
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