चुनावी समर आरंभ हो चुका है। रणभेरी बज चुकी है। कहीं बिगुल बज रहे हैं तो कही शंखनाद हो रहा है। चारों तरफ कोलाहल है। आम मतदाता, अर्जुन की तरह किंकर्तव्यविमूढ़, अपनी शक्ति से अपरिचित रणक्षेत्र में खड़ा हुआ है। हे कृष्ण! मैं क्या करूं ? हर तरफ तो मेरे अपने हैं। किसे मत दूं और किसे नाराज करूं (किस पर शास्त्र प्रहार करूं और किसे बचाऊं) ? बेहतर है कि मैं अपने मत का प्रयोग ही नहीं करूं। मेरे अकेले के मत नहीं देने से कौनसा पहाड़ टूटेगा? मुझे इस रण क्षेत्र से बाहर निकालो। मुझे इस द्वंद्व में मत घसीटो। मैं बाहर ही ठीक हूं। मुझे अपना काम करने दो। छुट्टी का आनंद लेने दो। (पाठकों के मन में ये सहज जिज्ञासा होगी कि यह कृष्ण कौन है जिससे अर्जुन रूपी मतदाता प्रश्न पूछ रहा है। वह कृष्ण कोई और नहीं उसकी ही अंतरात्मा, उसका विवेक या उसका चंचल मन है। और सटीक उत्तर भी वही देता है। अब आगे पढ़िए)
कृष्ण उवाच :
हे मेरे प्रिय भारतवंशी, समाज में हो रहे हर अन्याय का दोष कलयुग पर ढोलने वाले भक्त, क्या तुम जानते हो कि मात्र कुछ दशकों पूर्व तक सत्ता का परिवर्तन बिना हिंसा के संभव नहीं था। द्वापर युग तो ऐसी कथाओं से भरा पड़ा है। तुम सौभग्यशाली हो कि भारत की पवित्र भूमि के उस युग में जी रहे हो, जहां शासक को बदलने के लिए रक्तपात का सहारा नहीं लेना पड़ता।
आज भी विश्व के पच्चीस प्रतिशत देशों में और दुनिया के चालीस प्रतिशत से अधिक लोगों को मताधिकार का अर्थ नहीं मालूम। ऐसे देशों में सत्ता में बैठे किसी दुराचारी का तख्ता उलटने के लिए नागरिकों को जान की कुर्बानी देनी होती है। प्रजातंत्र का मूल्य वे लोग अधिक समझते हैं जिनके भाग्य में यह नहीं है।
ऐसे लोग दुनिया में एक रोबोट की तरह जीवन जीते हैं जिसकी कुंजी उनके शासक के हाथ में होती है। जैसा उन्हें खिलाया जाता है वे खाते हैं, जैसा दिखाया जाता है वे देखते हैं, जो पढ़ाया जाता है वे पढ़ते हैं। भारत में रहकर ऐसे देशों के लोगों के दर्द की कल्पना भी नहीं कर सकते।
हे पार्थ, विधाता ने तो सभी मनुष्यों को एक जैसा बनाया किंतु मनुष्य ने ही स्वयं को रंग, वर्ण, जाति, धर्म और समाज में विभाजित कर लिया। कुछ शासक बनकर शोषक हो गए। कुछ ने अपने आप को श्रेष्ठ घोषित कर दिया और अन्य को हीन।
सौभाग्य भारतवंशियों का यह रहा कि स्वतंत्रता के बाद जिस संविधान को उन्होंने अपने आप को समर्पित किया था उसने उन्हें न केवल समान अधिकार दिए बल्कि देश और प्रदेश की शासन व्यवस्था में अपना प्रतिनिधि चुनने की आजादी दी।
चुनने के पश्चात भारतीय संस्कृति और संस्कारों के अनुसार जनता ने बड़े सम्मान के साथ अपने प्रतिनिधि को शासक का सम्मान दिया। प्रतिनिधि भी यदि संस्कारित है तो वह प्रजातंत्र की इस व्यवस्था में अपने आप को जनता का सेवक ही समझता है जिस तरह मोदीजी अपने आपको प्रधान सेवक कहते हैं।
किंतु हे अर्जुन! दुर्भाग्य से कुछ प्रतिनिधियों को जीतने के बाद शासक बनने का गुरूर हो जाता है। वे प्रजातंत्र के लिए खतरा बन जाते हैं, किंतु प्रजातंत्र में शक्ति है इस गुरूर का अंत करने की, घमंड को तोड़ने की। अनेक बार जनता ने इस शक्ति का प्रयोग किया है क्योंकि उसके पास मत के रूप में ऐसा अमोघ अस्त्र है जहां वह बैठे -बैठे प्रदेश और देश की सरकार को उलट सकती है। राजनीति किसी व्यक्ति या परिवार की जागीर न बने इसलिए हर बार जनता ऐसे प्रतिनिधियों को सड़क पर ले आती है जो उसे जागीर या धंधा बनाने की कोशिश करते हैं। प्रजातंत्र में कोई पैदाइशी शासक नहीं होता।
हे अर्जुन, तुमको जानकर आश्चर्य होगा कि आज के तथाकथित आधुनिक युग में प्रजातंत्र के साथ प्रेस की स्वतंत्रता और कानून व्यवस्था पर दुनिया भर में लगातार हमले हो रहे हैं। शासक, प्रजा के अधिकारों को कम करना चाहता है और अपने अधिकारों के दायरे में विस्तार। तुर्की और थाईलैंड जैसे देश इसके नए शिकार हैं।
एक रिपोर्ट के अनुसार पिछले वर्ष 70 देशों की जनता के राजनीतिक और सामाजिक अधिकारों में गिरावट आई है जिसमें प्रजातंत्र का चैंपियन अमेरिका भी शामिल है। और ऐसा पिछले बारह वर्षों से लगातार हो रहा है। अतः हे भारत के भाग्यविधाता, प्रजातंत्र के इस महा यज्ञ में अपने मत के रूप में आहुति दे ताकि उसकी ज्योति निरंतर प्रज्वलित रहे। अपने राष्ट्र के प्रजातंत्र को मजबूत कर।
भारत के प्रजातंत्र को परिपक्व कर ताकि कोई शासक इस पर नज़र न उठा सके। इस पर हमला न कर सके। उठ अपना गांडीव उठा, अपने मत रूपी बाण का संधान कर और अपने विवेक से लक्ष्य भेद कर। तेरी विजय ही प्रजातंत्र की विजय है और तेरी हताशा प्रजातंत्र की हार।
उत्तिष्ठ ! प्राप्य वरान्नि बोधत (इति कर्मयोग, चुनाव-गीता)