मैं दामिनी नहीं मैं 'ज्योति' की मां बोल रही हूं...
मेरा नाम आशा देवी है। मैं ही वह मां हूं जिसकी बेटी 16 दिसंबर, रविवार की काली रात दिल्ली में गंदी मानसिकता के लोगों की क्रूरतम तरीके से शिकार हुई। मेरी बेटी को किसी ने दामिनी कह कर पुकारा, किसी ने उसे निर्भया नाम दिया लेकिन कई-कई नामों से नवाजी गई मेरी बेटी आज मेरे पास नहीं है। फैसले के दिन सुबह से मेरा कलेजा कांप रहा था। मेरी आंखों से नहीं हटती मेरी लाड़ली की सूरत।
सारे देश को जगाने वाली दामिनी पूरे देश के लिए सो गई लेकिन मेरे दिल में जिंदा है। आपको याद होगा 16 दिसंबर की रात 9 बजे दामिनी ने द्वारका के महावीर एन्क्लेव के लिए बस पकड़ी थी। यह वही जहरीली बस थी जिसमें उसके साथ 6 दरिंदों ने दुष्कृत्य किया था। उसके साथ घिनौनेपन की, विभत्सता की सारी सीमाएं लांघ दी थी।
उसकी देह में जंग लगी लोहे की रॉड डाली गई थी.. सोचकर भी आत्मा कांप उठती है कि कैसे कर पाए होंगे वे इतना घृणित कार्य... कैसे सहा होगा मेरी बेटी ने इतनी-इतनी नृशंसता को...। कितने घिनौने होंगे वे लोग जिन्होंने मेरी बेटी के तन पर एक कपड़ा तक नहीं छोड़ा...मैं मात्र कक्षा 6 तक पढ़ी हूं। 22 साल की उम्र में मेरा विवाह हुआ। शादी के 3 वर्ष बाद 10 मई को दामिनी हुई। देहरादून में रह कर दामिनी ने फीजियोथेरेपी की पढ़ाई की। जिस दिन मुझे पता चला कि मेरी बेटी के साथ यह सबकुछ हुआ है मेरे दिमाग ने काम करना बंद कर दिया। दामिनी के कई ऑपरेशन हुए। कई जगह से शरीर खुला पड़ा था। हर तरफ नलियां लगी थी। अंतिम वक्त में वह मुझसे कहती रही कुछ खाने का मन है पर मैं उसे कुछ ना दे सकी... आज मैं हर दिन अकेली होती जा रही हूं.. टूटती और बिखरती जा रही हूं...। क्या कोई समझ सकेगा मेरा भीषण दर्द....
दामिनी की खाली आंखें मेरी आंखों के सामने थिरक उठती है और मेरा मन कहता है कि मैं चीखूं जोर से और प्रश्न करूं सबसे क्या गुनाह था मेरी बेटी का..क्यों न्याय की राह में इतनी रूकावटें हैं जबकि कहने को पूरा देश हमारे साथ है.... अपराधियों को दंड मिले एक मां होने के नाते क्या यह आशा भी मैं नहीं कर सकती?
मैं दामिनी की मां बोल रही हूं... आप सुन रहे हैं तो आज न्याय-अन्याय के फैसले में मेरा साथ दीजिए.. आज अगर न्याय मेरी बेटी के साथ नहीं हुआ है तो दुनियाभर की कई-कई 'आशाएं' टूट गई हैं। नाबालिग रिहा हो रहा है। जिसने सबसे ज्यादा विभत्सता दिखाई वही हमारे देश के कानून की नजर में उतना दोषी नहीं है। उसे सुधरने का मौका दिया जा रहा है। महिला सुरक्षा का दम भरने वाले कुछ बड़े 'नाम' उसे 10 हजार रुपए और सिलाई मशीन दे रहे हैं। कैसा है यह मेरा देश, मेरे देश का कानून, मेरे देश के नेता और मुझे सब कुछ सहन करना है। क्या हम थोड़े असहिष्णु हो सकते हैं? अपनी देश की बेटी के नाम पर...एक मां के केलेजे के छलनी हो जाने पर.... सुनिए, मैं दामिनी नहीं मैं 'ज्योति' की मां बोल रही हूं.... मैं चाहती हूं उसे पुकारा जाए उसके ही नाम से क्योंकि उसने कोई अपराध नहीं किया था।
मैं टूट गई हूं यह सुनकर कि कानून की नजर में वह 'बच्चा' है उसे गिरफ्त में नहीं रखा जा सकता। इतना बच्चा कि वह नहीं जानता कि अपराध क्या होता है, कैसे होता है, उस रात क्या हुआ था उसे कुछ नहीं पता... गलती से हो गया था या गलती से हो गया होगा। मगर सच खामोश नहीं हो सकता। कुछ और कहता है, चीखता है हमारे कानों में कि वह उतना बच्चा भी नहीं था जितना उसे कानून मान रहा है। मानसिक तौर पर पर वह जानता था कि बलात्कार क्या होता है, कैसे किया जाता है, शराब क्या होती है उसे पी कर क्या किया जाता है? वह हर घिनौनी हरकत को अंजाम देना जानता था। उसी ने सबसे ज्यादा नीचता और बर्बरता की थी।
जिसने सबसे ज्यादा निर्ममता और निकृष्टता की थी इस देश का कानून उसे ही सुधारना चाहता है, उसका समाज में योगदान चाहता है, चाहता है वह मुख्य धारा से जुड़े। क्या इस देश के कानून की इस देश की बेटी के प्रति कोई जिम्मेदारी नहीं बनती? उस मां के लिए इस देश के कानून में कुछ नहीं लिखा? अगर नहीं लिखा है तो क्या लिखा भी नहीं जा सकता, बदला भी नहीं जा सकता? इसी देश में एक गंदा और गलत काम करने वाला कानून की आड़ लेकर खुला घुम सकता है और इसी देश में जिसके साथ गलत हुआ है वह बेबस है, असहाय है। अगर आज दामिनी नहीं ज्योति जिंदा होती तो क्या सोचती अपने देश के बारे में, अपने देश के कानून के बारे में....न्याय क्या होता है अगर वह पूछती मुझसे तो क्या समझाती मैं उसे... ?