मंगलवार, 24 दिसंबर 2024
  • Webdunia Deals
  1. सामयिक
  2. विचार-मंथन
  3. विचार-मंथन
  4. Corona virus lockdown in india
Written By Author श्रवण गर्ग
Last Updated : बुधवार, 8 अप्रैल 2020 (17:22 IST)

क्या बात है हम जो छुपा रहे हैं?

क्या बात है हम जो छुपा रहे हैं? - Corona virus lockdown in india
लंबे समय तक चल सकने वाले लॉकडाउन के दौरान हमें इस एक संभावित ख़तरे के प्रति भी सावधान हो जाना चाहिए कि अपने शरीरों को ज़िंदा रखने की चिंता में ही इतने नहीं खप जाएं कि हमारी व्यक्तिगत और सामूहिक आत्माएं और आस्थाएं ही मर जाएं और हमें आभास तक न हो। ऐसा होना सम्भव है।

महायुद्धों की विभीषिकाओं के बाद लोग या तो हर तरह से कठोर हो जाते हैं या फिर पूरी तरह से टूट जाते हैं। हमें बताया गया है कि हम इस समय महाभारत जैसे ही युद्ध में हैं और उसे तीन सप्ताह में जीत कर दिखाना है। हमने चुनौती स्वीकार भी कर ली थी। तीन सप्ताह का समय भी अब ख़त्म होने को है।
 
सोचते रहना ज़रूरी हो गया है कि हमें अब जब भी 'बंदीगृहों' से बाहर निकलने की इजाज़त मिले तो सब कुछ बदला-बदला सा तो नहीं मिलने वाला है? मसलन, हम अभी ठीक से ध्यान नहीं दे पा रहे होंगे कि बच्चों की उम्र कुछ ज्यादा ही तेज़ी से बढ़ रही है और वे भी हमारी ही तरह से चिड़चिड़े या चिंतित होते जा रहे हैं! दूसरी ओर, घर के बुजुर्ग बच्चों की तरह होकर हमारी तरफ़ कुछ ज़्यादा ही देखने लगे हैं!
 
 हमें अभी ठीक से पता नहीं है कि सरकार के अलावा इस बात के कि हमारे यहां के मृतकों के आंकड़े दूसरे मुल्कों के मुक़ाबले सबसे कम होने चाहिए ताकि अपनी व्यवस्था का परचम दुनिया में लहरा सकें, क्या अपने नागरिकों को और ज़्यादा आज़ादी देने अथवा उन पर और अंकुश लगाने पर विचार कर रही है।

हमने इस तरफ़ तो बिलकुल भी नहीं सोचा होगा कि पिछले 6 सालों में ‘सरकार ‘को भी पहली बार इतना लंबा ख़ाली वक्त मिला है कि युद्धक्षेत्र की स्थिति वह खुद देख सके - कोरोना जीत रहा है कि नागरिक ?
 
महाभारत के युद्ध में 47 लाख से ज़्यादा योद्धाओं ने अनुमानित तौर पर भाग लिया था और धर्मराज युधिष्ठिर सहित केवल 12 लोग ही अंत में बच पाए थे। हमें ज़्यादा पुष्ट जानकारी नहीं है कि लाखों वीर योद्धाओं का अंतिम संस्कार और उनकी अस्थियों का विसर्जन कैसे और कहां हुआ होगा।

जो कुरुक्षेत्र अभी दुनियाभर में जारी है उसमें अपने प्रियजनों को दफ़नाने के लिए ज़मीन और कफ़न ढूंढे जा रहे है और प्रतीक्षा में लाशों के ढेर अस्पतालों के मुर्दाघरों में कैद हैं। इसी प्रकार, हमारे यहां भी अस्थि कलश मुक्तिधामों पर नाम पट्टिकाओं के साथ लॉकडाउन में हैं।

बहुत सारे लोगों को बहुत सारे काम करना है। ठीक से शोक व्यक्त करना है। पवित्र नदियों की तलाश करना है। अस्थियों का विसर्जन सम्मानपूर्वक करना है। सबसे बढ़कर यह कि जी भर कर रोना है, आंसू बहाना है।

हमने ध्यान ही नहीं दिया होगा कि इस बार मारने वालों में स्पेन की राजकुमारी भी हैं, बीमार पड़ने वालों में ब्रिटेन के राजकुमार भी हैं और गहन चिकित्सा इकाई में भर्ती होने वालों में वहां के प्रधानमंत्री भी हैं। महामारी ने सबको बराबर कर दिया है। 
 
हम सोच नहीं पा रहे हैं या फिर जान-बूझकर सोचने से कतरा-घबरा रहे हैं कि जब हम सड़कों पर अंततः
 उतरेंगे तो एक-दूसरे के साथ किस तरह का व्यवहार करेंगे? क्या हम अपने ‘होने’ की ख़ुशी मनाएंगे या फिर वे सब जो हमारे बीच से अनुपस्थित हो गए हैं, उनकी याद में एक नई मोमबत्ती जलाएंगे? 
क्या एक इंसान और दूसरे के बीच आज जो 6 कदमों का जो फ़ासला है वही क़ायम रहेगा कि लोग आपस में गले भी लगेंगे? क्या समुदाय-समुदाय के बीच इस दौरान पैदा की गई दूरियां टूटेंगी या फिर वे नंगी और बेजान दीवारों में तब्दील हो जाएंगी? क्या हम ज़्यादा बेहतर इंसान होकर इस भट्टी से निकलेंगे या कि बार-बार घरों की ओर लौटकर दरवाज़े-खिड़कियां फिर से बंद करने बहाने ईज़ाद करेंगे? 
 
और अंत में यह कि लॉकडाउन बढ़ाने को लेकर लिए जाने वाले फ़ैसलों को हमारी मौन स्वीकृति कहीं केवल इसलिए तो नहीं है कि हमें जो कुछ भी सोचना चाहिए उसके बारे में सोचकर भी घबरा रहे हैं? (लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं और विभिन्न समाचार पत्रों में संपादक और समूह संपादक रह चुके हैं।)