देश की सबसे पुरानी और देश पर सबसे लंबे समय तक शासन करने वाली कांग्रेस पार्टी इन दिनों अपने जीवन के सबसे चुनौतीभरे दौर से गुजर रही है। देश की आजादी के बाद लगभग चार दशक तक (ढाई साल के जनता पार्टी के दौर को छोडकर) केंद्र के साथ ही देश के अधिकांश राज्यों में लगभग निर्बाध रूप से सत्ता पर काबिज रही यह पार्टी आज केंद्र शासित प्रदेश समेत महज पांच अपेक्षाकृत छोटे राज्यों में सिमटकर रह गई है।
लोकसभा में उसकी सदस्य संख्या महज 44 है। उत्तर भारत के दो सबसे बड़े सूबों उत्तर प्रदेश और बिहार में वह करीब तीन दशक से हाशिए पर है। इस दारुण अवस्था में उसके पहुंचने की सबसे बड़ी वजह है उसके पारंपरिक समर्थक जातीय और सामुदायिक वर्गों का उससे छिटकना।
एक समय था जब दलित, आदिवासी, मुस्लिम, ब्राह्मण और कुछ अन्य पिछड़े समुदाय उसकी राजनीतिक शक्ति के मुख्य स्रोत हुआ करते थे। इन्हीं समुदायों से मिलने वाले समर्थन के बूते वह देश पर और देश के विभिन्न राज्यों की सत्ता पर काबिज थी।
देश की राजनीति में जो अखिल भारतीय रुतबा कभी कांग्रेस का हुआ करता था, वह अब भाजपा का है। जिन-जिन सूबों में कांग्रेस और भाजपा के बीच सीधे मुकाबले की स्थिति है, वहां दलित, आदिवासी, ब्राह्मण और अन्य पिछड़ी जातियां अब भाजपा के साथ हैं। मुसलमान जरूर विकल्पहीनता के चलते आधे-अधूरे मन से कांग्रेस के साथ हैं, लेकिन वह भी सिर्फ वहां-वहां पर ही, जहां कांग्रेस का सीधा मुकाबला भाजपा से है।
सवाल यह है कि कांग्रेस का मुसलमानों के रूप में सबसे विश्वसनीय जनाधार उससे क्यों छिटक रहा है या मन मसोसकर उसके साथ बना हुआ है? दरअसल इस स्थिति की सबसे बड़ी वजह यह रही कि कांग्रेस ने हमेशा ही मुसलमानों को वोट बैंक से ज्यादा कुछ नहीं समझा। इसका नतीजा यह हुआ कि आज हमारे राष्ट्रीय जीवन में मुसलमानों की स्थिति कई मायनों में तो दलितों और आदिवासियों से भी बदतर है।
दलितों और आदिवासियों को तो संसद और विधानमंडलों में उनकी आबादी के अनुपात में आरक्षण मिला हुआ है, लेकिन मुसलमानों के साथ ऐसा नहीं है। आजादी के बाद से लेकर अब तक लोकसभा और राज्यों की विधानसभाओं में कभी भी मुसलमानों को उनकी आबादी के अनुपात में प्रतिनिधित्व नहीं मिला। यही हाल राज्यसभा, विधान परिषदों, नगरीय निकायों, जिला परिषदों और पंचायतों का भी है। हर जगह मुसलमानों का प्रतिनिधित्व लगातार कम होता जा रहा है।
राजनीतिक रूप से ही नहीं, बल्कि आर्थिक, सामाजिक, शैक्षणिक क्षेत्र में भी मुसलमानों की स्थिति बहुत अच्छी नहीं कही जा सकती। हालांकि इन क्षेत्रों में उनके पिछड़ेपन के लिए ऐतिहासिक कारण भी जिम्मेदार हैं। दरअसल, जब देश का बंटवारा हुआ तब मुसलमानों का जो संपन्न, मध्यवर्गीय और पढ़ा-लिखा तबका था, उसका काफी बड़ा हिस्सा पाकिस्तान चला गया। जिन मुसलमानों ने पाकिस्तान न जाकर अपने मुस्तकबिल को भारत से जोड़ते हुए यहीं रहने का फैसला किया, उनमें ज्यादातर वे ही थे जो खेती, दस्तकारी और कारीगरी जैसे पारंपरिक उद्योग-धंधों से जुड़े थे या अन्य कामों में मेहनत-मजदूरी कर अपना जीवन-यापन कर रहे थे।
बंटवारे के बाद सरकारों की ओर से भी ऐसे कोई संजीदा प्रयास नहीं किए गए जिससे कि हिंदू या अन्य समुदायों की तरह मुसलमानों में भी मध्य वर्ग विकसित होता या उनमें शिक्षा का स्तर सुधर सकता। मुसलमानों के स्वार्थी और दकियानूसी नेतृत्व वर्ग की ओर से भी इस दिशा में कुछ करने की कोशिश तो दूर, सोचने तक की जहमत नहीं उठाई गई। आम मुसलमान को हमेशा उर्दू, मस्जिद, शरीअत जैसे भावुक मसलों में उलझाकर रखा गया। रही सही कसर समय-समय पर यहां-वहां होने वाले सांप्रदायिक दंगों ने पूरी कर दी।
आज हालात यह हैं कि सभी स्तर की सरकारी नौकरियों, चाहे प्रशासनिक सेवा हो, पुलिस हो, न्यायिक सेवा हो, विदेश सेवा हो या अन्य स्तर की दूसरी सरकारी सेवाएं हों, सभी में मुसलमानों की हिस्सेदारी नगण्य ही है। यही हाल सहकारिता और निजी क्षेत्र के प्रतिष्ठानों का भी है। मीडिया में तो हालत बेहद दयनीय है। मुसलमानों की आर्थिक स्थिति का अध्ययन कर उसे सुधारने के उपाय सुझाने के लिए कांग्रेस के शासनकाल में कई समितियों का गठन भी किया। लगभग सभी समितियों द्वारा जुटाए गए आंकड़ों पर आधारित निष्कर्ष का संकेत यही रहा कि केंद्र और राज्य सरकारों की नौकरियों, सार्वजनिक प्रतिष्ठानों, स्थानीय निकायों और निजी उद्योग-व्यापार के क्षेत्र में मुसलमानों की स्थिति दलितों से भी बदतर है। कहने की आवश्यकता नहीं कि इसके लिए कांग्रेस ही सबसे ज्यादा जिम्मेदार है।
मुसलमानों को अपनी इस हालत के बावजूद तुष्टिकरण के आरोप का यह दंश लगातार झेलना पड़ता है कि कांग्रेस के शासनकाल में उन्हें जरुरत से ज्यादा रियायतें दी गईं और उनकी हर जायज-नाजायज मांगें पूरी की गईं। यही नहीं, अगर मुसलमान अपने साथ सामाजिक-प्रशासनिक स्तर पर होने वाले भेदभाव या ज्यादती को लेकर कुछ शिकायत करते हैं तो उन्हें यह उलाहना भी सुनने को मिलता रहता है कि वे यहां क्यों रह रहे हैं, पाकिस्तान क्यों नहीं चले जाते। उनकी आबादी को लेकर भी मनमाने आंकड़े पेश कर उन्हें बदनाम किया जाता है और हिंदुओं में यह काल्पनिक भय भरा जाता है कि मुसलमान जल्द ही इस देश में बहुसंख्यक हो जाएंगे। पिछले तीन-चार वर्षों से तो उन्हें कभी लव जिहाद के नाम पर तो कभी गौ-हत्या को लेकर लांछित और परेशान करने का सिलसिला जारी है।
इतना सब होने के बावजूद कांग्रेस मुखर होकर उनके समर्थन में आगे आने से बचने की कोशिश करती नजर आ रही है। कांग्रेस का नया नेतृत्व यानी राहुल गांधी तो अपने पूर्ववर्तियों से भी ज्यादा भीरू नजर आते हैं। वे भाजपा की चुनौती का मुकाबला उसी के अंदाज में करना चाहते हैं। अति-उत्साही बड़बोले नेताओं, अमीर घरानों या पार्टी के दिवंगत या रिटायर हो चुके बड़े नेताओं के बेहद अहंकारी बेटे उनकी मंडली में शामिल हैं। इनका एक बड़ा हिस्सा 'नरम हिंदुत्व' की लाइन का जबरदस्त पैरोकार बना हुआ है। कांग्रेसियों का यह वर्ग गुजरात के चुनाव अभियान के दौरान राहुल गांधी के डेढ़ दर्जन से अधिक मंदिरों में जाने को इसका आधार बना रहा है। वह गुजरात में कांग्रेस को जो सीमित और संभावनाभरी सफलता मिली है उसका श्रेय राहुल की मंदिर यात्राओं को दे रहा है, जबकि हकीकत यह नहीं है। कांग्रेस को जो कामयाबी मिली है वह मंदिर-मंदिर जाने या जनेऊ दिखाने से नहीं मिली है। उसे यह कामयाबी बुनियादी मुद्दों को उठाने और उभरते नए सामाजिक समीकरणों को साधने से मिली है।
कांग्रेस में कुछ नेताओं का मत है कि कुछ साल पहले पार्टी के वरिष्ठ नेता एके एंटनी की अगुवाई में गठित कमेटी ने भी कहा था कि देश में कांग्रेस की छवि अल्पसंख्यक यानी मुस्लिम परस्त पार्टी की बनती गई, जिससे भी काफ़ी नुक़सान हुआ। इस तरह की धारणा को पार्टी में 'अंतिम सत्य' के रूप में मान्यता दिलाने की कोशिश की जा रही है, लेकिन पार्टी में इस बात पर कोई नहीं सोच रहा है कि लगातार चुनावी हार के पीछे पार्टी की अगुवाई में कई साल तक चली सरकार की आर्थिक और सामाजिक नीतियों में वे बड़ी खामियां थीं, जिन्हें लेकर समाज में गहरी नाराज़गी पैदा हुई, जिसका भाजपा ने जमकर इस्तेमाल किया। यह सवाल भी पार्टी के रणनीतिकार की सोच के दायरे में नहीं है कि उत्तर प्रदेश और बिहार का मुसलमान पिछले तीन दशक से क्यों कांग्रेस से दूरी बनाए हुए है। उन्हें इस बात का भी इल्म नहीं है कि मध्य प्रदेश, राजस्थान, महाराष्ट्र आदि सूबों में मुसलमान सिर्फ विकल्पहीनता की मजबूरी के चलते ही अपने को कांग्रेस से जोड़े हुए हैं।
कांग्रेस को भाजपा से अगर कुछ सीखना ही है तो वह उससे संगठन कौशल सीखे, गठबंधन की राजनीति सीखे, राजनीतिक आक्रामकता सीखे, मीडिया प्रबंधन सीखे, लेकिन इस सबमें न तो कांग्रेस नेतृत्व की कोई दिलचस्पी नजर आती है और न उसकी भक्त मंडली की। दरअसल, 'नरम हिंदुत्व' और कुछ नहीं महज एक मूर्खतापूर्ण राजनीतिक टोटका और भाजपाई नौटंकी की फूहड नकलपट्टी से ज्यादा कुछ नहीं है। इस टोटकेबाजी से कांगेस अपना खोया हुआ जनाधार तो कभी हासिल नहीं कर पाएगी, उलटे खुद को न सिर्फ गांधी-नेहरू की विरासत से बल्कि अपने बचे-खुचे जनाधार से भी दूर कर लेगी।