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Written By WD

क्या वाकई हिन्दी के अच्छे दिन आने वाले हैं...

-प्रभु जोशी

हिन्दी
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पिछले दिनों से कतिपय 'हिन्दियाये' लोगों के मध्य सोशल मीडिया पर एक असमाप्त-सी निरर्थक बहस चल रही है कि इक्कीसवीं सदी के भारतीय युवाओं के हृदय सम्राट, नव-निर्वाचित प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने भारत के महामहिम राष्ट्रपति महोदय को जो प्रथम पत्र लिखा, वह हिन्दी नहीं, बल्कि अंग्रेजी में लिखा गया। इस बात से हिन्दी के भी 'अच्छे दिन आने वाले हैं' के रूपहले सपनों में डूबे कबीले को सहसा गहरी ठेस लगी।

बहरहाल, उनसे ताकीद है कि वे अभी से समुचित साहस जुटाकर रखें, क्योंकि उनके कमजोर दिल को ठेस लगने का तो यह छोटा सा श्री गणेश ही है, जबकि आने वाला समय तो कई-कई ठेसों की असमाप्त श्रृंखला से भरा हुआ होना है। इसकी एक बड़ी वजह यह है कि हमारी 'सामूहिक स्मृति' अत्यन्त दुर्बल और दरिद्र है। हमने अपने सुदूर अतीत को तो भुला ही दिया है बल्कि निकट अतीत को भी बिसरा चुके हैं। याद करिए, हमने अंग्रेजों के बर्बर साम्राज्यवाद के विरुद्ध घोषित लड़ाई को हिन्दी में लड़ा, लेकिन जैसे ही हमने आजादी पाई, अपने आजाद होने की खुशी का पहला क्षण, हमने अपने मालिकों की भाषा अंग्रेजी में ही व्यक्त किया। देश के प्रथम प्रधानमंत्री नेहरू ने हमको हमारी 'नियति' से उसी दिन 'साक्षात्कार' करा दिया कि अब भारत की प्रथम भाषा अंग्रेजी ही रहने वाली है। उन्होंने अपना पहला संबोधन, जो लोकसभा में दिया था, वह अंग्रेजी में ही था।

इतिहास बताता है कि वे तब के युवाओं के हृदय-सम्राट थे और उनकी वाणी से, आजादी के लिए लड़ने वाले युवाओं की शिराओं में बहते रक्त में, ज्वार-भाटा उठ खड़ा होता था और वे अंग्रेजी हुकूमत के खात्मे के संकल्प से भर जाते थे। कहने की जरुरत नहीं कि हमारे नए प्रधानमंत्री के हाल ही के चुनावी भाषणों से तीसरी आजादी के लिए लड़ने वाली 'मार्केट-फ्रेडली इंडिविजुअल्स' में बदल चुके युवाओं को भी ऐसी उन्मुक्त कर देने वाली ऊर्जा मिलती रही कि वे नरेन्द्र मोदी के विरुद्ध कहीं भी सामान्य-सी टिप्पणी दिखाई दे जाती तो वे अपने धारदार अपशब्दों से वार करते हुए, उसकी बोटी-बोटी कर डालते थे। चुनावों के दौरान 'जनसत्ता' में छपे लेखों पर फेसबुकिया टिप्पणियों को पढ़ते हुए, इस बात का इलहाम होता था कि हमारे युवाओं ने अंग्रेजी की गालियों के प्रत्यक्ष-निवेश से अपशब्दों के भंडार को काफी समृद्ध कर लिया है।

हिन्दी में, अब तो अपशब्दों के क्षेत्र में आत्मनिर्भरता के डंके बज रहे हैं। वैसे ओम थानवी ने उन दिनों कदाचित्‌ अपशब्दों को झेलने का सर्वाधिक नया कीर्तिमान भी बनाया है। क्योंकि उनके अखबार और उनके खिलाफ प्रेषित टिप्पणियों को पढ़ते हुए, यह सार्वदेशीय सत्य सामने आया कि हिन्दी तो काम तमाम कर दिए जाने के लिए इस्तेमाल की जाने वाली सर्वाधिक उपयुक्त भाषा है। वह तो 'फटाक-दनी' से अच्छे से अच्छे को निपटा देती है। कुल मिलाकर, कहना यही है कि हिन्दी का काम अब बस इतना भर रह गया है। उसने कमजोर और अनुवाद की हिन्दी जानने-बोलने वाले विपक्ष को निपटा दिया।

बहरहाल, यह सहज ही प्रश्‍न उठता है कि प्रतिपक्ष को निपटाने का वांछित अनुबंध पूरा करने के बाद अब हिन्दी की क्या जरूरत है? उसकी भूमिका सम्पन्न हो चुकी है। वैसे भी जिस हथियार से शत्रु को निपटाया जाता है, उसको ऐसे उपयोग के उपरांत तलघर में रख दिया जाता है। बेशक, वह चली और ऐसी चली कि किसी से कुछ करते नहीं बना। अब हिन्दी की जरूरत पांच साल बाद फिर होगी, तब तक के लिए इसे तलघर में रख दो।

प्रधानमंत्री ने अपने भाषा विवेक से उचित ही किया कि माननीय राष्ट्रपति से संवाद के लिए उन्होंने हिन्दी को हटाकर, निःशंक रूप से अंग्रेजी का उपयोग किया। यह करते हुए उन्होंने प्रथम प्रधानमंत्री नेहरू के ही पदचिन्हों पर चलने की कोशिश। अब 'निवरी' नई परंपरा शुरू करने की क्या आवश्‍यकता? बनी बनाई लकीर को बिगाड़ने से क्या लाभ? अब 'आप ही बतावैं' कि इसमें आपत्ति उठाने की बात भला क्या है? फिर भारतीय जनता पार्टी के प्रस्तावित उम्मीद्वार नरेन्द्र मोदी को प्रधानमंत्री के शीर्ष पद पर पहुंचाने में, जिस तरह से कॉर्पोरेट कंपनियों की प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष भूमिका रही, तो हमें यह भी अच्छी तरह याद रहना चाहिए कि विश्‍व को भूमंडलीकृत-व्यवस्था की छतरी के नीचे एकत्र करने के लिए अंग्रेजी ही ने तो करिश्‍माई काम किया है।

अमेरिका के फिलाडेल्फिया स्थित विश्‍व के सर्वोत्कृष्ट प्रबंधन स्कूल ने जब अमेरिकी छात्रों के लिए भारत में व्यवसाय के लिए हिन्दी जानने की अनिवार्यता को समझते हुए हिन्दी सीखने के पाठ्यक्रम को तैयार किया तो सबसे पहले भारतीय औद्योगिक अभिजन (इंडस्ट्रियल एलीट) ने यह कहकर विरोध किया कि अब जबकि पूरा भारत हिन्दी को छोड़कर पूरी तरह अंग्रेजी की तरफ कूच कर चुका है, तब हिन्दी को व्यापार-व्यवसाय के क्षेत्र में पुनर्जीवित करने की भला क्या तुक है?

यदि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने हिन्दी को तरजीह न देकर, अंग्रेजी को ही सत्ता चलाने की भाषा मान लिया है तो इसमें दिल को ठेस लगने जैसी बात क्या है? भारत में अंग्रेजी तो 'मांगे मोर' के दौर में है। फिर नरेन्द्र मोदी अभी तक जिस तरह के भारत का सपना देखते-दिखाते आ रहे हैं, उसके लिए हिन्दी को प्राथमिकता देना बाढ़ क्षेत्र में छेदवाली नाव पर सवार हो जाना है। निश्‍चय ही वे ऐसा अवैज्ञानिक फैसला नहीं करना चाहेगें। दरअसल, भारत में कारपेटोक्रेसी लगातार इस बात में लगी हुई है कि भारतीय 'स्वयमेव्‌' अपनी भाषा को छोड़ने के लिए न केवल तैयार हो जाएं बल्कि अपनी समूची सांस्कृतिक-अस्मिताओं का ही पश्चिम से विनियम कर लें।

आप देखिए कि देश के सभी टेलीविजन चैनलों पर विज्ञापन आता है, एक मोबाइल कंपनी का, जिसमें पृष्ठभूमि से एक पाटदार आवाज कहती है, 'भारत में सोचने की भाषा एक है।' बाद इसके तुरंत दृश्‍य में मोबाइल से बात करते हुए आदमी से एक अन्य ओहदेदार आदमी आकर अंग्रेजी में कुछ कहता है। ठीक इसके बाद फिर वही पार्श्‍व-स्वर, बोलता है, लेकिन दिल भी 'भाषा'। के साथ एक दृश्‍य शुरू होता है, जिसमें दो स्त्री-पुरुष चाय पी रहे हैं और परस्पर हिन्दी में बात करते हैं। कुल मिलाकर कहा जा रहा है कि हिन्दी नहाने-धोने, खाने-पीने और रोजमर्रा के बतियाने के काम की भाषा है।

यानी कि हिन्दी दिमाग की भाषा नहीं है। हिन्दी अक्षम और अविकसित बोली मात्र है, उसमें चिंतन तो छोड़िए, कार्यलयीन कामकाज भी संभव नहीं है। वस्तुतः वह विज्ञापन हिन्दी के लिए 'दिल की भाषा' जैसा विशेषण लगाकर अपनी इस धूर्तता को छुपा लेना चाहता है कि वह हिन्दी को एक लध्दड़ तथा अपर्याप्त भाषा कह रहा है। वह खुल्लम-खुल्ला हिन्दी की उसकी औकात बताना चाहता है कि वह केवल नाश्‍ता करते, चाय-पीते पिलाते हुए बोले जाने की काम चालू भाषा है। विडंबना यह कि इस कंपनी के पिछले दस साल से हिन्दी को खारिज करने के धूर्त इरादों से लबरेज विज्ञापन में 'सर जी आइडिया' देते चले आ रहे हैं और इस खोट पर कोई किसी ने आज तक आपत्ति दर्ज नहीं कराई।

बहरहाल, कहने की जरूरत नहीं कि चिंतन-क्षम हिन्दी को लम्पटों की भाषा बनाने और सिद्ध करने का सफलता के साथ काम निबटाया है, इन चुनावों ने। इन्होंने यह प्रमाणित कर दिखाया कि हिन्दी तू-तू मैं-मैं वाली एक निहायत 'गलेण्डी' भाषा है और बड़े या ओहदेदार आदमी से संवाद में इसका उपयोग निरी मूढ़ता है। यह मत भूलिए कि मंदिर तक के कीचड़ और कांटों से भरे रास्ते को पार करने के बाद, जब आप मंदिर की सीढ़ियों के पास पहुंचते हैं तो जूतेबाहर उतार देते हैं। हिन्दी की हैसियत यही है कि उसे सिर्फ चुनावी घसड़-फसड़ में चलाइए। इसका भद्रलोक में उपयोग निषिद्ध है।

अब इन हिन्दयाये लोगों को कौन और कैसे समझाए कि हो सकता हो कि अच्छे दिन आने वाले हों, लेकिन हिन्दी के बिल्कुल नहीं। लोककथाओं को सुनाने के बाद, उसके अंत के इस कथन की तरह कि 'जैसे उनके दिन फिरें' ऐसे हिन्दी के दिन भी फिरेगें। इस मोहक मुगालते में मत रहिए वर्ना थोड़ा-सा धक्का भी इतना जोर से लगेगा कि वह उनके द्वारा निर्मित भ्रम के स्थापत्य को भंग कर देगा। क्योंकि भारत की सत्ता गौरांग-प्रभुओं की भाषा के सहारे ही वंशवाद को जीवित रख पाई।

हालांकि कई लोग अटल बिहारी वाजपेयी-युग की स्मृति दिलाकर कहते भी हैं कि देखिए अटलजी ने संयुक्त राष्ट्रसंघ में हिन्दी को गुंजा दिया था। ठीक है, उन्होंने वहां हिन्दी बोली और लोगों ने इसके आनंदवाद में खूब तालियां पीटीं, लेकिन हिन्दी पांच साल तक अपना सिर ही पीटती रही। अलबत्ता, 'हिन्दी, हिंदुत्व और हिंदुस्तान' का नारा बुलंद करने वाले लोग कहीं किसी अगम्यागमन की और निकल गए और फिर वही ज्ञानगुरु आ गए, जिन्होंने प्रधानमंत्री कार्यालय को पत्र लिखकर कहा कि देश के केवल एक प्रतिशत लोग ही अंग्रेजी जानते हैं, अतः हमारे समक्ष निन्यानवे प्रतिशत को अंग्रेजी सिखाना जरूरी है। इसलिए पहली कक्षा से अंग्रेजी सिखाई जाए।

विश्‍व-बैंक और अंतरराष्ट्रीय मुद्राकोष ऋण के सहारे 'सर्वशिक्षा अभियान' आया, जो 'एजुकेशन फॉर आल' नहीं, बस 'इंग्लिश फॉर ऑल' का अघोषित अलिखित एजेंडा था। पर किसी ने देशभक्त ज्ञानगुरु सैम पित्रौदा से प्रश्‍न नहीं किया कि पैंसठ वर्षों से आप उस एक प्रतिशत को हिन्दी सिखा लेते तो यह देश भाषा के अर्थशास्त्र के जरिए, चीन से आगे होता। आज हम आए दिन यह खबर पढ़ते हैं कि भारत के बिजनेस स्कूल में ठीक वैसे ही चीन की भाषा मंदारिन के पाठ्यक्रय बनाए और चलाये जा रहे हैं, जैसे व्हार्टन प्रबंधन स्कूल ने हिन्दी सीखने की जरूरत पर जोर दिया था। यह इसलिए, क्योंकि मंदारिन उस महादेश की भाषा है, जिसकी चित्रात्मक लिपि में उन्होनें बीसवीं शताब्दी का सारा ज्ञान-विज्ञान विकसित किया और इस समय वह विश्‍व की बड़ी अर्थव्यवस्था है।

अगर पचपन करोड़ द्वारा हिन्दी बोली जाने वाली इस भाषा को सत्ता ने व्यवसाय से जोड़ दिया होता तो आज हिन्दी अंग्रेजी से होड़ लेती हुई डॉलर कमाती, लेकिन हमारी सत्ता ने कभी इस बात पर सोचा ही नहीं, हम अभी भी बांग्लादेश, पाकिस्तान, मारीशस, श्रीलंका आदि मुल्कों से ही हिन्दी में व्यापार व्यवसाय शुरू कर दें तो भी हिन्दी के दिन फिर सकते हैं। लेकिन कॉर्पोरेट-कंपनियों के सहयोग से ही जब हम जीवनशैली, भाषा भोजन, शिक्षा और हमारी पूरी अर्थव्यवस्था ही तय होना है तो भाषा के दिन कहां से फिरेगें? बल्कि हम थोड़ी ही कालावधि के बाद 'नियति से साक्षात्कार' करेंगें कि हिन्दी देश के कोने-कोने और सत्ता के द्वारों पर पागलों की तरह भटकती हुई पूछती-फिरती बरामद हो रही है कि मेरे 'अच्छे दिन' कब आएंगे? अभी हिन्दी इसलिए भी दिखाई दे रही है कि भारत अभी पूरी तरह भूमंडलीकृत नहीं हुआ है। बाद इसके तो ये सारे प्रश्‍न ही स्वाहा हो जाएंगे। क्योंकि हम अपनी अस्मिताओं को बदलकर उनकी तीसरे दर्जे की घटिया प्रतिकृति में बदल चुके होंगे।