भारत की अर्थव्यवस्था को जिस आपाधापी के साथ नकदीमुक्त व्यवस्था में बदला जा रहा है, उसमें असुरक्षापूर्ण अव्यवस्था की भी कुछ कम गुंजाइश नहीं छिपी है। नोटबंदी की घोषणा करते समय कहा गया कि इससे कालाधन और जाली नोट छूमंतर हो जाएंगे। अर्थव्यवस्था सरपट दौड़ने लगेगी। आम आदमी चहकने लगेगा।
लेकिन जब बैंकों के आगे अंतहीन कतारें लगने लगीं, लोग चहकने के बदले नोटबंदी के नाम से ही चिढ़ने लगे तो कहा जा रहा है कि हमें पश्चिम के उन्नत देशों की तरह बिना नकदी के लेन-देन करना चाहिए। पर्स या बटुए का स्थान अब क्रेडिट-डेबिट कार्ड या मोबाइल फोन को मिलना चाहिए।
पर भारत जैसे विशाल देश में, जहां एक-तिहाई जनता अब भी निरक्षर है और 90 प्रतिशत से अधिक लेन-देन नकद-नारायण से होता है, यह क्रांति क्या बिना किसी भ्रांति के संभव है? सरकार और रिजर्व बैंक के अब तक के 60 अलग-अलग निर्देश भी यही दिखाते हैं कि इस आकस्मिक क्रांति को लेकर भ्रांति भी कुछ कम कम नहीं है! देखते हैं नकदीमुक्त लेन-देन के अगुआ पश्चिम के कुछ प्रमुख देशों के अनुभव क्या हैं।
स्वीडन का लंबा अनुभव : उत्तरी यूरोप का स्वीडन नकदीमुक्त समाज बनाने में विश्व में सबसे आगे है। वह यूरोपीय संघ का सदस्य तो है, किंतु संघ की साझी मुद्रा यूरो के बदले अभी भी अपनी पारंपरिक मुद्रा ‘क्रोना’ (क्रोन या अंग्रेजी में क्राउन) से ही चिपका हुआ है। वहां का केंद्रीय बैंक ‘स्वेरिजेस रिक्सबांक’ (स्वीडिश नैशनल बैंक) संसार का सबसे पुराना मुद्रा बैंक है। संसार का पहला बैंक-नोट उसी ने 1661 में जारी किया था।
पिछले करीब 2 दशकों से स्वीडन का समाज स्वेच्छा से नकदीमुक्त होता जा रहा है। रिक्सबांक का कहना है कि 2015 में वहां हुए सारे लेन-देन में नकदी का हिस्सा केवल 2 प्रतिशत था। आने वाले कुछ सालों में यह घटकर केवल 0.5 प्रतिशत रह जाने की संभावना है। फुटकर लेन-देन में भी केवल 20 प्रतिशत नकद पैसा हाथ बदलता है। 5 साल पहले यह अनुपात 50 प्रतिशत हुआ करता था।
पूरे विश्व के स्तर पर नकद लेन-देन का अनुपात इस समय 75 प्रतिशत है। भारत की तुलना में स्वीडन बहुत छोटा देश है। जनसंख्या मुश्किल से 1 करोड़ है- मुंबई या दिल्ली की अपेक्षा आधी, पर जीवनस्तर बहुत ऊंचा और साक्षरता शत-प्रतिशत है।
वहां हर कोई कहता मिलेगा कि ‘मैं तो अब नकद पैसा साथ रखता ही नहीं। जरूरत ही नहीं पड़ती। दुकानें नकदी नहीं चाहतीं। बैंकों में नकदी नहीं होती। चाय-कॉफी या अखबार-टॉफी के लिए भी अदायगी किसी कार्ड या मोबाइल फोन से की जाती है। ट्रेन राम या बस का टिकट भी कार्ड या मोबाइल फोन से ही मिलता है।’यहां तक कि देश के सभी बैंकों की कुल लगभग 1,600 शाखाओं में से 900 न तो नकदी लेती हैं और न ही देती हैं। नकदी देने वाली जो गिनी-चुनी एटीएम मशीनें कहीं दिख जाती हैं, वे देश के 5 बड़े बैंकों की एक साझी कंपनी ‘बांकोमाट’ ने लगाई हैं।
मोबाइल लेन-देन का फैशन : अब तक सबसे अधिक भुगतान किसी न किसी कार्ड द्वारा होता था, लेकिन अब मोबाइल फोन से लेन-देन का फैशन तेजी से बढ़ रहा है। देश के प्रमुख बैंकों ने मिलकर ‘स्विश’ (Swish) नाम का एक ऐसा साझा एप बनाया है, जो स्मार्टफोन वालों के बीच तेजी से लोकप्रिय हुआ है। बताया जाता है कि स्वीडन की आधी जनता अब बैंक और भुगतान संबंधी अपने सारे काम ‘स्विश’एप की सहायता से ही निपटाती है।
सड़कों पर की छोटी-मोटी दुकानें चलाने वालों से लेकर पत्र-पत्रिकाएं बेचने वाले बेघर लोग ‘ईत्सेटल’(iZettle) नाम की हल्की और सस्ती युक्ति का उपयोग करते हैं। विशेष तौर पर छोटे व्यापारियों और अकेले धंधा करने वालों के लिए बनी इस युक्ति में विक्रेता अपने मोबाइल फोन को ‘ईत्सेटल’ नाम के एक विशेष एप से लैस करता है और उसे ग्राहक का क्रेडिट या डेबिट कार्ड पढ़ने वाले एक मिनी कार्डरीडर से जोड़कर बेची गई वस्तु की कीमत अपने नाम दर्ज कर लेता है।
इलेक्ट्रॉनिक धोखाधड़ी में हुई भारी वृद्धि : नकदीमुक्त लेन-देन से स्वीडन में बैंक-डकैती की घटनाएं 2008 में 110 से घटकर 2012 में केवल 5 रह गई थीं। दूसरी ओर 2014 तक बैंक-खातों में सेंधमारी (हैकिंग) जैसे ‘इलेक्ट्रॉनिक धोखाधड़ी’ के मामले 1 ही दशक में बढ़कर 1,40,000 हो गए थे, जो प्रतिवर्ष औसतन 14,000 मामलों के बराबर हैं। यह आंकड़ा इस बीच और भी बढ़ गया होना चाहिए। इस बढ़ोतरी के पीछे कारण शायद यह है कि अपराधियों को अब घर से बाहर जाने और किसी को लूटने-धमकाने की जरूरत ही नहीं रही। वे घर बैठे अपने कम्प्यूटर के द्वारा (या घर से बाहर अपने टैबलेट या मोबाइल फोन के द्वारा) बैंकों या खाताधारकों को चकमा देकर धन लूटते हैं। वे इसके लिए ऑनलाइन या मोबाइल बैंकिंग करने वालों के कम्प्यूटर, राउटर या फोन में किसी वाइरस के जरिए सेंध लगाकर उनके एकाउंट और पिन नंबर जान लेते हैं और उनके खातों से पैसा उड़ा लेते हैं। न तो खाताधारियों को तुरंत इसकी कोई भनक मिलती है और न बैंक को। जरूरी नहीं कि ऐसे अपराधी स्वीडन में ही कहीं बैठे हों। वे दुनियाभर में कहीं भी हो सकते हैं और शायद ही कभी पकड़ में आते हैं।
दूसरी बड़ी समस्या यह है कि नकदीमुक्त हर छोटा-बड़ा लेन-देन तुरंत दर्ज होते रहने और हर बार किसी पदचिन्ह जैसे उसके डिजिटल-निशान बनते रहने से स्वीडन के जनसाधारण की निजता तो वित्तीय मामलों में खत्म होती जा रही है, लेकिन डेटा के इतने बड़े अंबार में इलेक्ट्रॉनिक सेंधमारों का सुराग ढूंढना बेहद मुश्किल होता जा रहा है। नकदी रखने और गिनने के अभ्यस्त बड़े-बूढ़ों इन आधुनिक तकनीकों को अपनाने में जो परेशानी होती है, सो अलग से।
नकदी से मुक्ति है निजता के लिए बड़ा खतरा : स्वीडन की ‘ईत्सेटल’ युक्ति के जन्मदाता याकोब दे ग्रेएर को अब स्वयं शक होने लगा है कि हर गण्य और नगण्य लेन-देन को दर्ज करते जाने वाली एक पूर्ण इलेक्ट्रॉनिक प्रणाली व्यक्ति की निजता के लिए कहीं खतरा तो नहीं बन जाएगी? इसी खतरे के डर से इंटरपोल के अध्यक्ष रह चुके और इस समय स्वीडन की सुरक्षादाता प्रइवेट कंपनियों के संघ की अध्यक्षता कर रहे ब्योर्न एरिक्ससोन ने ‘कैश अपराइजिंग’ (नकदी के लिए बगावत) नाम की एक संस्था बनाकर एक आंदोलन भी छेड़ दिया है। उनका कहना है कि नकदी पाना, रखना और कहीं भी जमा करना हर व्यक्ति का अधिकार होना चाहिए। स्वीडिश उपभोक्ताओं, पेंशनभोगियों, विकलांगों और विदेशी प्रवासियों के संघ इस आंदोलन में ‘कैश अपराइजिंग’ का पूरा साथ दे रहे हैं।
दूसरी ओर, स्वीडन के राष्ट्रीय मुद्रा बैंक ‘स्वेरिजेस रिक्सबांक’ की उपप्रमुख सेसीलिया स्किंज्स्ली ने नवंबर 2016 के मध्य में कहा कि मुद्रा बैंक अब एक डिजिटल मुद्रा प्रचलित करने की संभावनाएं तलाश रहा है। उन्होंने कहा कि हम पता लगा रहे हैं कि उसका देश की मुद्रा नीति और वित्तीय स्थिरता पर क्या प्रभाव पड़ेगा? उसकी (डिजिटल मुद्रा की) रूपरेखा क्या होनी चाहिए? क्या वह ऐसे कार्ड के रूप में हो, जिस पर धन बार-बार चढ़ाया (री-लोड किया) जा सके? या उसे किसी एप के रूप में या किसी दूसरे रूप में होना चाहिए? ...लोगों को इस ‘ई-क्रोन’ के लिए राष्ट्रीय बैंक में ही क्या अपना कोई खाता खोलना होगा? और यदि खोलना होगा तो क्या उन्हें कोई ब्याज भी मिलेगा? यह सब अभी सोचा जाना है।
सेसीलिया स्किंज्स्ली का कहना था कि 2 वर्षों में अधिकतर प्रश्नों के उत्तर मिल जाएंगे, पर यह भी तय है कि डिजिटल मुद्रा, नकदी मुद्रा को पूरी तरह विस्थापित नहीं करेगी यानी स्वीडन का राष्ट्रीय मुद्रा बैंक भी मानता है कि केवल निराकार आभासी (डिजिटल या वर्चुअल) मुद्रा से काम नहीं चलेगा, सिक्कों और नोटों के रूप में साकार वास्तविक मुद्रा भी होनी चाहिए।
डेनमार्क में नकदी का जीवनकाल बढ़ा : नकदीरहित लेन-देन के मामले में स्वीडन के पड़ोसी डेनमार्क और नॉर्वे उससे नाममात्र को ही पीछे हैं। डेनमार्क ने भी यूरोपीय संघ का सदस्य होते हुए भी संघ की साझी मुद्रा यूरो को नहीं अपनाया है, अपनी पुरानी मुद्रा क्रोनर को ही वह चला रहा है।
नॉर्वे की जनता ने तो 2 बार हुए जनमत संग्रहों में यूरोपीय संघ की सदस्यता को ही ठुकरा दिया। केवल 56 लाख निवासियों वाला डेनमार्क जनसंख्या में स्वीडन के भी केवल आधे के बराबर है। वहां की सरकार ने 2015 में देश के संसदीय चुनावों से ठीक पहले घोषित किया कि दुबारा बहुमत मिलने पर वह कानून बनाएगी कि जनवरी 2016 से अधिकतर दुकानों, पेट्रोल पंपों और रेस्तरां जैसे व्यापारिक प्रतिष्ठानों को नकद पैसा लेने और देने से मना करने का पूरा अधिकार होगा। केवल डाकघर, औषधि विक्रेता और सुपर बाजार नकदी लेने से मना नहीं कर सकेंगे।
किंतु चुनाव के बाद सरकार बदली और यह कानून टल गया। स्वीडन की तरह डेनमार्क में भी नकदीमुक्त अर्थव्यवस्था लाने का काम लगभग ढाई दशक से चल रहा है। 2013 में डेनमार्क के सबसे बड़े बैंक ‘दांस्के बांक’ ने स्मार्टफोन वालों के लिए ‘मोबाइल-पे’(MobilePay) नाम का एक ऐसा एप बनाया, जो इस बीच देश के 90 प्रतिशत स्मार्टफोनों में इस्तेमाल हो रहा है। इसे इस्तेमाल करने से पहले अपना पंजीकरण करवाना पड़ता है जिसके लिए फोन नंबर और क्रेडिट कार्ड चाहिए। किसी बैंक का ग्राहक होना जरूरी नहीं है।
चुनावों के बाद आई नई सरकार ने राष्ट्रीय बैंक की एक समिति को डेनिश समाज में नकदी की भूमिका का विश्लेषण करने और भावी दिशा के लिए सुझाव देने को कहा। सरकार का कहना है कि इस समिति ने नकदी की भूमिका का अंत कर देने जैसा कोई सुझाव नहीं दिया है यानी नकदीमुक्त लेन-देन की भारी लोकप्रियता के बावजूद डेनमार्क भी निकट भविष्य में नोटों और सिक्कों को पूरी तरह तिलांजलि नहीं देने जा रहा।
नकदी की सीमा तय करने से क्यों होती है बेचैनी... पढ़ें अगले पेज पर.....
फ्रांस में नकद भुगतान की सीमा सितंबर 2015 से निवासी फ्रांसीसियों के लिए 1,000 और अनिवासी फ्रांसीसियों के लिए 10,000 यूरो तय कर दी गई है। यूरो मुद्रा वाले यूरोप के प्रमुख देशों में इटली ऐसा देश है, जहां भारत की तरह लाखों लोगों के पास कोई बैंक खाता नहीं है। तब भी वहां की सरकार ने नकद भुगतान की छूट देने वाली सीमा 2011 में 999.99 यूरो कर दी।
इस सीमा का उल्लंघन करने वाले को 3,000 यूरो से शुरू कर भुगतान राशि के 40 प्रतिशत के बराबर तक जुर्माना देना होता है। इसी प्रकार यूरोप के अन्य देशों में भी कहीं नकद भुगतान की कोई सीमा है, तो कहीं नहीं। जहां ऐसी सीमा है, वहां के लोग नकदीमुक्त लेन-देन को अपनाने के लिए विवश हैं, न कि खुश हैं। जहां सीमा नहीं हैं, वहां अधिकतर लेन-देन नकद ही होता है।
जर्मनी में नकद-नारायण का वर्चस्व : यही कारण है कि जर्मनी में (जिसकी सवा 8 करोड़ की जनसंख्या और निर्यात प्रधान अर्थव्यवस्था यूरोप में सबसे बड़ी है, पर जहां यूरो के नकद लेन-देन पर सरकार की ओर से कोई रोक-टोक नहीं है) 80 प्रतिशत लेन-देन नकद-नारायण से होता है। जर्मन सरकार तो नहीं, किंतु यूरोपीय केंद्रीय बैंक (ईसीबी) यूरो वाले मुद्रा जोन के व्यावसायिक बैंकों से 5,000 यूरो की एक नकदी सीमा जरूर चाहता है।
जर्मन मुद्रा बैंक ‘बुंडेसबांक’ के अध्यक्ष मंडल के सदस्य कार्ल लूडविश थीले ने 5 दिसंबर 2016 को प्रसारित एक रेडियो इंटरव्यू में कहा कि जर्मनी में भी नकदीमुक्त लेन-देन बढ़ रहा है, लेकिन हर प्रकार के 80 प्रतिशत भुगतान नकद ही होते हैं। वर्षों से थोड़ी-बहुत घट-बढ़ के साथ नकदी का यह बहुत ऊंचा अनुपात अब भी बना हुआ है। यह जरूर है कि लोग प्राय: 50 यूरो तक का ही भुगतान नकद करते हैं। इससे अधिक की राशि बिना नकदी के चुकाते हैं।
नकदी के प्रति जर्मन जनता के लगाव का बचाव करते हुए जर्मन केंद्रीय बैंक के इस बड़े अधिकारी का कहना था कि यह उपभोक्ताओं को, विशेषकर कम आय वाले लोगों को अपना खर्च नियंत्रित रखने में सहायक बनता है। लोग जानते हैं कि उनके पास कितना पैसा है और कितना नहीं। डॉलर के बाद यूरो ही सबसे टिकाऊ मूल्य वाली दूसरी बड़ी विदेशी मुद्रा भी है।
नकदी की सीमा से होती है बेचैनी : कार्ल लूडविश थीले के अनुसार जर्मनी का केंद्रीय बैंक (इटली या बेल्जियम जैसे देशों के विपरीत) नकद भुगतान की कोई ऊपरी सीमा तय करने में व्यावहारिक लाभ नहीं देखता। इस बारे में ऐसे कोई विश्वसनीय अध्ययन उपलब्ध नहीं हैं जिनसे साफ पता चलता हो कि नकद भुगतान की सीमारेखा खींच देने से अपराधवृत्ति में वाकई कमी आती है। उनका कहना है कि ऐसी सीमाओं से जनसाधारण में बेचैनी पैदा होती है। लोग कहते हैं कि जो पैसा मेरा है, मेरे पास है, उसे अपने पास रखने या खर्च करने का अधिकार भी तो मेरा ही बनता है। मैं उसे अपने घर में रखूं या किसी बैंक के लॉकर में!
थीले एक सटीक तर्क है कि आपका जो पैसा आपके पास नकदी के रूप में नहीं है, वह आपके नाम बैंक की देनदारी है। अतीत में बैंक भुगतान (अक्षमता) की समस्याओं का सामना कर चुके हैं। यह भी नहीं भूला जाना चाहिए कि नकद पैसा मुद्रा बैंक द्वारा जारी पैसा है। उसे सीधे मुद्रा बैंक में जाकर बदला जा सकता है। उसका तब भी उपयोग हो सकता है, जब तकनीक (कम्प्यूटर इत्यादि) फेल हो जाए, बिजली गुल हो जाए या (मोबाइल फोन) नेटवर्क काम नहीं कर रहा हो।
नकद पैसा नागरिकों की कमाई का पैसा है : इस इंटरव्यू में कार्ल लूडविश थीले ने दोटूक शब्दों में यह भी कहा कि हमें या सरकारों को यह नहीं भूल जाना चाहिए कि नकद पैसा देश के नागरिकों की कमाई का पैसा है, न कि नोट जारी करने वाले बैंक का या देश की सरकार का। जर्मनी का बुंडेसबांक बिना किसी पक्षपात के नकदी मुक्त भुगतान की मांगों को भी पूरा करेगा।
हर नागरिक के लिए यह संभव होना चाहिए कि वह अपने पैसे का अपनी इच्छानुसार उपयोग कर सके (नकद या गैरनकद। जर्मनी का केंद्रीय बैंक आगे भी दोनों विकल्प सुलभ करता रहेगा। ध्यान देने योग्य है कि यूरोप के किसी भी केंद्रीय बैंक का कोई भी उच्च पदाधिकारी साकार या निराकार पैसे के बारे में इतने स्पष्ट शब्दों में बोलता और साकार (नकद) पैसे का खुलकर बचाव करता इससे पहले सुना नहीं गया है।
एक सर्वे के अनुसार विश्व में इस समय जो 15 देश नकदीमुक्त डिजिटल समाज के लिए सबसे अधिक तैयार प्रतीत होते हैं, उनमें से 9 अकेले यूरोप में हैं, लेकिन यूरोपीय संघ ने 2016 की शुरुआत में अपने सदस्य देशों को भुगतान संबंधी सेवाओं के नियमन के लिए एक नया निर्देश भेजा। यह सितंबर 2016 से प्रभावी भी हो गया है। इस निर्देश में कहा गया है कि यूरोपीय संघ के देशों में रहने वाले हर व्यक्ति को अपने भुगतानों के लिए ऐसा बैंक खाता रखने का अधिकार है, जो सभी मूलभूत सुविधाएं प्रदान करता हो।
यूरोप में नकदीमुक्ति धीमी पड़ेगी : इस निर्देश के बाद स्वीडन के राष्ट्रीय मुद्रा बैंक रिक्सबांक ने देश के व्यावसायिक बैंकों को आदेश दिया कि उन्हें अपने ग्राहकों को नकद पैसे सहित सभी मूलभूत बैंकिंग सेवाएं भी देनी होंगी। स्वीडन के व्यावसायिक बैंक इस आदेश से कतई खुश नहीं हैं। शिकायत कर रहे हैं कि यह आदेश नकदीमुक्त समाज की दिशा में प्रगति से पैर पीछे हटने के समान है। किंतु रिक्सबांक का कहना है कि वे इलेक्ट्रॉनिक भुगतान के विरुद्ध नहीं हैं, बल्कि व्यावसायिक बैंकों ने स्वयं ही नकदी संबंधी अपनी सेवाओं को समेटने की जल्दबाजी कर दी।
कहने की आवश्यकता नहीं कि जनता के व्यापक हित में यूरोपीय संघ के नए निर्देश के बाद कम से कम यूरोपीय संघ के देशों में नकदीमुक्त अर्थव्यवस्था की दिशा में प्रगति अब कुछ धीमी पड़ जाएगी। इसमें कोई संदेह नहीं कि यदि इलेक्ट्रॉनिक धोखाधड़ी वाले खतरों का पूरी तरह निराकरण हो सके, तो नकदीमुक्त अर्थव्यवस्था के अनेक आर्थिक लाभ हैं। पर यह भी निश्चित है कि उससे ऐसे कई आर्थिक, सामाजिक और राजनीतिक नुकसान भी होंगे, देश और समाज के हित में जिन्हें टालना भी उतना ही जरूरी है।
स्वीडिश पुलिस बल के महानिदेशक और इंटरपोल के अध्यक्ष रह चुके ब्यौर्न एरिक्ससोन अनायास ही नहीं कहते कि नकदीमुक्त इंटरनेट बैंकिंग और मोबाइल बैंकिंग ट्रेंडी (फैशन) भले ही बन गया हो, लेकिन एक पूरा समाज नकदीमुक्त बन जाने में कई प्रकार के खतरे छिपे हुए हैं।
ये हैं बड़े इलेक्ट्रॉनिक खतरे... पढ़ें अगले पेज पर....
नकदीमुक्ति के इलेक्ट्रॉनिक खतरे : पिछले 2 दिसंबर 2016 वाले दिन मॉस्को से समाचार आया कि अज्ञात हैकरों (कम्प्यूटर सेंधमारों) ने जाली कोडों की मदद से रूस के केंद्रीय बैंक में सेंध लगाकर 2 अरब रूबल (3 करोड़ 10 लाख डॉलर से अधिक) के बराबर धनराशि लूट ली।
बैंक के एक अधिकारी ने यह जानकारी देते हुए दावा किया कि हैकर वास्तव में 5 अरब रूबल उड़ाना चाहते थे, पर वे सफल नहीं हुए। हैकरों ने बैंक के कई ग्राहकों के खातों में उनकी जाली पहचान की सहायता से सेंध लगाई। यह भी कहा गया कि हैकरों ने संभवत: एक नहीं, कई बार घात लगाकर यह धनराशि उड़ाई। इसके लिए विदेशों में स्थित कम्प्यूटर इस्तेमाल किए, पर हैकरों की पहचान नहीं हो सकी।
किसी देश के राष्ट्रीय मुद्रा बैंक में साइबर सेंधमारी का यह कोई पहला मामला नहीं है। फरवरी 2016 में कम्प्यूटर सेंधमारों ने बांग्लादेश के केंद्रीय बैंक बांग्लादेश बैंक के कम्प्यूटरों को धोखा देकर 95 करोड़ 10 लाख डॉलर उड़ा लिए थे। इस में से 2 करोड़ डॉलर श्रीलंका भेजे गए थे, 8 करोड़ 10 लाख डॉलर फिलीपींस और 30 किस्तों में 85 करोड़ डॉलर अमेरिका में फेडरल रिजर्व बैंक ऑफ न्यूयॉर्क के पास पहुंचे थे।
न्यूयॉर्क वाले बैंक को जब इतनी सारी किस्तों और रकम पर शक हुआ और उसने बांग्लादेश बैंक से संपर्क किया, तब बांग्लादेश बैंक को पता चला कि उसे कैसा चूना लगा है! इसी तरह के मामले 2015 में इक्वाडोर, फिलीपींस और वियतनाम के केंद्रीय बैंकों के साथ भी हो चुके हैं।
यहां प्रश्न यह उठता है कि जब देशों के केंद्रीय या राष्ट्रीय मुद्रा बैंक तक अपने कहीं बड़े, बेहतर और सुरक्षित किस्म के कम्प्यूटरों को साइबर अपराधियों के हमलों से बचा नहीं पाते, तो हम आप अपने साधारण कम्प्यूटरों या मोबाइल फोनों को हैकरों के हमलों से भला कब तक और कितना बचा सकते हैं?
कास्पर्स्की लैब का क्या कहना है : कास्पर्स्की लैब कम्प्यूटर और सूचना तकनीक में सुरक्षा समाधानों की सबसे प्रसिद्ध और विश्वसनीय कंपनी मानी जाती है। वह हर वर्ष एक सर्वे भी प्रकाशित करती है कि कम्प्यूटरों से जुड़ी कमियों और सुधारों की क्या स्थिति है। सूचना तकनीक के लिए जोखिमों संबंधी 2015 के अपने नवीनतम वैश्विक सर्वे में उसका कहना है कि जिन कंपनियों, बैंकों इत्यादि को 2015 के इस सर्वे में शामिल किया गया, उनमें से 47 प्रतिशत ने कहा कि उन्हें नहीं लगता कि सुरक्षा पर खर्च बढ़ाने के बावजूद उनका वित्तीय लेन-देन उतना सुरक्षित है जितना कि होना चाहिए।
इनमें से 32 प्रतिशत फर्में कुछ पहले या सर्वे के दौरान अपने कम्प्यूटरों पर किसी न किसी साइबर हमले का निशाना बन चुकी थीं यानी हर 3 में से 1 कंपनी सर्वे के समय डेटाचोरी झेल चुकी थी। 47 प्रतिशत कंपनियों ने कहा कि बैंकों को चाहिए कि वे ऑनलाइन बैंकिंग की सुरक्षा को और बेहतर बनाएं। दूसरे शब्दों में, नकदीमुक्त इंटरनेट या मोबाइल बैंकिंग को सुरक्षित मानना एक खयाली पुलाव है!
कास्पर्स्की लैब ने यह भी पाया कि मोबाइल बैंकिंग बढ़ने के साथ-साथ बैंकों व अन्य वित्तीय संस्थानों को बढ़ती हुई ऑनलाइन धोखाधड़ी का भी सामना करना पड़ रहा है। 48 प्रतिशत वित्तीय संस्थानों ने कहा कि वे मूल समस्या को हल करने के बदले क्षतिग्रस्त लोगों को क्षतिपूर्ति देकर मामला रफा-दफा करते हैं। यही उपाय बचावकारी उपायों पर खर्च करने से सस्ता व सरल पड़ता है और नाम भी बदनाम नहीं होता। इस सर्वे के आधार पर कास्पर्स्की लैब ने एक बार फिर यही निष्कर्ष निकाला है कि साइबर धोखाधड़ी हर प्रकार के काम में पैसों के सुरक्षित लेन-देन की अब भी सबसे बड़ी बाधा है।
धोखाधड़ी का अंतरराष्ट्रीय जाल : वर्षों की लंबी खोजबीन के बाद नवंबर 2016 में 41 देशों के आईटी विशेषज्ञों ने साइबर धोखाधड़ी के एक ऐसे अंतरराष्ट्रीय जाल का भंडाफोड़ किया, जो 2009 से सक्रिय था। उसके सदस्यों ने कम से कम 1,336 मामलों में ऑनलाइन बैंकिग करने वालों के 60 लाख यूरो चुराए हैं। अकेले जर्मनी में 50,000 से अधिक लोग ठगे गए हैं। यह गिरोह ई-मेल अटैचमैंट के जरिए ऑनलाइन बैंकिंग करने वालों के कम्प्यूटर अपने नियंत्रण में ले लिया करता था और उन्हें कम्प्यूटरों के अपने एक पार्श्व नेटवर्क का हिस्सा बनाकर उनके बैंक खातों में से पैसे निकाल लिया करता था।
नवंबर में ही एक दूसरे गिरोह ने ऑनलाइन बैंकिंग करने वालों के खाते, पिन नंबर या पासवर्ड जानने के लिए जर्मन टेलीकॉम कंपनी के लाखों ग्राहकों के राउटरों को जासूसी करने वाले वायरस से संक्रमित कर दिया था। वास्तव में इलेक्ट्रॉनिक धोखाधड़ी की घटनाएं इतनी अधिक, आम और विश्वव्यापी हो चली हैं कि सरकारों, बैंकों ओर इलेक्ट्रॉनिक कंपनियों में से कोई नहीं चाहता कि मीडिया में उनकी चर्चा हो।
ऐसी खबरों से उनकी बदनामी जो होती है। स्थिति यह है कि ऐसे काम अप्रिय देशों में अव्यवस्था फैलाने के विचार से अब कुछेक देशों की सरकारी गुप्तचर सेवाएं भी करने लगी हैं। कहने की आवश्यकता नहीं कि पाकिस्तान यदि जाली नोटों से भारत को पाट सकता है, तो नकदीमुक्त भारत में ऑनलाइन बैंकिंग को भी पंगु बना सकता है! यह काम किसी को भारत भेजे बिना इस्लामाबाद मैं बैठकर ही बड़े आराम से हो सकता है।
सरकारें भी कम खतरा नहीं, पढ़ें क्यों.... अगले पेज पर....
सरकारें सबसे बड़ा खतरा : वास्तव में समय के साथ सरकारें ही (विदेशी ही नहीं, स्वदेशी सरकारें भी) नकदीमुक्त अर्थव्यवस्था के लिए सबसे बड़ा खतरा बन सकती हैं। कम्प्यूटर या मोबाइल फोन से पैसों के लेन-देन का हर कदम अपने पीछे जो निशान छोड़ेगा, उससे हर व्यक्ति सरकारों के लिए पारदर्शी बन जाएगा।
सरकारें चाहें तो बैंकों और टेलीकॉम कंपनियों को अपने नियमों से बांधकर इस सारी प्रक्रिया पर नजर और नियंत्रण रख सकती हैं। कोई भी लेन-देन सरकारों से छिपा नहीं रहेगा। वे जिस किसी को अपने लिए कांटा समझेंगी, उसके खाते को सील या जब्त कर सकती हैं। क्रेडिट या डेबिट कार्ड को अवरुद्ध (ब्लॉक) कर सकती हैं। जो कोई नकदीमुक्त लेन-देन से जितना परहेज करता दिखेगा, सरकारों की नजर में उतना ही संदिग्ध बनता जाएगा।
अमेरिकी गुप्तचर सेवा एफबीआई के लिए हर ऐसा व्यक्ति अभी से संदिग्ध बन गया है, जो ऑनलाइन जाता ही नहीं, केवल नकद लेन-देन करता है यानी वह कुछ छिपा रहा है! जब नकदी का चलन ही नहीं रह जाएगा, तब सरकारों को नोट छापना, सिक्के ढालना और उनका वितरण भी नहीं करना पड़ेगा। पैसे का कोई भौतिक अस्तित्व नहीं रह जाने से किसी संख्या के रूप में कम्प्यूटर में कैद अभौतिक पैसे की मात्रा घटाना-बढ़ाना भी बाएं हाथ का खेल बन जाएगा।
भौतिक अस्तित्वहीन निराकार पैसे पर रिजर्व बैंक के किसी गवर्नर के हस्ताक्षर सहित यह भी तो नहीं लिखा होगा कि 'मैं धारक को ... रुपए अदा करने का वचन देता हूं।' इसी वचन पर विश्वास ही तो कागज के एक टुकड़े को धन बना देता है! निराकार पैसे पर तो कोई वचन भी नहीं लिखा मिलेगा। सरकारें जब चाहें तब सारी मुद्रा को अवैध या अमान्य घोषित कर सकती हैं। 100 रुपए को 10 रुपए या 10 रुपए को 100 रुपया भी बना सकती हैं। बैंक को आदेश देकर किसी व्यक्ति की सारी डिजिटल जमा-पूंजी जब्त कर सकती हैं। नकदी का चलन न होने से अपना पैसा बचाने-छिपाने के लिए किसी के हाथ में कुछ होगा भी तो नहीं।
दूसरे शब्दों में, लोकतांत्रिक सरकारें भी तानाशाही बन सकती हैं और देश का हर नागरिक उनकी दया का दास। बैंक-बैलेंस बढ़ाने के बदले यथासंभव सारा पैसा चल-अचल संपत्ति में लगाने, मौज-मस्ती और ऐयाशी करने या फिर देश-दुनिया में घूमने-फिरने पर लगाना कहीं अधिक बुद्धिमत्तापूर्ण लगेगा।
नकदी नहीं, तो बैंक कर्मचारी किसलिए? : यह सारा अतिवाद यदि न भी हो, तब भी भारत जैसे देश में नकदीरहित व्यवस्था की अपनी ही सीमाएं और समस्याएं हैं। देश में बिजली का कोई भरोसा नहीं रहता। जब-जब बिजली जाएगी, बैंक से लेकर ग्राहक तक कोई कुछ नहीं कर सकता। यदि बिजली सदा रहे भी, तब भी नकदीमुक्त समाज में बैंकों में सारे काम कम्प्यूटरों पर स्वचालित ढंग से होंगे। 8 से 10 लाख कैशियर और क्लर्क बेकार हो जाएंगे। केवल ऋण, बॉण्ड या शेयरों संबंधी परामर्श देने के लिए इक्के-दुक्के लोग रह जाएंगे। एक दिन ऐसा भी आ सकता है कि सारे बैंक तिरोहित हो जाएं। पूरे देश में केवल कोई एक ही केंद्रीय बैंक कम्प्यूटरों और रोबोट मशीनों के सहारे सारी वित्त प्रणाली चला रहा हो।
जब पैसे का ही कोई भौतिक अस्तित्व नहीं होगा, तब आज के लाखों बैंक कर्मचारियों के अस्तित्व का भी भला क्या औचित्य बचेगा? इसलिए इस बात पर गंभीरता से सोच-विचार करने की जरूरत है कि भारत को किस हद तक नकदीमुक्त और किस हद तक नकदीयुक्त रखना उचित होगा? स्वीडन, डेनमार्क या कोरिया और जापान जैसे देश बहुत छोटे और एक जैसी जनता वाले देश हैं।
विविधताओं और विरोधाभासों से भरे भारत जैसे विशाल देश के भविष्य का वे अनुकरणीय मॉडल नहीं हो सकते। भाजपा जैसी एक राष्ट्रवादी पार्टी को तो यह बात सबसे पहले समझ में आनी चाहिए। उसे यह भी सोचना चाहिए कि भारत की सवा अरब की आबादी में केवल 45 करोड़ लोग इंटरनेट का उपयोग करते हैं। इंटरनेट की प्रति सेकंड डेटा प्रवाह गति अभी बहुत कम है और भरोसेमंद भी नहीं है। केवल 2 करोड़ 40 लाख लोगों के पास क्रेडिट और 65 करोड़ के पास डेबिट कार्ड हैं। उनसे हर लेन-देन की फीस लगती है। इससे गरीबों की जेब पर बोझ और बढ़ेगा।