क्यों हमारे आईआईटी केवल 'अंडर-ग्रेजुएट्स की फैक्टरी' बनकर रह गए हैं, उनके रिश्ते प्राकृतिक तथा समाज विज्ञान, साहित्य तथा संस्कृति से खत्म हो गए हैं और वे नोबेल पुरस्कार प्राप्त करने लायक एक भी प्रतिभा को तैयार नहीं कर पाते?
ज्ञान समाज और अर्थव्यवस्था का आधार है। इस आधार को मजबूत बनाने के लिए सबसे ज्यादा जरूरी है कि बड़े पैमाने पर नए-नए ज्ञान का सृजन हो। पर आखिर ऐसा सृजन क्यों नहीं हो पा रहा है? इसका उत्तर है कि हम अब भी एक-दूसरे से पूरी तरह कटे हुए खाँचों में ही सोचने-विचारने की आदत के शिकार हैं। जबकि नए ज्ञान का जन्म बहुधा विषयों व अनुशासनों की सरहदों पर ही होता है।
इस दिशा में किए गए अध्ययन सोचने को विवश करते हैं कि क्यों अमेरिका के एमआईटी (मैसाचुसेट्स इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नोलॉजी) में ज्ञान की विभिन्न शाखाओं से जुड़े विषय पढ़ाए जाते हैं और वहाँ से प्रौद्योगिकी के साथ-साथ भाषा विज्ञान, अर्थशास्त्र तथा अन्य विषयों के भी ऐसे-ऐसे विद्वान निकलते हैं, जिन्हें नोबेल पुरस्कार प्राप्त करने लायक माना जाता है और उनमें से कई एक को वह पुरस्कार मिलता है?
क्यों हमारे आईआईटी केवल 'अंडर-ग्रेजुएट्स की फैक्टरी' बनकर रह गए हैं, उनके रिश्ते प्राकृतिक तथा समाज विज्ञान, साहित्य तथा संस्कृति से खत्म हो गए हैं और वे नोबेल पुरस्कार प्राप्त करने लायक एक भी प्रतिभा को तैयार नहीं कर पाते?
आखिर क्यों देश के विज्ञान के करीब सभी उत्कृष्ट शोध संस्थान विश्वविद्यालयों के परिसरों से बाहर हैं? उत्तर यही आता है कि हमारे उच्च शिक्षा के संस्थान और वहाँ चलने वाली प्रक्रियाएँ जीवन, परिवेश और समाज की संवेदनाओं, हलचलों, आवश्यकताओं तथा आकांक्षाओं से पूरी तरह कटी हुई है।