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Written By भाषा

विकास की खातिर घटाए घाटा

वित्तीय घाटा जीडीपी के 6.8% पर पहुँचने का अनुमान

budget special | विकास की खातिर घटाए घाटा
नास्तिक दर्शक को मानने वाले चार्वाक का कहना था 'ऋणं कृत्वा घृतं पिवेत्‌' (ऋण लो और घी पीयो)। लगता है केंद्र सरकार भी इसी दर्शन को अपना रही है। 2009-10 के बजट में देश का राजकोषीय घाटा (फिस्कल डिफिसीट) जीडीपी के 6.8 प्रतिशत के रिकॉर्ड स्तर पर पहुँच जाने का अनुमान लगाया है।

इस आँकड़े का आशय यह होता है कि देश पर कर्ज के लिए ब्याज चुकाने की राशि बढ़ती जा रही है। इसकी सबसे बड़ी कीमत देश के आर्थिक-सामाजिक विकास में पिछड़ने के रूप में चुकाना पड़ सकती है।

उम्मीद की जाए कि सरकार तेजी से आर्थिक प्रगति की ओर जाते चीन और अन्य देशों के साथ दौड़ में बने रहने के लिए काल के गाल की तरह बढ़ते राजकोषीय घाटे को खत्म करने के लिए गुड गवर्नेंस जैसे ठोस उपाय करेगी।

जुलाई में अंतरिम बजट पेश करते हुए वित्तमंत्री प्रणब मुखर्जी और बाद में अर्थशास्त्री प्रधानमंत्री मनमोहनसिंह ने खुद भी राजकोषीय घाटे का जीडीपी की तुलना में ऐतिहासिक स्तर 6.8 प्रतिशत (करीब 4 लाख करोड़ रु.) तक पहुँच जाने पर गहरी चिंता व्यक्त की थी। अब यह चिंता देश के विकास को खाने लगी है।

क्या आशय है फिस्कल डिफिसीट से : फिस्कल डिफिसीट का बढ़ना यानी सरकार पर कर्ज के पेटे ब्याज अदायगी की राशि का बढ़ना है। अर्थशास्त्र का सामान्य सिद्धांत है आय की तुलना में कर्ज का बढ़ना यानी दिवालिया होने की ओर बढ़ना या विकास के विपरीत जाना। पिछले बजट के अनुसार देखा जाए तो सरकार को होने वाली एक रुपया आय में से सबसे ज्यादा 20 पैसे ब्याज की अदायगी में खर्च करना पड़ रहा है।

कर्ज का दलद
1. सरकार कर्ज को पाटने के लिए नए कर्ज ले सकती है, लेकिन इससे नुकसान यही है कि राजकोषीय घाटा और बढ़ता चला जाएगा और देश कर्ज के मकड़जाल में फँस जाएगा। इसलिए यह उपाय भी कारगार नहीं है।
2. नए नोट छापकर सरकार कर्ज को पाट सकती है, लेकिन इसमें नुकसान यह है कि मुद्रा प्रसार बढ़ने से महँगाई का खतरा अधिक है, जो कोई भी लोकतांत्रिक सरकार नहीं कर सकती है।

उम्मीदों का बजट : वित्तमंत्रीजी से उम्मीद की जाए कि गाँधीजी के कथित अनुयायी सही अर्थों में सादगी के साथ रहकर सरकारी फिजूलखर्ची को रोकने में और सख्त कदम उठाएँगे तथा देश का पैसा कर्जों के बदले ब्याज चुकाने में जाने के बजाए देश के विकास में लगे।

क्या है दुष्परिणाम : देश की आय का बड़ा हिस्सा यदि कर्ज को पाटने में चला जाएगा तो विकास के लिए सरकार के पास कम पैसा बचेगा। एक अनुमान के अनुसार देश के बुनियादी क्षेत्र- सड़क, बिजली, दूरसंचार, पेयजल आदि के विकास के लिए अरबों रु. की आवश्यकता है। विकासोन्मुखी वैश्विक अर्थव्यवस्था में पिछड़ने का बड़ा खतरा लगने लगा है।

क्या हो उपाय : 1. सरकार गैर बजट आवंटन वाले, फालतू खर्चों, अनुत्पादक खर्चों को घटाए अर्थात कास्ट ऑफ गवर्नेंस घटाए। केंद्र सरकार ने इसी सिलसिले में गत दिनों मंत्रियों की गैरजरूरी विदेशी यात्राओं और महँगी होटलों में ठहरने पर प्रतिबंध लगाया था। किंतु लक्जरी और पाँच सितारा सुविधाओं में रहने के आदी हो चुके कथित जनसेवकों को यह उपाय सिर्फ 4 दिन में ही भारी लगने लगते हैं। इस तरह जनता के कर का पैसा अनुत्पादक कार्यों में खर्च भी हो जाता है और देश कर्ज के बोझ में दबा भी रहता है।

2. देश को कर्जें से बचाने के लिए ही तत्कालीन वित्त मंत्री पी. चिदंबरम द्वारा शुरू किए गए तथा मौजूदा समय में अधिक प्रासंगिक 'वित्तीय सुधार एवं बजट प्रबंधन' (एफआरबीएम) उपायों को सख्ती से लागू किया जाए।

वित्तीय घाटे का बढ़ना यह इस बात को संकेत करता है कि सरकार बाजार से ज्यादा लिक्विडिटी उठा रही है। इससे ब्याज दरें बढ़ेगी, जो निवेश को हतोत्साहित करेगी। अंततः इससे विकास निश्चित रूप से कम हो जाएगा। विकास की खातिर सरकार को इसे नियंत्रित करने पर तुरंत ध्यान देना चाहिए।
- डॉ. गणेशराम कावड़िया, हेड स्कूल ऑफ इकोनॉमिक्स, देवी अहिल्या यूनिवर्सिटी, इंदौ
-मनीष उपाध्याय