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Written By समय ताम्रकर

शंघाई ‍: फिल्म समीक्षा

शंघाई
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बैनर : पीवीआर पिक्चर्स
निर्माता : अजय बिजली, दिबाकर बैनर्जी, प्रिया श्रीधरन, संजीव के. बिजली
निर्देशक : दिबाकर बैनर्जी
संगीत : विशाल-शेखर
कलाकार : इमरान हाशमी, अभय देओल, कल्कि कोएचलिन, प्रसन्नजीत चटर्जी, फारुख शेख
सेंसर सर्टिफिकेट : यूए * 1 घंटा 54 मिनट
रेटिंग : 3/5

चुनाव नजदीक आते ही शहर को पेरिस या शंघाई बनाने की बातें तेज हो जाती हैं। बिज़नेस पार्क, ऊंची बिल्डिंग और चमचमाते मॉल्स के लिए मौके की जमीन चुनी जाती है। इसका विरोध भी शुरू हो जाता है क्योंकि कुछ लोगों की दुकान विरोध से ही चलती है। राजनीतिक षड्यंत्र शुरू हो जाते हैं और नेता से लेकर तो अफसर तक अपना-अपना हित साधने में जुट जाते हैं।

इस तरह के विषय पर भारत में कई फिल्में बन चुकी हैं और शंघाई में दिबाकर बैनर्जी ने इसे अपने नजरिये से प्रस्तुत किया है। मूलत: इस फिल्म की कहानी ग्रीक लेखक वासिलिस वासिलिकोस की किताब ‘ज़ेड’ से प्रेरित है जिसका भारतीयकरण कर ‘शंघाई’ में प्रस्तुत किया गया है। कही-कही कहानी ‘जाने भी दो यारों’ से भी प्रेरित लगती है।

शंघाई का सबसे बड़ा प्लस पाइंट है दिबाकर बैनर्जी का निर्देशन और प्रस्तुतिकरण। दिबाकर बैनर्जी की गिनती वर्तमान में भारत के बेहतरीन निर्देशकों में से होती है और वे हर विषय पर फिल्म बनाने की क्षमता रखते हैं। फिल्म की हर फ्रेम पर उनकी छाप नजर आती है और एक ही सीन में वे कई बातें कह जाते हैं। कोरियोग्राफर, फाइट मास्टर या स्टार उन पर हावी नहीं होते हैं।

दिबाकर बैनर्जी अपनी यह बात कहने में पूरी तरह सफल रहे हैं कि राजनीति अब सेवा नहीं बल्कि व्यवसाय बन चुकी है और कितनी गिर चुकी है। हालांकि उनका डायरेक्शन क्लास अपील लिए हुए है। उन्होंने दर्शकों के लिए समझने को बहुत कुछ छोड़ा है और यही वजह है कि एक आम दर्शक को फिल्म समझने में कठिनाई हो सकती है।

भारत नगर में सरकार आईबीपी (इंटरनेशनल बिज़नेस पार्क) बनाने की घोषणा करती है। जिस जमीन पर ये बनाया जाना है वहां पर गरीब बस्ती है। सरकार उन्हें दूर जमीन और मकान देने का वादा करती है और आईबीपी को प्रगति से जोड़ती है।

इसी बीच चार्टर्ड फ्लाइट से सोशल एक्टिविस्ट डॉ. अहमदी (प्रसन्नजीत) की एंट्री होती है जो आईबीपी का विरोध करता है। न्यूजपेपर के फ्रंट पेज पर कैसे छपा जाए ये वह बेहतरीन तरीके से जानता है और इसलिए हीरोइन की बगल में खड़े होकर फोटो भी खिंचाता है।

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अहमदी के विरोध के स्वर तेज होते है और सरकार घबराने लगती है। इसी बीच एक शराबी ड्राइवर अहमदी को अपनी गाड़ी से कुचल देता है। सरकार इसे एक्सीडेंट बताती है, लेकिन कुछ लोगों का मानना है कि यह मर्डर है।

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जांच के लिए आईएएस ऑफिसर टी.ए. कृष्णन (अभय देओल) की नियुक्ति होती है और उसका बॉस कहता है कि इसे एक्सीडेंट मानकर रफा-दफा किया जाए। अहमदी की सहयोगी शालिनी सहाय (कल्कि कोएचलिन) का मानना है कि यह साजिश है।

वीडियोग्राफर और पोर्न फिल्म मेकर जोगी (इमरान हाशमी) और शालिनी के हाथ कुछ ऐसे सबूत लगते हैं जो इस साजिश का खुलासा करते हैं। इसके बाद पूरे घटनाक्रम पर राजनीति तेज हो जाती है और सभी इससे अपने-अपने स्वार्थ साधने में लग जाते हैं।

इस कहानी को परदे पर दिबाकर बैनर्जी ने डिटेल्स के साथ उतारा है और हर किरदार पर मेहनत की है। सरकारी ऑफिसर्स की लाइफस्टाइल का पिक्चराइजेशन एकदम सजीव है। अक्सर सरकारी ऑफिसर्स को बैडमिंटन खेलते, पुल साइड पर रिलेक्स होते और ट्रेडमिल पर दौड़ लगाते हुए (पास में एक नौकर पानी लिए खड़ा है) देखा जा सकता है। उनकी बातचीत करने की शैली, बॉडी लैंग्वेज को बारीकी से फिल्म में पेश किया गया है।

फिल्म में बैकग्राउंड साउंड और सीन का भी बेहतरीन उपयोग है जो ड्रामे के तनाव को बढ़ाने में अहम रोल अदा करता है। ज्यादातर दृश्यों में बैकग्राउंड साउंड रियल टच लिए हुए है। नेताओं के स्वागत, भाषण और जुलूस को सिर्फ पृष्ठभूमि में रखा गया है जिससे राजनीतिक माहौल का पता चलता रहता है।

इमरान हाशमी ने शायद पहली बार अपने किसी कैरेक्टर पर इतनी मेहनत की है। एक छोटे से शहर के वीडियोग्राफर के हाव-भाव को उन्होंने बारीकी से पकड़ा है और बॉडी लैंग्वेज को खूब उपयोग किया है। उनका एक सीन कमाल का है जिसमें वे कल्कि को उस बिस्तर पर यह कहकर बैठने से मना कर देते हैं कि वह गंदा है। दरअसल उस बिस्तर पर ही वे पोर्न फिल्म बनाते हैं।

आईएएस ऑफिसर के रोल में अभय देओल में बेहद जमे हैं। उन्होंने हिंदी वैसी ही बोली है जैसी तमिलियन बोलता है और इसे मजाक नहीं बनाया है। छोटे-से रोल में प्रसन्नजीत भी अपना प्रभाव छोड़ जाते हैं। कल्कि को पूरी फिल्म में एक-सा एक्सप्रेशन रखना था।

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निकोस और नम्रता राव का उल्लेख भी जरूरी है जिनकी सिनेमाटोग्राफी और एडिटिंग ने फिल्म को एक अलग ही लुक दिया है।

कुल मिलाकर ‘शंघाई’ एक सिम्पल स्टोरी पर आधारित फिल्म है। जिसमें आगे क्या होने वाला है, इसका अंदाजा लगाना मुश्किल नहीं है, लेकिन कलाकारों की जानदार एक्टिंग, दिबाकर बैनर्जी का शानदार निर्देशन और प्रस्तुतिकरण इस फिल्म को देखने लायक बनाता है।