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Written By समय ताम्रकर

चला मुसद्दी ऑफिस-ऑफिस : फिल्म समीक्षा

चला मुसद्दी ऑफिसऑफिस फिल्म समीक्षा
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निर्माता : उमेश मेहरा, राजेश मेहरा, राजीव मेहरा
निर्देशक : राजीव मेहरा
गीत : गुलजार
संगीत : साजिद-वाजिद
कलाकार : पंकज कपूर, देवेन भोजानी, मनोज पाहवा, संजय मिश्रा, हेमंत मिश्रा, असावरी जोशी
सेंसर सर्टिफिकेट : यू * 1 घंटा 52 मिनट * 12 रील
रेटिंग : 2/5

टीवी पर बीस मिनट के एक शो में कमियों को नजरअंदाज कर दिया जाता है। मुफ्त का मनोरंजन होने से दर्शक इन्हें देखते समय ज्यादा गंभीर नहीं होते हैं, लेकिन फिल्म का मामला अलग होता है। टिकट खरीदकर देखने से अपेक्षा बहुत बढ़ जाती है इसलिए जरूरी नहीं है कि लोकप्रिय धारावाहिक को फिल्म के रूप में दर्शक देखना पसंद करें। धारावाहिक के स्तर को फिल्म बनाते समय और ऊंचा करना होगा तभी बात बनेगी।

खिचड़ी के बाद एक और लोकप्रिय धारावाहिक ‘ऑफिस-ऑफिस’ के कलाकारों और थीम को लेकर फिल्म बनाई गई है। इसमें कोई संदेह नहीं है कि ‘ऑफिस-ऑफिस’ एक बेहतरीन धारावाहिक था, जिसमें आम आदमी भ्रष्ट कर्मचारियों से जूझता था। हंसाने के साथ-साथ यह धारावाहिक सोचने पर भी मजबूर करता था, लेकिन फिल्म ‘चला मुसद्दी ऑफिस ऑफिस’ में वो बात नहीं आ पाई।

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स्क्रीनप्ले को इसके लिए दोषी ठहराया जा सकता है। 20 मिनट की कहानी को अगर 112 मिनट तक खींचा जाए तो कहानी को अपना असर खोना ही था। धारावाहिक के पंच और संवादों का पैनापन फिल्म के मुकाबले ज्यादा तीखा था। साथ ही फिल्म में कोई विशेष या नई बात नहीं है। जो हम धारावाहिक में देख चुके हैं वही दोहरा दिया गया है।

मुसद्दीलाल त्रिपाठी तीन महीने पेंशन लेने नहीं गए तो उन्हें सरकारी फाइलों में मृत घोषित कर दिया गया। पेंशन रोक दी गई। पेंशन ऑफिस में जब मुसद्दी गए तो वहां के कर्मचारी अड़ गए कि जिंदा होने का सबूत दो।

मुसद्दी अंत तक संघर्ष करता है और भ्रष्ट कर्मचारियों को सबक सिखाता है। फिल्म सीख भी देती है कि जब 62 वर्ष का मुसद्दी आम आदमी होने के बावजूद भ्रष्टाचार के खिलाफ हथियार नहीं डालता है तो उससे सबक लेते हुए सभी को संघर्ष करना चाहिए।

अश्विनी धीर की कहानी और स्क्रीनप्ले में न तो ज्यादा मजेदार घटनाक्रम हैं जो हंसने पर मजबूर कर दें और न ही ऐसे दृश्य हैं जिससे आम आदमी की तकलीफ को दर्शक महसूस कर सकें। कुछ दृश्य मनोरंजक हैं, लेकिन उनकी संख्या कम है। हरिद्वार में पंडितों द्वारा मुसद्दी को लूटने वाले दृश्य अच्छे बन पड़े हैं, लेकिन रेल और अस्पताल वाले घटनाक्रम बोर करते हैं।

राजीव मेहरा का निर्देशन स्क्रिप्ट की तुलना में बेहतर है। उन्होंने भाटिया, पटेल, उषाजी, पांडेजी को अलग-अलग रोल देकर उनकी लोकप्रियता का फायदा उठाया है और यह प्रयोग अच्‍छा भी लगता है।

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अभिनय इस फिल्म की खासियत है। सभी मंजे हुए कलाकार हैं। उनकी भूमिका और आदत से सभी परिचित हैं, इसलिए उनसे जुड़ने में ज्यादा देर नहीं लगती है। पंकज कपूर (मुसद्दी), देवेन भोजानी (पटेल), मनोज पाहवा (भाटिया), संजय मिश्रा (शुक्ला), हेमंत मिश्रा (पांडे) और असावरी जोशी (उषा) के अभिनय के कारण ही फिल्म में फिल्म में थोड़ी रूचि बनी रहती है। मकरंद देशपांडे बीच-बीच में गाते हुए नजर आते हैं और इस गाने को फिल्म की लंबाई बढ़ाने के लिए ‍रखा गया है।

कुल मिलाकर चला मुसद्दी ऑफिस-ऑफिस में टीवी धारावाहिक जैसा व्यंग्य और मनोरंजन नहीं है।