मंगलवार, 19 नवंबर 2024
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Written By दीपक असीम

'आरक्षण' से क्यों डरता है आयोग?

''आरक्षण'' से क्यों डरता है आयोग? -
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प्रकाश झा एक सियासी शख्सियत हैं, जो बिहार से चुनाव लड़कर हार चुके हैं। उनकी ताजा फिल्म "आरक्षण" को उनके सियासी बयान की ही तरह लेना चाहिए। हर बुद्धिजीवी की तरह प्रकाश झा भी आरक्षण के बारे में कुछ सोचते हैं और उन्हें पूरा हक है कि वे अपनी बात अपनी फिल्म के माध्यम से पेश करें। मगर अनुसूचित जाति आयोग ने सेंसर बोर्ड को लिखा है कि फिल्म को अनापत्ति प्रमाण पत्र देने से पहले आयोग को दिखाई जाए ताकि उसे खातरी हो जाए कि इसमें दलित वर्ग के प्रति कोई दुराग्रह तो नहीं है।

आयोग के अध्यक्ष पीएल पुनिया की यह सजगता तारीफ के काबिल है, मगर एक तरह से वे सेंसर बोर्ड के अधिकार अपने पास लेना चाहते हैं। यह कहने का अधिकार तो राष्ट्रपति को भी नहीं होना चाहिए कि कोई खास फिल्म पहले वे देखेंगी और बाद में सेंसर बोर्ड उसे पास करेगा।

अगर पुनिया के पास संवैधानिक ताकत है, तो वे फिल्म प्रदर्शन के बाद भी उसे रोक सकते हैं। अगर नहीं है, तो उन्हें पहले भी ये अनाधिकारिक चेष्टा नहीं करनी चाहिए। लोकतंत्र में एक व्यवस्था सेंसर बोर्ड है। सभी को उसका सम्मान करना चाहिए।

प्रकाश झा यदि आरक्षण के खिलाफ कुछ कह भी रहे हैं, तो उनकी आवाज दबाना कोई तरीका नहीं है। तरीका यह है कि समाज में बहस पैदा होने दीजिए। लोगों को खुलकर अपनी बात कहने दीजिए। बहसें समुद्र मंथन की तरह होती हैं। पूर्वाग्रहों का विष यदि निकलता है तो अंत में निष्कर्षों का अमृत भी प्राप्त होता है। ऐसी कोई बौद्धिक बहस नहीं होती, जिसमें खुले मन से उतरने के बाद किसी को नए विचार, नए दृष्टिकोण न मिलते हों।

हद से हद प्रकाश झा ने यही तो कहा होगा कि जातिगत आरक्षण खत्म होना चाहिए, ये अच्छी चीज नहीं है। मगर ये बात तो आधा देश कहता है। अगर कोई ये कह रहा है, और आप इसके विरोधी हैं तो लोगों को बताएँ कि आरक्षण क्यों जरूरी है और किसलिए इसे अब तक लागू रखा गया है।

प्रकाश झा ने अगर कोई संकीर्ण टिप्पणी की होगी तो उसकी आलोचना के लिए देश के तमाम बुद्धिजीवी हैं, लेखक हैं। देश के दलित कोई एक पीएल पुनिया के ही भरोसे नहीं हैं। ये एक ऐसा विषय है जिस पर फिल्म बनाने के लिए झा को धन्यवाद दिया जाना चाहिए। वरना ऐसा विषय कौन उठाता है, जो विवादास्पद हो जिससे लोगों के नाराज होने का खतरा हो। फिल्म एक बहुत महँगा कला माध्यम है। झा ने इस फिल्म में इसलिए पैसे नहीं लगाए होंगे कि किसी विवाद में पड़कर फिल्म कोर्ट-कचहरी में अटक जाए और बरसों धूल खाती रहे।

फिल्म और ब्रेड आजकल एक जैसे प्रोडक्ट हैं। अगर सही समय पर ये प्रोडक्ट मार्केट में नहीं आए तो पूरा-पूरा नुकसान होता है। "आरक्षण" के गुण-दोषों पर फिल्म देखने के बाद हम और भी बात करेंगे। फिलहाल तो झा को अभिव्यक्ति की आजादी है। नेता भाषण में अपनी बात कहता है और फिल्मकार फिल्म बनाकर। उन्हें यदि माइक मिलता है, तो इन्हें सिनेमाघर और अच्छा माहौल मिलना ही चाहिए।