बात शुरू हुई सेतु समुद्रम से पहुँच गई राम और रामायण के अस्तित्व पर। राम थे या नहीं? रामायण के पात्र थे या नहीं? उनकी प्रामाणिकता क्या है, कोई वैज्ञानिक आधार है या नहीं।
ईश्वर के अस्तित्व का वैज्ञानिक प्रमाण तो कहीं नहीं है। तो क्या खुदा, भगवान, गॉड के बारे में भी अदालत में हलफनामे दाखिल करने होंगे?
राम हों या मोहम्मद, ईसा मसीह हों या कृष्ण किसी वैज्ञानिक प्रमाण के मोहताज नहीं हैं। ये लोगों की भावनाओं, उनकी आस्थाओं का प्रतीक हैं।
इन पर सवालिया निशान लगाना ऐसा ही जैसे यह कहना कि हवा का रंग क्या होता है? या खुशबू का आकार कैसा है?
बार-बार इस तरह के सवाल क्यों उठते हैं? आस्था पर आघात क्यों लगता है? मामला चाहे पैगंबर साहब के कार्टूनों का हो या देवी-देवताओं के नग्न चित्रों का।
आस्था पर कुठाराघात करने वाला अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का सहारा लेता है और इस तरह की कार्रवाई का विरोध करने वाला भी तर्कसंगत नहीं होता। एक दार्शनिक ने कहा था- तुम्हारी अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता वहाँ खत्म हो जाती है, जहाँ मेरी नाक शुरू होती है।
यानी किसी के व्यक्तित्व, उसके मन, उसकी भावनाओं पर प्रहार किसी तरह भी वाजिब नहीं ठहराया जा सकता है।
आस्था के प्रश्न उठाने और उसे सतही ढंग से झुठलाने की सारी प्रक्रिया बार-बार इसीलिए दोहराई जा रही है क्योंकि मुद्दों पर परिपक्व तरीके से बहस करने की राजनीतिक परंपरा अभी तक ठीक से स्थापित नहीं हो सकी है।
राम के अस्तित्व पर प्रश्नचिन्ह लगाने की कोई आवश्यकता नहीं थी। अंततः सरकार को भी यह समझ में आ गया और उसने अपना हलफनामा वापस ले लिया।
सरकार ही नहीं, सभी राजनीतिक दलों को यह समझदारी दिखानी चाहिए और बहसों को हमेशा मुद्दों पर केंद्रित रखना चाहिए, राजनीति के अखाड़े में धर्म पर बहस, मंदिरों-मस्जिदों में राजनीतिक बहस हमेशा से जटिलता पैदा करते रहे हैं।
बहस अगर सेतु समुद्रम पर है तो उसी पर केंद्रित रहनी चाहिए, पुरातत्वविदों की राय सभी पक्षों को माननी चाहिए और धर्मनिरपेक्ष लोकतंत्र में सबकी धार्मिक भावनाओं का सम्मान करना चाहिए। धार्मिक भावनाओं का राजनीतिकरण करना भी उसके प्रति असम्मान प्रदर्शित करना ही है।