- क़ुर्रतुलऐन (वकील, सुप्रीम कोर्ट)
भारत की सुप्रीम कोर्ट ने अपने 2:1 से विभाजित एक फ़ैसले में बाबरी मस्जिद-राम जन्मभूमि पर मालिकाना हक़ से जुड़े मामले में की गई अपील को पांच या अधिक जजों की बेंच के पास भेजने से इनकार कर दिया। इसके दो स्पष्ट संदेश हैं जिन्हें सभी देख सकते हैं।
पहला यह कि अयोध्या मामले में मालिकाना हक़ पर सुनवाई पूरी तरह से केस के मेरिट के आधार पर ही की जाएगी और दूसरा यह कि संवैधानिक बेंच को भेजने पर जजों का मत विभाजित था और जस्टिस नज़ीर फ़ैसला सुनाते हुए केस के 'संदर्भ' की सरल व्याख्या पर बेंच में शामिल दो अन्य जजों से सहमत नहीं हुए।
बाबरी मस्जिद-राम जन्मभूमि के मालिकाना हक़ वाले केस को अधिक जजों की पीठ के पास भेजे जाने की मुसलमान पक्ष की अपील की असल वजह 1994 में इस्माइल फ़ारूक़ी मामले में की गईं पांच जजों की बेंच की टिप्पणियों से जुड़ी हैं।
1993 के अयोध्या एक्ट के तहत अधिग्रहित की गई कुछ ज़मीन के अधिग्रहण को चुनौती देने वाली याचिका पर फ़ैसले में अदालत ने कहा था कि मस्जिद में नमाज़ पढ़ना इस्लाम धर्म में न ज़रूरी है और न ही धर्म का अभिन्न अंग है। ये अदालत विवादित जगह पर हिंदू मंदिर होने या न होने के बारे में राष्ट्रपति की ओर से भेजे गए प्रश्न पर भी सुनवाई कर रही थी।
याचिकाकर्ता का कहना था कि नमाज़ की आवश्यकता पर की गई इस टिप्पणी ने इलाहाबाद हाई कोर्ट के 2010 में आए फ़ैसले और साथ ही सुप्रीम कोर्ट के समक्ष दायर की गई याचिकाओं को प्रभावित किया था। और चूंकि इस्माइल फ़ारूक़ी मामले में पांच जजों का फ़ैसला था इसलिए मौजूदा तीन जजों की बेंच को इसकी सुनवाई नहीं करनी चाहिए।
सुप्रीम कोर्ट की तीन जजों की बेंच ने इसी प्रश्न की समीक्षा की और अंततः 2:1 से किए निर्णय से तय कर दिया कि इस्माइल फ़ारूक़ी मामले में की गईं टिप्पणियां ज़मीन अधिग्रहण के संदर्भ में की गईं थीं और इसलिए बड़ी बेंच के समक्ष भेजे जाने की अपील को स्वीकार नहीं किया जा सकता है। और किसी फ़ैसले में की गईं टिप्पणियों को उसमें उठाए गए मुद्दे के संदर्भ में ही देखा जाना चाहिए।
ये राय जस्टिस अशोक भूषण ने ज़ाहिर की और भारत के मुख्य न्यायाधीश जस्टिस दीपक मिश्रा ने इस पर सहमति जताई। जस्टिस मिश्रा इसी साल दो अक्तूबर को रिटायर हो रहे हैं।
लेकिन ये भी ग़ौर करने लायक़ बात है कि बेंच के तीसरे जज जस्टिस नज़ीर ने असहमति जताते हुए कहा कि इस्माइल फ़ारूक़ी मामले में की गईं टिप्पणियों को बड़ी बेंच के पास भेजा जाना चाहिए क्योंकि पहले दिए गए कई फ़ैसलों की रोशनी में इस सवाल की विस्तृत समीक्षा होनी चाहिए कि क्या कोई क्रिया किसी धर्म का अभिन्न हिस्सा है या नहीं।
जस्टिस नज़ीर की राय थी कि इस्माइल फ़ारूक़ी मामले में की गई ये टिप्पणी कि 'मस्जिद इस्लाम का अभिन्न हिस्सा नहीं है और मुसलमान कहीं भी नमाज़ पढ़ सकते हैं, यहां तक कि खुले स्थान में भी' पर्याप्त विचार-विमर्श के बिना की गई थी और धार्मिक स्वतंत्रता देने वाले भारत के संविधान के अनुच्छेद 25 के तहत किसी धर्म के लिए क्या 'ज़रूरी' और 'अभिन्न' माना जाए, इसका समाधान होना चाहिए।
अदालत के समक्ष पेश इस बात पर कि इस्माइल फ़ारूक़ी मामले में की गई टिप्पणियों ने इलाहाबाद हाई कोर्ट के फ़ैसले को प्रभावित किया है, तीनों जजों ने सहमति जताई कि इस मत-विभाजित फ़ैसले में सिर्फ़ इन्हें निर्णायक कारक न माना जाए। बेंच ने रेस्पोंडेन्ट्स (प्रतिवादी) की ओर से की गई रेस जुडिकाटा (वो मामला जिस पर पहले ही सक्षम अदालत फ़ैसला दे चुकी हो) की याचिका को भी सर्वसम्मति से इस आधार पर ख़ारिज कर दिया कि मौजूदा अपील ने अदालत के सामने अलग-अलग मुद्दों को उठाया है।
मामले को बड़ी संवैधानिक बेंच के समक्ष भेजने के पक्ष में एक और ठोस तर्क देते हुए याचिकाकर्ताओं ने कहा था कि ये मामला एक 'महत्वपूर्ण मामला' है और पिछले कुछ समया में सुप्रीम कोर्ट ने सिर्फ़ 'महत्वपूर्ण' होने के आधार पर ही कई मामलों को बड़ी बेंचों के पास भेजा है।
हालांकि ये तर्क भी सिर्फ़ असहमत जज जस्टिस नज़ीर को ही आकर्षित कर सका जिन्होंने 'बहुविवाह' और 'मादा जननांग विकृति' (फ़ीमेल जेनाइटल म्यूटिलेशन) के ख़िलाफ़ दायर मामलों को इसी आधार पर बड़ी बेंचों के पास भेजे जाने का उल्लेख किया। लेकिन बाक़ी दो जजों का मानना था कि आमतौर पर अपील को दो जजों की बेंच के पास भेजा जाता है, लेकिन मामले के महत्व को देखते हुए ही मौजूदा याचिकाओं की सुनवाई तीन जजों की बेंच कर रही है।
भविष्य पर असर
इस आदेश का असर भविष्य की कार्यवाहियों पर भी पड़ेगा। इस आदेश ने सबसे पहले तो समकालीन भारत के शायद सबसे चर्चित क़ानूनी विवाद यानी बाबरी मस्जिद-राम जन्मभूमि केस को सुनने वाली बेंच की संख्या तय कर दी है। साथ ही, जस्टिस दीपक मिश्रा ने ये भी तय कर दिया है कि 29 अक्तूबर से इस मामले की सुनवाई शुरू होगी।
इस्माइल फ़ारूक़ी मामले में की गईं टिप्पणियों को सिर्फ़ एक ख़ास संदर्भ में ही देखा जाना चाहिए, अपने रेफ़रल ऑर्डर में सुप्रीम कोर्ट ने इसका ज़िक्र करते हुए उन टिप्पणियों के असर को भी कम कर दिया है जो कि इलाहाबाद हाई कोर्ट के 2010 के आदेश और सुप्रीम कोर्ट के समक्ष दायर याचिकाओं की सुनवाई के दौरान की गई टिप्पणियों में साफ़ दिखा था। और इससे याचिकाकर्ताओं को ज़रूर राहत मिली होगी जिन्होंने 2010 के इलाहाबाद हाई कोर्ट के आदेश में इस्माइल फ़ारूक़ी मामले के प्रभाव की ओर सुप्रीम कोर्ट का ध्यान खींचा था।
साथ ही, गुरुवार के फ़ैसले ने मुसलमानों के प्रार्थना करने (नमाज़ पढ़ने), यहां तक कि खुले स्थानों पर भी नमाज़ पढ़ने के अधिकार से कोई छेड़छाड़ नहीं की है। निकट भविष्य में इस वजह से कुछ रोचक चुनौतियां आ सकती हैं क्योंकि कई राज्यों में खुले स्थानों पर मुसलमानों के प्रार्थना करने से सांप्रदायिक तनाव हुए हैं। हाल के समय में खुले में यानी सरकारी ज़मीन पर नमाज़ पढ़ने को लेकर ख़ूब राजनीति देखी जा रही है।
लेकिन सबसे अहम बात ये है कि अपनी तमाम जटिलताओं के बावजूद न्याय प्रक्रिया बाबरी मस्जिद-राम जन्मभूमि के इर्द-गिर्द हो रही राजनीति से पूरी तरह बेअसर है और यही इंसाफ़ का सही तक़ाज़ा है। अब जब कि बेंच की संख्या का प्रश्न ख़त्म हो गया है, अपीलों में बदल गए इन मुक़दमों में जटिल क़ानूनी सिद्धांत तो शामिल हैं ही लेकिन कहीं न कहीं चाहे धीमे स्वर में ही इस मामले में सामाजिक, धार्मिक और ऐतिहासिक संदर्भ भी सबूत की तरह अदालत के सामने पेश किए जाएंगे।
मूल मुक़दमों के मसौदे जिस ख़ूबसूरती से तैयार किए गए थे और आम जनमानस में भावनाओं का सैलाब लाने वाले इस मुक़दमे के तथ्यों पर जिस तरह क़ानूनी दावं पेंच अब तक खेले गए हैं उससे ये मुक़दमा और भी रोचक हो गया है। ये भावनाएं सकारात्मक थीं या नकारात्मक ये तो लोगों की अपनी समझ पर छोड़ देना चाहिए। लेकिन फ़िलहाल तो ये मामला देश की सर्वोच्च अदालत के सामने है और इसमें अभी बहुत कुछ देखा जाना बाक़ी है।