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Last Updated : शुक्रवार, 4 मई 2018 (15:28 IST)

नज़रिया: 'नरेंद्र मोदी के ख़िलाफ़ विपक्षी एकता की राह के रोड़े हैं राहुल गांधी'

नज़रिया: 'नरेंद्र मोदी के ख़िलाफ़ विपक्षी एकता की राह के रोड़े हैं राहुल गांधी' - narendra modi
- अनिल जैन (वरिष्ठ पत्रकार)
 
सोलहवीं लोकसभा का कार्यकाल ख़त्म होने में अब महज़ बारह महीने बाकी रह गए हैं, लिहाजा 17वीं लोकसभा के चुनाव की सुगबुगाहट तेज़ हो गई है। केंद्र में सत्तारूढ़ गठबंधन का नेतृत्व कर रही भारतीय जनता पार्टी जहां ज़ोर-शोर से अगले चुनाव की तैयारी में जुट गई है, वहीं मुख्य विपक्षी दल कांग्रेस के दालान में विपक्ष को एकजुट करने के मामले में अभी भी उदासीनता ही पसरी पड़ी दिखाई दे रही है।
 
उसकी इस सुस्ती की वजह से ही कुछ प्रमुख क्षेत्रीय दलों के नेताओं के बीच भाजपा और कांग्रेस से इतर तीसरे मोर्चे या फ़ेडरल फ्रंट के गठन की दिशा में मेल-मुलाकातों का दौर शुरू हो गया है। समाजवादी पार्टी के अध्यक्ष अखिलेश यादव ने हाल ही में तेलंगाना के मुख्यमंत्री के चंद्रशेखर राव से मुलाकात कर तीसरे मोर्चे के गठन को लेकर लंबी बातचीत की है, राव और पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी पिछले एक महीने से तीसरे मोर्चे के गठन की कवायद में जुटे हुए हैं।
 
 
इस दौरान उनकी पूर्व प्रधानमंत्री और जनता दल (सेक्यूलर) के नेता एचडी देवेगौडा, द्रविड मुनेत्र कषगम (डीएमके) नेता एमके स्टालिन, बीजू जनता दल के अध्यक्ष तथा ओडिशा के मुख्यमंत्री नवीन पटनायक, कांग्रेस से बग़ावत कर अलग पार्टी बना चुके छत्तीसगढ के पूर्व मुख्यमंत्री अजीत जोगी, झारखंड मुक्ति मोर्चा के अध्यक्ष तथा पूर्व मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन, ऑल इंडिया मजलिस-ए-इत्तेहादुल मुसलमीन (आईएमआईएम) के अध्यक्ष असदुद्दीन ओवैसी से भी बात हो चुकी है।
 
 
इन सभी नेताओं ने तीसरे मोर्चे को लेकर सकारात्मक प्रतिक्रिया दी है, जिससे उत्साहित होकर चंद्रशेखर राव ने 10 मई को हैदराबाद में इन सभी नेताओं की औपचारिक बैठक बुलाई है, इस बैठक के लिए बहुजन समाज पार्टी की अध्यक्ष मायावती को भी बुलाए जाने की संभावना है। तीसरे मोर्चे के गठन की दिशा में पहलकदमी कर रहे नेताओं की कोशिश भाजपा के असंतुष्ट नेताओं का समर्थन हासिल करने की भी है। इस सिलसिले में पूर्व केंद्रीय मंत्री यशवंत सिन्हा, शत्रुघ्न सिन्हा और अरुण शौरी की ममता बनर्जी से मुलाकात हो चुकी है।
 
 
तीसरे मोर्चे की असलियत
दरअसल, मोर्चे और विकल्प बनाने की कवायदें हर लोकसभा चुनाव के पहले इसी तरह होती रही हैं लेकिन समस्या तब पैदा होती है जब अपने-अपने हितों को लेकर एकजुट होने वाले विपक्षी दल तात्कालिक स्वार्थों के फेर में एकता तोड़ने में जरा भी मुरव्वत नहीं दिखाते इसीलिए आज तक कोई तीसरा विकल्प स्थायी शक्ल नहीं ले पाया। इस समय भी क्षेत्रीय नेताओं की गतिविधियों और बयानों को फौरी तौर पर देखा जाए तो लगता है कि बस तीसरा मोर्चा अब बनने ही वाला है, लेकिन हक़ीक़त में मामला इतना आसान नहीं है।
 
 
देश की राजनीति में तीसरे मोर्चे की अवधारणा का उदय 1989 के लोकसभा चुनाव के समय हुआ था, उस समय भाजपा को उसके उग्र हिंदुत्ववादी आग्रहों के चलते बाकी गैर-कांग्रेस दलों ने राजनीतिक तौर पर अछूत मान लिया था। उस समय भ्रष्टाचार के मुद्दे पर कांग्रेस से विद्रोह कर बाहर आए विश्वनाथ प्रताप सिंह की अगुवाई में जनता दल का गठन हो चुका था, जिसका उत्तर प्रदेश, बिहार, राजस्थान, ओडिशा, कर्नाटक, हरियाणा आदि राज्यों में खासा जनाधार था। इस नाते वह तीसरे मोर्च की धुरी था।
 
उसकी अगुवाई में ही दक्षिण और पूर्वोत्तर के क्षेत्रीय दलों ने मिलकर राष्ट्रीय मोर्चा बनाया था, वह राष्ट्रीय मोर्चा भाजपा और वामपंथी दलों के बाहरी समर्थन से अल्पकाल के लिए सत्ता में भी आया, लेकिन सत्ता से हटते ही बिखर भी गया।
 
उस प्रयोग के बाद 1996 के आम चुनाव के बाद एक बार फिर गैर-कांग्रेस और गैर-भाजपा दलों का संयुक्त मोर्चा बना, उस मोर्चे की धुरी भी जनता दल ही था। वह मोर्चा भी सत्ता में आया, लेकिन थोड़े ही समय बाद न सत्ता रही और न ही वह मोर्चा रहा। सिर्फ़ संयुक्त मोर्चा ही नहीं बिखरा बल्कि उसकी धुरी बना जनता दल भी कई टुकडों में बिखर गया।
 
 
इस प्रकार देश में अखिल भारतीय स्वरूप वाली दो ही पार्टियां रह गईं- कांग्रेस और भाजपा, अन्य क्षेत्रीय दल अपनी सुविधा के मुताबिक इन्हीं दोनों पार्टियों की छतरी तले बनने वाले गठबंधन में अपना ठौर तलाशते रहे।
 
नेतृत्व का संकट
अभी जो क्षेत्रीय पार्टियां तीसरा मोर्चा बनाने की कोशिशों में जुटी हैं वे सभी अपने-अपने सूबे में असर रखने वाली पार्टियां हैं, उनमें एक भी पार्टी ऐसी नहीं है जिसका अपने सूबे से बाहर थोड़ा भी जनाधार हो। फिर इन पार्टियों में कोई ऐसा नेता भी नहीं है जिसका नेतृत्व सबको सहज रूप से स्वीकार हो जाए। ऐसे में तीसरे मोर्चे की कवायद के परवान चढने को लेकर शंका करने की पूरी-पूरी गुंजाइश है।
 
 
विपक्षी खेमे में इस वक्त कांग्रेस ही एकमात्र ऐसी पार्टी है जिसकी सत्ता महज चार राज्यों तक सिमट जाने के बावजूद उसकी मौजूदगी अखिल भारतीय है और इस नाते व्यापक और कारगर विपक्षी एकता की धुरी भी वही बन सकती है, हालांकि ऐसी किसी एकता में भी कई पेंच हैं।
 
जो पार्टियां तीसरा मोर्चा बनाने के लिए आतुर हैं उनमें ज्यादातर ऐसी हैं जो कांग्रेस से हाथ नहीं मिला सकतीं क्योंकि उनके अपने राज्यों में उन्हें चुनावी दो-दो हाथ कांग्रेस से ही करना है, लेकिन हैरानी की बात ये है कि जिन पार्टियों के साथ कांग्रेस का सीधा मुकाबला नहीं होना है, उनको साथ लेकर भी वह नेतृत्व की भूमिका निभाने के लिए उत्साहित नजर नहीं आ रही है, जबकि वह ख्वाब बुन रही है 2019 में भाजपा को सत्ता से बेदखल करने का।
 
 
राष्ट्रपति और उपराष्ट्रपति के चुनाव के दौरान कांग्रेस ने ज़रूर विपक्ष को एकजुट करने की दिशा में पहल की थी जिसमें वह काफी हद तक सफल भी रही थी, लेकिन लगता है कि गुजरात के चुनाव में बेहतर प्रदर्शन तथा कुछ उप-चुनावों में मिली जीत से कांग्रेस के रणनीतिकार बौरा गए हैं। उन्हें लगता है कि विभिन्न मोर्चों पर नाकाम रही मोदी सरकार से हताश-निराश जनता एक फिर कांग्रेस को अपनाने को बाध्य हो जाएगी और चुनाव बाद जरूरत पड़ने पर बाकी विपक्षी दलों की भी मजबूरी हो जाएगी कि वे कांग्रेस की छतरी के नीचे आ जाएँ।
 
 
शायद यही सोच कांग्रेस को विपक्षी एकता की दिशा में पहलकदमी करने से रोक रही है। कोई तीन महीने पहले कांग्रेस अध्यक्ष का पद छोड़ देने के बावजूद सोनिया गांधी ने ज़रूर विपक्षी एकता को लेकर 18 दलों की बैठक बुलाकर यह संकेत देने की कोशिश की थी कि कांग्रेस विपक्षी एकता को लेकर गंभीर है, लेकिन उनकी वह पहल भी शरद यादव और शरद पवार जैसे नेताओं के दबाव का ही नतीजा थी।
 
उस बैठक में एक-दूसरे के धुर विरोधी माने जाने वाले वामपंथी नेताओं और ममता बनर्जी को तथा अखिलेश यादव और मायावती की पार्टियों को एक साथ लाने के लिए भी सारी मशक्कत कांग्रेस नेतृत्व ने नहीं बल्कि शरद यादव ने की थी।
एकता की धुरी को लेकर असमंजस
उस बैठक में शामिल सभी विपक्षी नेता इस बात तो एकमत थे कि एकता होनी चाहिए, मगर इस एकता को व्यावहारिक कैसे बनाया जाए, उसकी धुरी और स्वरूप क्या हो, इन सवालों पर कोई चर्चा नहीं हुई, जब तक सोनिया गांधी कांग्रेस की अध्यक्ष थीं, तब तक यह सवाल गौण था, लेकिन पार्टी की कमान राहुल गांधी के हाथों में आने के बाद स्थिति बदल गई है।
 
 
वैसे, सबसे बड़ी विपक्षी पार्टी का मुखिया होने के नाते व्यावहारिक तौर पर विपक्षी गठबंधन के नेतृत्व का दावा तो राहुल का ही बनता है लेकिन उनको नेता मानने के मामले में कुछ विपक्षी क्षत्रपों का अहम आड़े आता है, इन क्षत्रपों में ममता बनर्जी और शरद पवार मुख्य हैं, जिनके राजनीतिक जीवन की शुरुआत भी कांग्रेस से ही हुई और लंबा समय भी कांग्रेस में ही गुज़रा।
 
इन दिग्गजों को लगता है कि वरिष्ठता और अनुभव के लिहाज से उनकी अगुवाई में ही विपक्षी एकता होनी चाहिए या विपक्ष को वही एकजुट कर सकते हैं, राहुल गांधी नहीं।
 
 
दरअसल, कांग्रेस अगर सचमुच ही विपक्षी एकता के लिए गंभीर होती तो उसने पिछले दिनों देश की राजधानी में मोदी सरकार के खिलाफ जो तीन बड़े आयोजन किए (कठुआ गैंगरेप मामले में कैंडल मार्च, संविधान बचाओ सम्मेलन और जनाक्रोश रैली) उनमें वह अन्य विपक्षी दलों को भी आमंत्रित करती, उसके ऐसा करने से न सिर्फ उसके ये कार्यक्रम और ज्यादा प्रभावी होते, बल्कि व्यापक विपक्षी एकता की ज़मीन भी तैयार होती।
 
 
लेकिन कांग्रेसियों को शायद लगा कि अगर इन कार्यक्रमों में अन्य विपक्षी दलों को शामिल कर लिया गया तो दूसरे विपक्षी नेताओं की मौजूदगी के चलते उनके नए-नवेले अध्यक्ष का आभामंडल फीका पड़ जाएगा। गठबंधन की राजनीति को लेकर कांग्रेस के साथ एक समस्या यह भी है कि वह आमतौर पर उन्हीं राज्यों में गठबंधन करने की इच्छुक रहती है जहां वह संगठनात्मक तौर पर बहुत कमज़ोर है और उसका जनाधार नहीं है। मसलन, उत्तर प्रदेश और बिहार।
 
 
लेकिन जिन राज्यों में उसका भाजपा से सीधा मुकाबला है, वहां सीमित प्रभाव क्षेत्र वाली छोटी पार्टियों के साथ गठबंधन में उसकी कोई रुचि नहीं होती। उसकी इस प्रवृत्ति का उसे अक्सर खामियाजा भी भुगतना पड़ता है, इस सिलसिले में पिछले दिनों हुए गुजरात विधानसभा के चुनाव ताज़ा उदाहरण है। अगर वहां उसने शरद पवार की एनसीपी, बसपा और भारतीय ट्राइबल पार्टी के साथ ठीक-ठाक गठबंधन कर लिया होता तो वह गुजरात में भाजपा को सत्ता से बेदख़ल करने की अपनी हसरत शायद पूरी कर सकती थी।
 
 
गुजरात जैसी गलती ही उसने असम में बदरुद्दीन अज़मल की पार्टी से गठबंधन न करके की थी और सत्ता गंवाई थी, कोई आश्चर्य नहीं कि जो गलती उसने गुजरात और असम में की उसे वह मध्य प्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ में भी दोहराए।
 
दरअसल, देश की राजनीति में गठबंधन का युग शुरू हुए लगभग तीन दशक हो चुके हैं और उसमें दस साल तक कांग्रेस भी गठबंधन सरकार का नेतृत्व कर चुकी है, इसके बावजूद पिछले पांच वर्षों के दौरान लुटी-पिटी कांग्रेस का नेतृत्व और उसके सलाहकार अभी भी इस ज़मीनी हक़ीक़त को हजम नहीं कर पा रहे हैं कि केंद्र में किसी एक पार्टी के अकेले राज करने के दिन अब लद चुके हैं।
 
 
वे इस बारे में उस भाजपा से भी सीखने को तैयार नहीं है जिसने पिछले तीन दशक में अपने प्रभाव क्षेत्र का व्यापक विस्तार कर लेने के बावजूद गठबंधन की राजनीति को पूरी तरह अपनाया है। चुनाव में सीटों का बंटवारा हो या सत्ता में साझेदारी, किसी भी मामले में वह अपने गठबंधन के सहयोगियों का साथ किसी न किसी तरह निभा लेती है, हालाँकि तेलुगु देशम पार्टी भाजपा के नेतृत्व वाले गठबंधन से अलग हो गई है।
 
 
उदारता और राजनीतिक समझदारी के बूते ही अटल बिहारी वाजपेयी की अगुवाई में 27 दलों के गठबंधन के साथ छह वर्षों तक उसकी सरकार चलती रही। पिछले चुनाव में तो पूर्ण बहुमत मिल जाने के बावजूद उसने अपने गठबंधन के सहयोगियों को सत्ता में साझेदार बनाने में कोई संकोच नहीं दिखाया।
 
बहरहाल, अगले आम चुनाव के मद्देनज़र विपक्षी एकता होगी या नहीं, और होगी तो उसकी शक्ल क्या होगी, कौन उसकी धुरी बनेगा, इन सारे सवालों का जवाब कर्नाटक के चुनाव नतीजों पर निर्भर करेगा, अगर वहां कांग्रेस जीतती है तो विपक्षी एकता की अगुवाई वही करेगी, अगर नतीजे उसकी उम्मीदों के विपरीत रहते हैं तो उसे अपने चुनिंदा सहयोगियों के साथ ढीला-ढाल गठबंधन करके ही लोकसभा चुनाव के मैदान में उतरना होगा।
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