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Last Modified: शनिवार, 28 अक्टूबर 2017 (11:29 IST)

मुंबई लोकल में सब कुछ...एक्शन, ड्रामा, इमोशन

मुंबई लोकल में सब कुछ...एक्शन, ड्रामा, इमोशन | Mumbai Local Train
- किंजल पांड्या (मुंबई से)
एक महीने पहले मुंबई में रेलवे स्टेशन के फुटओवर ब्रिज पर भगदड़ में 23 लोगों की मौत हो गई थी। रेलवे के अधिकारियों के मुताबिक, अचानक हुई बारिश की वजह से मुंबई सेंट्रल के इस स्टेशन के संकरे पुल पर लोगों की भीड़ अधिक होने की वजह से ये हादसा हुआ।

यह हादसा मुंबई में यात्रियों को रोज़ाना होने वाली मुश्किलों का एक शर्मनाक उदाहरण था। बीते तीन महीनों में शायद मुंबई ने बेहद बुरे दिन देखे हैं। भारी बारिश की वजह से बाढ़ और तीन इमारतों के ढहने से लेकर इस भगदड़ तक, मुंबई में रोज़ाना सफ़र करने वालों की मुश्किलें हद से ज़्यादा बढ़ी हैं।
 
सही सलामत लौटेंगे या नहीं!
मुंबई में एक प्रचलित कहावत है- काम के लिए घर से निकलते वक़्त उन्हें पता नहीं होता कि वो सही-सलामत वापस लौटेंगे भी या नहीं। मुंबई की चर्चित लोकल ट्रेनों में यात्रा करने के अपने अनुभव और अब तक हुए कई आतंकी हमलों की वजह से वो ऐसा कहते हैं। मुंबई में लोकल ट्रेन को शहर की लाइफ़लाइन कहा जाता है। रोज़ाना लोकल में क़रीब 80 लाख लोग सफ़र करते हैं। अब तक हजारों लोग लोकल ट्रेनों से गिरकर या रेलवे पटरी पार करते समय हादसों के चलते जान गंवा चुके हैं।
 
इन ट्रेनों को शहर की ऊर्जा और लगन दिखाने के लिए बॉलीवुड की फिल्मों में भी लिया गया, लेकिन असलियत ये है कि लोकल ट्रेनें ग्लैमर से कोसों दूर हैं। मुंबई के लोगों के पास विकल्प नहीं हैं, ट्रैफिक और ख़राब सड़कों से बचने के लिए लोग इन ट्रेनों में सफ़र करते हैं।
 
मुझे लोकल ट्रेनों में सफ़र करते हुए 10 साल से अधिक हो गया है और मेरा अनुभव मिला-जुला है। हाल ही के वर्षों में मैंने लंदन की ट्यूब, न्यूयॉर्क के सबवे, दिल्ली और पेरिस की मेट्रो में भी सफ़र किया है लेकिन मुंबई की लोकल ट्रेनों का सफ़र इन सब से अलग है।

मेरी हर सुबह भीड़ भरी ट्रेन में सफ़र के साथ शुरू होती है। मैं रोज़ाना ऑफिस जाने और घर आने के लिए लोकल ट्रेन का इस्तेमाल करती हूं। तीन घंटे के सफ़र में मैं जो देखती हूं वो आपको बता रही हूं। लोकल ट्रेन में क्षमता से दोगुना यात्री एक बार में सफ़र करते हैं। इसका मतलब है कि मैं सही से खड़ी भी नहीं हो पाती।
 
सुबह-सुबह की लोकल ट्रेन
मैंने ट्रेन में सफ़र करना तब शुरू किया जब 90 के दशक में मैं स्कूल में थी। रविवार का मतलब परिवार के साथ बाहर घूमना होता था। मैं तब सोचती थी कि काश मैं कॉलेज में होती तो रोज़ छत्रपति शिवाजी टर्मिनस (CST) आ सकती। अब भी सीएसटी आने पर मुझे वैसा ही महसूस होता है।
 
हाईस्कूल के दौरान मैंने लोकल में सफ़र करने वालों को जानना शुरू किया। यही वो समय था जब असल मायने में मुझे मुंबई की लोकल ट्रेनों में लोगों की ज़िंदगी को क़रीब से देखने का मौका मिला। जब लोकल ख़राब हो जाए तो शहर थम जाता था। ट्यूब, सबवे में सफ़र के दौरान नीचे देखते, गाने सुनते, अख़बार या किताब पढ़ते लोगों के मुक़ाबले लोकल ट्रेन में सफ़र करने वालों के पास करने के लिए ज़्यादा चीजें हैं।
 
ट्रेन, दोस्त और लड़ाइयां
मुंबई की लोकल ट्रेनों में बहुत से लोग ग्रुप में सफ़र करते हैं। यानी लोग एक ही लोकल पकड़ते हैं और उसी ट्रेन में दोस्त बन जाते हैं और धीरे-धीरे एक ग्रुप बन जाता है। लंबे सफ़र के दौरान ये लोग खूब मस्ती-मज़ाक करते हैं, बॉलीवुड के गाने सुनने, पत्ते खेलने से लेकर भजन तक सुनते हैं। महिला बोगी में जन्मदिन मनाए जाते हैं, केक कटते हैं और दूसरी यात्रियों को भी बांटा जाता है।
 
लोकल ट्रेनों में कई ऐसे ग्रुप होते हैं जो मजीरे के साथ भजन गाते हैं। वे घर-परिवार, ऑफिस की राजनीति, बॉलीवुड सितारों और दूसरे दोस्तों के बारे में भी बातें करते हैं। 
 
मुझे अब भी याद है एक लड़की महिला बोगी की अपनी एक दोस्त को बता रही थी, ''मैंने अपनी सास को साफ़ कह दिया है कि मैं सिर्फ सुबह खाना बनाऊंगी। उन्हें हमारे लिए रात का खाना बनाना ही होगा क्योंकि मैं ऑफिस के काम के साथ ये मैनेज नहीं कर सकती। ऑफिस और घंटों के इस सफ़र के बाद उन्हें ये उम्मीद नहीं करनी चाहिए कि मैं घर आकर खाना भी बनाऊंगी।''
 
मुझे लोगों की ज़िंदगी को इस तरह जानने का काफ़ी अभ्यास हो चुका है। इससे मुझे लोगों के विचार और अलग-अलग मुद्दों पर उनकी भावनाओं को समझने में भी मदद मिलती है। इससे मुझे अच्छी और समझदार पत्रकार बनने में भी मदद मिलती है।
 
धक्के खाओ या लड़ो
इस सब मस्ती मज़ाक के अलावा लोकल ट्रेनों में यात्रियों के बीच लड़ाइयां भी खूब होती हैं। लोग पूरी ऊर्जा लगाकर ट्रेन में घुसने की कोशिश करते हैं और इससे लड़ाइयां शुरू होती हैं। लोग चिल्लाते हैं, ''आपने मुझे ऐसे धक्का क्यों दिया'', ''मुझे गलत तरीके से क्यों छुआ''। ये लड़ाइयां जल्दी भी ख़त्म हो जाती हैं या किसी एक के अगले स्टेशन पर उतरने तक जारी भी रहती हैं।
 
लोग कैसे लड़ते हैं ये इस पर भी निर्भर करता है कि वो किस क्लास की बोगी में सफ़र कर रहे हैं। लोकल में फर्स्ट और सेकंड क्लास की बोगी पुरुषों और महिलाओं के लिए अलग-अलग हैं। अगर आप कम पैसे खर्च करके सैकेंड क्लास में सफ़र करना चाहते हैं तो अक्सर झगड़ों के दौरान भद्दी गालियां खूब सुनने को मिलती हैं। लोग महिलाओं के साथ धक्का-मुक्की करते हैं और एक-दूसरे के बाल खींचने से लेकर थप्पड़ मारने और कपड़े फाड़ने की नौबत तक ले आते हैं।
 
ऐसा भी हुआ है कि ट्रेन में घुसने के चक्कर में मेरी शर्ट फट गई क्योंकि पीछे से आने वाले किसी यात्री ने शर्ट पकड़ रखी थी या बोगी में घुसने के लिए शर्ट खींच ली होगी। अगर आप फर्स्ट क्लास में सफ़र करते हैं तो आप महिलाओं और पुरुषों को अंग्रेजी बोलते हुए झगड़ते देख सकते हैं।
 
बढ़ती भीड़ और ट्रैक पर गिरते लोग
कॉलेज के दौरान मेरे साथ ऐसा कई बार हुआ कि मुझे गेट के पास पायदान के सहारे लटककर यात्रा करना पड़ी क्योंकि ट्रेन में भीड़ इतनी होती थी कि मैं अंदर नहीं जा पाती थी। मैं अंदर खड़ी महिलाओं पर चिल्लाती थी ताकि वो मुझे अंदर घुसने दें। यहां ट्रेन चलने से पहले दरवाज़े बंद होने जैसा कोई कॉन्सेप्ट नहीं है। दुनिया के सबसे व्यस्त रहने वाले रेलवे की ये हालत हैरान करने वाली है।
 
सीट पकड़ने के लिए भागो
सफ़र के दौरान दूसरी बेहद शानदार बात ये होती है कि लोग ट्रेन रुकने से पहले ही अंदर घुसने की कोशिश करने लगते हैं। कई बार मुझे इस तरह कूदते हुए सीट के लिए दरवाजे से लटकना पड़ा या किसी दूसरे यात्री की बांह पकड़कर अंदर जाने की कोशिश की ताकि किसी और से पहले सीट ले सकूं। एक बार ये हो गया तो लगता है बहुत बड़ी उपलब्धि है। सीट नहीं मिलने पर आपको लोगों से पूछना पड़ता है कि वो किस स्टेशन पर उतरेंगे ताकि आप उनकी जगह बैठ सकें।
 
पसीना और हर तरफ बदबू
गर्मियों में पसीना काफ़ी आता है और ट्रेनों में बदबू भी खूब आती है। बाहर 35 डिग्री तापमान होता है लेकिन अंदर का तापमान उससे भी कहीं ज़्यादा होता है क्योंकि सफ़र करने वाले लोग अधिक होते हैं। ट्रेनों में कुछ ही पंखे चलते हैं। हालांकि बाहर से हवा आती है लेकिन लोगों के शरीर से गिरने वाली पसीने की बूंदों को रोका नहीं जा सकता और साथ में सफ़र कर रही दूसरी महिलाओं का पसीना भी आपको मिल जाता है।
 
टाइम मैनेजमेंट और ट्रेनों में शॉपिंग
लोकल ट्रेन के सफ़र ने मुझे टाइम मैनेजमेंट अच्छे से सिखाया है। सफ़र के दौरान मैं ख़बरें पढ़ती हूं। वाट्सऐप, फ़ेसबुक जैसे दूसरे ऐप में मैं खोई रहती हूं। इस दौरान कई बार मैं शॉपिंग भी कर लेती हूं क्योंकि महिला बोगी में महिलाएं सामान बेचने के लिए भी चढ़ती हैं। ट्रेन में कान की बालियां, अंगूठी, चूड़ियां और मेकअप का सामान भी मिल जाता है। यही नहीं फैंसी सूट से लेकर फल और सब्जियां भी मिल जाती हैं।
 
पुरुष बोगी में आपको फेरीवाले पेन, नोटबुक, डायरी, कंघियां, पर्स और दवाइयों की किताबें बेचते मिल जाएंगे। ट्रेनों के भिखारियों की मौजूदगी आम बात है। इनमें 10 से लेकर 60 साल तक के लोग होते हैं। कुछ लोग गाते हैं तो कुछ लोग बोगी में झाडू लगाकर पैसे मांगते हैं।
 
लोकल ट्रेन का सफ़र इस बात पर निर्भर करता है कि आप इसे कैसे देखते हैं। आप या तो इसे पसंद करेंगे या इससे नफ़रत। आपको ये सफ़र पसंद है तो आप बहुत कुछ सीखेंगे लेकिन अगर आप इससे नफ़रत करते हैं तो हमेशा शिकायत करते रहेंगे और दूसरों से लड़ते रहेंगे।
 
मैंने लोकल ट्रेन में सफ़र करते हुए बर्दाश्त करना सीखा है। धैर्य रखना मुझे इसी ने सिखाया है और इसमें आपको अलग-अलग बैकग्राउंड के लोग रोज़ मिलते हैं, जिनका एक ही लक्ष्य होता है किसी एक जगह पहुंचना। असल में राष्ट्रनिर्माण का असली उदाहरण यहीं देखने को मिलता है। रोज़ाना।
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