- संजय कुमार (राजनीतिक विश्लेषक और सीएसडीएस के निदेशक)
लोकसभा चुनाव में उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी एक दूसरे को अपने वोट ट्रांसफ़र नहीं कर पाए इसीलिए उनका प्रदर्शन बहुत बुरा रहा, ये नतीजा निकालना थोड़ी जल्दबाज़ी होगी। दोनों पार्टियों ने अपने वोट ट्रांसफ़र करने में अलग-अलग स्तर पर सफलता हासिल की लेकिन दो वजहों से उनका प्रदर्शन बहुत मामूली रहा।
पहला इन चुनावों में दोनों ही पार्टियों के कोर मतदाताओं की संख्या घटी यानी सपा को यादवों और बसपा को दलितों के कम वोट मिले। गठबंधन के कमज़ोर प्रदर्शन का दूसरा कारण है दोनों पार्टियों का अन्य समुदायों पर पकड़ ढीली होना, जो उन्हें पिछले कई चुनावों में वोट देते रहे थे।
ग़ैर-यादव ओबीसी समुदायों में सपा का और ग़ैर-जाटव दलित जातियों में मायावती का जनाधार घटा है। सीएसडीएस ने पोस्ट पोल सर्वे के आंकड़ों का अध्ययन किया, जिसमें ये साफ़ दिखता है कि 64% यादवों ने उन संसदीय क्षेत्रों में बीएसपी को वोट दिया जहां बीएसपी के उम्मीदवार खड़े थे जबकि समाजवादी पार्टी के उम्मीदवारों को 57% यादवों ने वोट किया।
जाटवों ने महागठबंधन के उम्मीदवारों को लगभग एक जैसा ही वोट किया, चाहे वो सपा से रहे हों या बसपा से। सर्वे से पता चलता है कि इनमें 75% ने गठबंधन को वोट किया।
यादव-जाटव भी बीजेपी को गए
गठबंधन की मुश्किल ये थी कि दोनों पार्टियों का अपने कोर वोटरों से पकड़ ढीली पड़ गई। सपा का यादवों में और मायावती का जाटवों में। इससे पहले हुए चुनावों में 80% जाटवों ने बसपा को और 70% यादवों ने समाजवादी पार्टी को वोट किया था।
इससे साफ़ है कि बीते चुनावों के मुक़ाबले 2019 के चुनावों में इन पार्टियों के कोर वोटरों का समर्थन कमज़ोर पड़ा। सर्वे से संकेत मिलता है कि यादवों में से कुछ ने शिवपाल यादव की प्रगतिशील समाजवादी पार्टी के उम्मीदवार को वोट किया, जिससे गठबंधन को नुक़सान हुआ।
इनमें से भी आधे बीजेपी की ओर चले गए। बीजेपी ने जाटवों के वोट बेस में भी सेंध लगाई और 18% जाटवों ने बीजेपी को वोट किया। लेकिन गठबंधन की समस्या यहीं ख़त्म नहीं होती है बल्कि ये तब और बढ़ जाती है जब ग़ैर-जाटव दलित जातियां और ग़ैर-यादव पिछड़ी जातियां बड़े पैमाने पर बीजेपी की ओर चली गईं।
उन चुनावी क्षेत्रों में जहां सपा या बसपा के उम्मीदवार थे, ग़ैर-जाटव दलितों में 39% ने बीएसपी उम्मीदवार को जबकि 46% ने सपा उम्मीदवार को वोट किया। आंकड़े बताते हैं कि क़रीब 50% ग़ैर जावट दलितों ने बीजेपी को वोट दिया।
अन्य जातियों की लामबंदी
ग़ैर-यादव पिछड़ी जातियों में 17% ने गठबंधन को और बड़ी संख्या में (लगभग 72-75%) ने बीजेपी को वोट दिया। इन साक्ष्यों को ध्यान में रखते हुए ये कहना ग़लत होगा कि गठबंधन इसलिए असफल रहा क्योंकि दोनों पार्टियों के वोट एक दूसरे को ट्रांसफ़र नहीं हुए।
यूपी में गठबंधन के कमज़ोर प्रदर्शन का सबसे बड़ा कारण था कि यादव, जाटव और मुसलमानों के अलावा अन्य सभी जातियों के वोटरों का व्यापक झुकाव बीजेपी की ओर हो गया।
राजनीतिक दलों के गठबंधन की उम्र हमेशा ही संदेहास्पद होती है। ऐसे में गठबंधन अधिक कमज़ोर होते हैं और जब गठबंधन के साझीदारों का प्रदर्शन ठीक नहीं रहता तो इन राजनीतिक गठबंधनों के टूटने की संभावना और अधिक हो जाती है। यूपी में कुछ ऐसे ही हालात सामने हैं।
हालांकि चुनावी गणित सपा और बीएसपी के पक्ष में थे लेकिन इसके बावजूद बीजेपी के पक्ष में अन्य वोटरों की लामबंदी से इनकी हार हुई। ये स्वाभाविक है कि अगर गठबंधन काम नहीं कर पाया तो सपा और बसपा को अपने भविष्य की चुनावी रणनीति पर पुनर्विचार करना होगा।
31 सीटों पर सपा दूसरे नंबर पर
अगले उपचुनावों में अकेले जाने की मायावती की घोषणा गठबंधन की हार के बाद का ऐसा ही क़दम है और किसी को हैरानी नहीं होनी चाहिए। गठबंधन के बावजूद कमज़ोर प्रदर्शन के बाद ये तो होना ही था।
लोग उम्मीद कर रहे थे कि इस तरह की घोषणा पहले सपा की ओर से आ सकती थी क्योंकि उसका प्रदर्शन बसपा के मुक़ाबले और बुरा रहा था। सपा केवल पांच सीटें जीत पाई और उसे 17.9% वोट मिले। इस गठबंधन से उसे शायद ही कोई लाभ मिला क्योंकि 2014 के लोकसभा चुनाव में भी उसे पांच सीटें मिली थीं।
वहीं बसपा को इस गठबंधन से अच्छा ख़ासा फ़ायदा हुआ, उसने 10 सीटें मिलीं और 19.3% वोट मिले। ये ध्यान देने वाली बात है कि बसपा को 2014 में एक सीट भी नहीं मिली थी।
सपा क़रीब 31 लोकसभा सीटों पर दूसरे नंबर पर रही लेकिन कम से कम 25 सीटों पर बड़े अंतरों से दूसरे नंबर पर थी। केवल छह लोकसभा सीटें ऐसी थीं जहां 50,000 से कम वोटों के अंतर से वो दूसरे स्थान पर थी।
गठबंधन राजनीति की सीमा
बसपा 20 सीटों पर दूसरे नंबर रही, जिनमें छह पर 50,000 से कम वोटों से उसे हार का सामना करना पड़ा। मछलीशर में तो उसका उम्मीदवार 181 वोटों से हार गया जबकि मेरठ लोकसभा सीट पर उसे महज 4729 वोटों से मात खानी पड़ी। साफ़ है कि सपा के मुक़ाबले बसपा का प्रदर्शन कहीं बेहतर रहा था। अगर बसपा को इन सीटों पर कुछ और वोट मिल जाते तो उसकी सीटें कुछ और बढ़ जातीं।
मैं नहीं समझता कि ये नतीजे गठबंधन राजनीति के ख़ात्मे का संकेत हैं लेकिन इन नतीजों से केवल नकारात्मकता पर आधारित राजनीतिक गठबंधनों की सीमा साफ़ ज़ाहिर हो जाती है। गठबंधन अभी भी सफल हो सकते हैं अगर उनकी बुनियाद सकारात्मक एजेंडे पर हो।
(संजय कुमार सेंटर फ़ॉर द स्टडी ऑफ़ डेवलपिंग सोसाइटीज़ (सीएसडीएस) के निदेशक और प्रोफ़ेसर हैं और ये उनके अपने विचार हैं।)