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Written By BBC Hindi
Last Updated : रविवार, 31 जुलाई 2022 (08:10 IST)

असम में बाढ़ से विस्थापित सैकड़ों लोग अब भी नहीं लौट पा रहे हैं अपने घर- ग्राउंड रिपोर्ट

असम में बाढ़ से विस्थापित सैकड़ों लोग अब भी नहीं लौट पा रहे हैं अपने घर- ग्राउंड रिपोर्ट - ground report on people displaced by assam flood
दिलीप कुमार शर्मा, असम के बोगरीबारी गांव से, बीबीसी हिंदी के लिए
 
असम में इस साल आई बाढ़ के कारण सैकड़ों लोगों की जिंदगी और घर-बार बर्बाद हो गए है। बल्कि बाढ़ खत्म होने के बाद भी सैकड़ों विस्थापित लोग अपने घर नहीं लौट पा रहे हैं। आजाद भारत में आई अबतक की जितनी भी बाढ़ का यहां जिक्र होता है उसमें इस साल की बाढ़ को सबसे बड़ी त्रासदी बताया जा रहा है।
 
साढ़े तीन करोड़ की आबादी वाले असम में इस साल की बाढ़ में 55 लाख से अधिक आबादी प्रभावित हुई है। जबकि बाढ़ के कारण 198 लोगों की जान गई है।
 
असम आपदा प्रबंधन विभाग की तरफ से 26 जुलाई की शाम को जारी की गई बाढ़ रिपोर्ट के अनुसार, अगर प्रदेश के चार जिलों को छोड़ दिया जाए तो इस समय बाकी के सभी 31 जिलों में बाढ़ की स्थिति में पूरी तरह सुधार हो चुका है। अर्थात प्रदेश के अधिकतर जिलों में बाढ़ पूरी तरह खत्म हो गई है लेकिन बावजूद इसके आज भी सैकड़ों बाढ़ पीड़ित अपने घर नहीं लौट पा रहे हैं।
 
नदियों के किनारे मिट्टी के बांध
इस बीच बीबीसी हिंदी की टीम ने तामुलपुर जिले के 2 नंबर बोगरीबारी गांव का दौरा कर उन बाढ़ पीड़ितों से बात की जो बीते एक महीने से पुथिमारी नदी के पास मिट्टी के बने तटबंध पर अपने परिवार के साथ रह रहे हैं।
 
असम में नदी वाले इलाकों में बसे गांवों को बाढ़ के पानी से बचाने के लिए वहां मिट्टी के ऊंचे तटबंधों का निर्माण किया गया था लेकिन इस बार नदी ने जिस तरह अपनी आकृति बदली उसके कारण कई जगह ये तटबंध टूट गए।
 
दरअसल, 1950 में आए भूकंप के बाद असम में बहने वाले शक्तिशाली ब्रह्मपुत्र और उसकी सहायक नदियों का रास्ता बदल गया था। इसके बाद 1960 से 1970 के बीच इन नदियों के किनारे मिट्टी के इन बांधों का निर्माण करवाया गया था।
 
शुरुआत में इन तटबंधों का इस्तेमाल गांव के लोग खेती के लिए किया करते थे लेकिन बाद के दिनों में ये बांध बाढ़ के पानी से गांवों को बचाने का जरिया बन गए।
 
आपदा विभाग की ताजा रिपोर्ट में तामुलपुर जिले में अब भी 892 लोग बाढ़ की चपेट में बताए गए हैं। लेकिन सरकार की इस बाढ़ रिपोर्ट में बोगरीबारी गांव के उन सैकड़ों पीड़ितों का जिक्र नहीं है जो फिलहाल गांव के ही एक ऊंचे तटबंध पर अपने बुजुर्ग माता-पिता और छोटे बच्चों के साथ प्लास्टिक के तंबू वाले अस्थाई शिविरों में रह रहे हैं।
 
शिविर में रहने के लिए मजबूर बाढ़ पीड़ित
कामरूप ग्रामीण जिले के रंगिया शहर होते हुए खांडीकर रेलवे स्टेशन के पास से करीब 5 किलोमीटर आगे बढ़ने पर पुथिमारी नदी के नजदीक इस ऊंचे तटबंध पर बांस और प्लास्टिक के बने अस्थाई शिविर दूर से दिखने लग जाते हैं।
 
उमस भरी गर्मी में परेशान दिख रहे इन सभी लोगों के मकान तटबंध के पास ही हैं लेकिन बाढ़ का पानी निकलने के बाद भी अधिकतर के घरों में घुटने तक कीचड़ भरा है।
 
अपने परिवार के साथ प्लास्टिक से बने एक शिविर के बाहर खड़ी सुमित्रा दास गुस्से में कहती हैं, "तीन दिन तक लगातार हुई बारिश के बाद ही हमारे घर में गर्दन तक पानी भर गया था। ये पिछले जून महीने की बात है। उसके बाद रात करीब 11 बजे नदी के पास वाला तटबंध ही टूट गया।"
 
"उस समय हमारे पास जान बचाकर भागने के सिवाय कोई रास्ता नहीं था। बिजली नहीं थी और लगातार बारिश हो रही थी। हम अंधेरे में किसी तरह अपने दोनों छोटे बच्चों को लेकर ऊंची जगह इस दूसरे तटबंध पर चले आए।"
 
सुमित्रा कीचड़ में दबे अपने घर की तरफ हाथ से इशारा करती हुई धीमी आवाज में कहती हैं, "उस समय हम सबकी जान खतरे में थी। इतनी जल्दबाजी में घर का सामान कैसे निकालते?"
 
बाढ़ का पानी सूखने और वापस घर लौटने के सवाल पर 40 वर्षीया सुमित्रा कहती हैं, "घर कैसे जाएं? घर में घुटने तक कीचड़ भरा है और मकान तहस-नहस हो चुका है। इस तटबंध पर रहते हुए आज एक महीना पांच दिन हो गया है। हम बहुत परेशानी में हैं।"
 
"सरकार खाने के लिए राशन तो दे रही है लेकिन मकान की मरम्मत नहीं होने तक हम घर नहीं लौट सकते। मेरे पति दिहाड़ी मजदूरी कर घर का खर्च चलाते थे लेकिन बाढ़ आने के बाद से कामकाज पूरी तरह बंद है।"
 
"दो बीघा खेती की जमीन थी लेकिन वहां भी बाढ़ के साथ आई कीचड़ मिट्टी ने जमीन को बंजर कर दिया है। खेत से थोड़ा बहुत खाने के लिए धान मिल जाता था। अब हम वहां अगले कई साल तक खेती नहीं कर सकेंगे।"
 
'मुआवजे के नाम पर मिलता कुछ नहीं'
बोगरीबारी गांव की आबादी लगभग 1500 है जहां करीब 85 परिवार इस समय बाढ़ के कारण तटबंध के ऊपर शिविर बनाकर रह रहें है।
 
बाढ़ पीड़ितों के इन 85 घरों में 36 घर मुसलमानों के है लेकिन बाढ़ के कारण दोनों समुदाय के बीच रिश्ता और मजबूत होता दिखा। शिविरों के बाहर खाने-पीने को लेकर लोग एक-दूसरे का ख्याल रखते नजर आए।
 
इसी गांव में रहने वाले जाकिर हुसैन कहते हैं, "पिछले महीने 16 जून को बांध टूटा था, उस दिन से अब तक हम लोग यहां शिविर में ही रह रहे हैं। घर पर जिस तरह परिवार के सदस्यों के साथ मिलकर रहते थे अब गांव के लोगों के साथ उतने ही प्यार से तमाम परेशानियों के बीच यहां रह रहे हैं।"
 
"घर पर रहते तो पानी में डूब जाते, इसलिए बच्चों को लेकर यहां चले आए। गांव में सब लोग एक-दूसरे की तकलीफ में मदद कर रहे हैं। सरकार खाने के लिए दाल-चावल, सरसों का तेल और नमक दे रही है।"
 
"लेकिन मेरा पक्का मकान बाढ़ में गिर गया है और जब तक मकान नहीं बन जाता, हमें इसी जगह रहना होगा। अब भी मेरे घर में गर्दन तक पानी है और आंगन कीचड़ से भरा हुआ है।"
 
सरकार की तरफ से मिलने वाले मुआवजे के संदर्भ में जाकिर कहते हैं, "सरकार के लोग एक महीने के भीतर तीन-चार बार सर्वे कर चुके हैं लेकिन अभी तक हमें कुछ नहीं मिला है।"
 
"सर्वे करने आए लोग केवल मकान मालिक का नाम पूछते हैं और टूटे हुए घर की तस्वीर खींच कर चले जाते हैं। जबकि मकान टूटने के अलावा बाढ़ में घर का सारा सामान और खेत सबकुछ खत्म हो गया है।"
 
"छह बीघा खेत में सालाना दो-ढाई लाख रुपये की कमाई हो जाती थी। अब तो खेत में मिट्टी भर गई है और हम वहां सालों तक खेती नहीं कर सकेंगे। पता नहीं आगे गुजारा कैसे होगा?"
 
इस गांव के लोग बताते है कि इससे पहले साल 2000 में यह बांध टूटा था उसके बाद 2004 और 2020 में भी टूटा।
 
उनका कहना है कि सरकार नुकसान को लेकर सर्वे जरूर करती है लेकिन मुआवजे के नाम पर कुछ नहीं मिलता। जब तक प्रशासन के लोग सर्वे करके सरकार को रिपोर्ट सौंपते हैं, तब तक अगली बाढ़ आने का समय हो जाता है।
 
बाढ़ ने पोस्टल पता बदल दिया
48 साल के ज़ाकिर बाढ़ की त्रासदी को याद करते हुए बताते हैं कि किस तरह बीते सालों में आई भीषण बाढ़ ने उनके पोस्टल पते को बदल कर रख दिया।
 
वो कहते हैं, "साल 1972 से पहले हमारा परिवार यहां से करीब 50 किलोमीटर दूर हाजो शहर में रहता था। लेकिन बाढ़ के कारण वहां हमारा मकान पानी में चला गया जिसके बाद हम लोग बोगरीबारी में आकर बस गए। जाहिर सी बात है हमारे यहां आते ही हमारा पोस्टल पता भी बदल गया। इससे कई सारी परेशानियां उठानी पड़ीं।"
 
"खासकर जब एनआरसी से जुड़े दस्तावेज या फिर मतदान से संबंधित कोई कागजात डाक के जरिए भेजे जाते है तो पता बदलने पर कई बार लोगों को नहीं मिल पाते। मैंने कई ऐसे लोगों के बारे में सुना है जिनके पास नागरिकता से जुड़े सारे कागजात हैं लेकिन उनका पुराना पता बदल जाने के कारण उन पर एकतरफा कार्रवाई हुई है।"
 
"क्योंकि अगर किसी कानूनी सुनवाई से जुड़ा कोई कागज डाक से भेजा जाए और अगर वो सही व्यक्ति तक नहीं पहुंचे तो जीवन भर परेशानी उठानी पड़ती है। हमारे बोगरीबारी से भी बाढ़ के कारण हबीबुर रहमान का परिवार दूसरी जगह चला गया है।"
 
असम में प्रमुख तौर पर बहने वाले ब्रह्मपुत्र और बराक नदी समेत इनकी एक दर्जन से ज्यादा सहायक नदियों पर करीब साढ़े चार हजार किलोमीटर तक मिट्टी के तटबंध बने हुए है।
 
बांधों की मरम्मत
लंबे समय से नदी तटबंध के निर्माण कार्य से जुड़े अखिल असम जल संसाधन ठेकेदार संघ के अध्यक्ष मुही गोहाईं कहते हैं, "1950 में आए भूकंप के बाद राज्य में अलग-अलग नदियों के किनारे इन तटबंधों का निर्माण करवाया गया था। राज्य में 1975 के बाद कोई नया तटबंध नहीं बना।"
 
"बाढ़ के दौरान जो तटबंध टूट जाते हैं, बाद में उन्ही बांधों की मरम्मत करवाई जाती है। आमतौर पर इन तटबंधों के निर्माण के लिए नदी के पास वाली मिट्टी का ही उपयोग किया जाता है। एक किलोमीटर तक एक बांध के निर्माण कार्य में करीब सवा करोड़ रुपये का खर्च आता है।"
 
बाढ़ के समय बांध टूटने के प्रमुख कारण के बारे में गोहाईं कहते हैं, "असम में नदी के पास बने मिट्टी के तटबंध काफी पुराने हो गए है और उनकी क्षमता भी कम हुई है। जबकि नदियों की बदलती आकृति के सामने ये तटबंध टिक नहीं पाते है। यही कारण है कि इस साल भी राज्य में बाढ़ के कारण काफी जगह नदी तटबंध टूटे हैं।"
 
"इन तटबंधों को मजबूत करने के लिए सरकार को नए सिरे से योजना बनाने की जरूरत है। क्योंकि पर्याप्त फंड नहीं होने के कारण ठेकेदार बांध मरम्मत का काम समय पर पूरा नहीं कर पाते है और मार्च से यहां बारिश शुरू हो जाती है। इसके अलावा जगह-जगह हो रहे भू-कटाव के कारण भी यहां सरकार की परेशानी दोगुनी हो गई है।"
 
बोगरीबारी का तटबंध
पुथिमारी नदी के पास टूटे हुए बांध के निर्माण कार्य में मजदूरी कर रहे बोगरीबारी गांव के चक्रधर दास बताते हैं, "मैं उसी बांध के निर्माण कार्य में मजदूरी कर रहा हूं जिसके टूटने से हमारा गांव बर्बाद हुआ है। मैं पिछले 10 दिनों से बांध मरम्मत के काम लगा हूं। यहां रोजाना 500 रुपये दिहाड़ी मिलती है। ठेकेदार ने गांव के करीब डेढ़ सौ लोगों को काम पर रखा है।"
 
चक्रधर की माने तो ठेकेदार की गलती की वजह से ही बोगरीबारी का तटबंध टूटा था। दरअसल एक मजबूत बांध के लिए जितनी मिट्टी का उपयोग करना चाहिए पिछले ठेकेदार ने वैसा काम नहीं किया। आमतौर पर नदी से तटबंध की दूरी कम से कम 500 मीटर होनी चाहिए लेकिन अब ये बांध खिसकते हुए गांव के बिल्कुल नजदीक आ गए है।
 
असम के मुख्यमंत्री हिमंत बिस्वा सरमा ने हाल ही में पुथिमारी नदी के पास टूटे हुए तटबंध का दौरा कर गांव वालों के समक्ष कहा था, "हम आईआईटी गुवाहाटी की मदद से वैज्ञानिक रूप से 12 किलोमीटर का तटबंध बनाएंगे। केवल तटबंध की मरम्मत से हमारे किसी उद्देश्य की पूर्ति नहीं होगी। हमें भविष्य में इस तटबंध के टूटने की समस्या को रोकना होगा।"
 
बोगरीबारी गांव में मुख्यमंत्री सरमा के इस दौरे के समय उन्हें पारम्परिक फूलम गमछा पहनाकर सम्मानित करने वाली 72 साल की प्रभाबाला दास कहती हैं, "हम बहुत परेशानी में है और अपने घर नहीं लौट पा रहे हैं। मैंने मुख्यमंत्री को गमछा पहनाकर हाथ जोड़कर उनको अपनी परेशानी बताई थी। उनसे कहा था कि मैं एक बूढ़ी महिला हूं और वे हमारे लिए कुछ सुविधा करें। मैंने उनको अपना कीचड़ भरा घर भी दिखाया और उनके समक्ष रोने लग गई थी।"
 
इसी गांव की रहने वाली 69 साल की हरमाया दास कहती हैं, "यहां तटबंध पर बहुत परेशानी में रह रहे हैं। तेज हवा चलने पर टेंट टूट जाता है और इसमें बारिश का पानी गिरता है। सरकार अगर हमें कोई सुविधा करके नहीं देगी तो हम कैसे घर लौट पाएंगे।"
 
"कहने को तो सरकार हमारे लिए यहां डॉक्टर की टीम भेजती है लेकिन बच्चे बुखार से तप रहें है और उनकी दवा का कोई असर नहीं होता। मैं उच्च रक्तचाप की मरीज हूं और बाहर से दवाई लाकर खा रही हूं। यह एक तरह से हमें सजा दी जा रही है।"
 
आपदा विभाग की ताजा रिपोर्ट के मुताबिक इस समय दीमा हसाओ और मोरीगांव जिले में बने छह राहत शिविरों में बेघर हुए कुल 278 लोगों ने शरण ले रखी है।
 
लेकिन बोगरीबारी गांव समेत प्रदेश के कई ऐसे इलाके है जहां सैकड़ों बाढ़ पीड़ित लोग बाढ़ खत्म होने के बाद भी अपने घर नहीं लौट पा रहे हैं।
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