आंखों की गुस्ताख़ियां माफ़ हों... एकटक तुम्हें देखती हैं... जो बात कहना चाहे ज़ुबां... तुमसे ये वो कहती हैं... ये सिर्फ़ कवि का रूमानी अंदाज़े-बयां नहीं, ये जांची-परखी वैज्ञानिक हक़ीक़त है।
आप सबको यक़ीनन ऐसा तजुर्बा हुआ होगा कि भीड़भरे कमरे में अचानक किसी से आंखें टकरा गईं और पता चला कि वो इंसान एकटक आप को देख रहा है। ये मंज़र किसी फ़िल्म का भले लगे, पर असल दुनिया में भी हम सब इस तजुर्बे से गुज़रते हैं। और नज़रें चार होते है, आसपास की दुनिया धुंधली हो जाती है। साफ़ दिखती है तो वो नज़र, जो आपकी आंखों से टकराई है।
ऐसा लगता है कि जिन लोगों के नैना लड़े हैं, वो कुछ पलों के लिए ज़हनी तौर पर एक-दूसरे से जुड़ गए। नैनों का टकराना हमेशा अच्छा ही हो, ये ज़रूरी है। आख़िर कवि ये भी तो कहता है कि नैनों की मत मानियो रे...नैना ठग लेंगे...
किसी की निगाह...
असल में आंखों ही आंखों में तबादला-ए-ख़याल, हमारी सभ्यता में संवाद का एक हल्का-फुलका ज़रिया रहा है। पर, यक़ीन जानिए, आंखों-आंखों में बातें होना हमेशा अहम तजुर्बा होता है। हम कई बार नज़रें टकराने के बाद किसी के बारे में कोई राय क़ायम कर लेते हैं। ये सोचते हैं कि जो शख़्स आंखों के सामने है, उसने बहुत कुछ छुपा रखा है। मज़े की बात ये कि हमें लगातार किसी का देखे जाना भी चुभता है।
पर भीड़ के बीच से गुज़रते हुए अगर किसी की निगाह आप पर न पड़े, तो बहुत ख़राब लगता है। आंखों-आंखों में बातों के बारे में हम इतना कुछ अपने रोज़मर्रा के तजुर्बों से जानते हैं। वैज्ञानिकों ने इसके आगे की भी रिसर्च की है। ख़ासतौर से मनोवैज्ञानिकों और तंत्रिका विज्ञान के विशेषज्ञों यानी न्यूरोसाइंटिस्ट ने भी इस बारे में कई तजुर्बे किए हैं।
गहरे राज़
ये सभी इस नतीजे पर पहुंचे हैं कि आंखों के टकराने के बाद होने वाला संवाद बहुत ताक़तवर होता है। इसमें कई गहरे राज़ छुपे हो सकते हैं। लोग किसी से नज़रें टकराने के बाद अपने बारे में अनजाने में बहुत कुछ बता जाते हैं। दूसरों के बारे में सोच डालते हैं। मसलन, घूरती हुई आंखें अक्सर हमारा ध्यान खींच लेती हैं। उनकी तरफ़ देखते हुए हम आसपास की बाक़ी बातों की अनदेखी कर देते हैं। किसी की घूरती निगाहों से हमारी नज़रें टकराती हैं, तो हमारे ज़हन में एक साथ बहुत से ख़याल आते हैं।
हम उस इंसान के बारे में ज़्यादा सोचने लगते हैं। इस तरह से हम ख़ुद के बारे में भी ज़्यादा सजग हो जाते हैं। आप अगर किसी बंदर, गोरिल्ला, या चिंपैंजी से नज़रें टकराने के बाद इस बात को और गहराई से महसूस करेंगे। कई बार तो किसी पेंटिंग की आंखों से आंखें टकराने पर ऐसा लगता है कि वो पेंटिंग हमारे किरदार की समीक्षा कर रही है। हमारे ज़हन में ख़यालों की सुनामी आ जाती है।
याददाश्त पर भी असर
हम अपने बारे में सजग हो जाते हैं। हम किसी और की दिलचस्पी के केंद्र में हैं, ये जानते ही हमारा दिमाग़ चौकन्ना हो जाता है। इससे हमारा ध्यान भटक जाता है। ये बात कई तजुर्बों में साबित हुई है। जापान में हुए एक रिसर्च में देखा गया कि किसी वीडियो में भी घूरती हुई आंखों से नज़रें टकराने के बाद लोगों का ध्यान भंग हो गया। किसी का घूरना हमारी याददाश्त पर भी असर डालता है।
आपने रूमानी उपन्यासों से लेकर फ़िल्मों तक में ये पढ़ा, सुना या देखा होगा कि किसी से नज़रें टकराने के बाद कोई घबरा गया। जो काम कर रहा था वो भूल गया। ऐसा, असल में इसलिए होता है कि किसी से निगाहें चार होने के बाद हम जिस काम में लगे होते हैं, उससे हमारा ध्यान भंग हो जाता है। कई बार इम्तिहान में ऐसा होता है, तो वैज्ञानिक इसके लिए बच्चों को नज़रें फेर लेने की सलाह देते हैं।
गंभीर क़िस्म का इंसान
बहुत ज़्यादा नज़रें टकराना दूसरों को असहज बना देता है। जो घूरते हैं, वो चिपकू मालूम होते हैं। आंखें मिलने पर, हमारे दिमाग़ में एक साथ ढेर सारी प्रक्रियाएं चलने लगती हैं। हम दूसरों के बारे में राय क़ायम करने लगते हैं। जो लोग आंखें मिलाकर बात करते हैं, हम उन्हें ज़्यादा बुद्धिमान, ईमानदार और गंभीर क़िस्म का इंसान मानते हैं। उनकी बातों पर भरोसा करने का दिल करता है।
लेकिन बहुत ज़्यादा नज़रें लड़ाना हमें असहज भी बना देता है। अगर किसी की घूरने की आदत है, तो वो भी हमें परेशान करता है। हम किसी को देख रहे हैं और अचानक उससे नज़र टकरा जाए, तो वो हम पर गहरा असर डालती है। हम ऐसे इंसानों के बारे में अच्छे ख़याल रखने लगते हैं। भीड़ में ऐसा होने का मतलब हमारा दिमाग़ ये लगाता है कि हमें देखने वाला उस भीड़भरे ठिकाने में भी हममें दिलचस्पी रखता है।
मनोवैज्ञानिकों की राय
एक-दूसरे को लगातार देखने पर हमारी आंखों की पुतलियां भी साथ ही चलने लगती हैं। मानों आंखें एक-दूसरे के साथ टैंगो कर रही हों। हालांकि कुछ मनोवैज्ञानिक इस बात से इत्तेफ़ाक़ नहीं रखते। अगर आप को देखकर किसी की आंखें फैल जाती हैं, तो बदले में आप की आंखों की पुतलियां भी फैल जाती हैं। किसी की आंखों में गहराई से झांकने पर केवल उसकी पुतलियां ही नहीं संदेश देतीं।
1960 के दशक में मनोवैज्ञानिकों ने पाया था कि जब हम उत्तेजित होते हैं, तो हमारी आंखें फैल जाती हैं। ये उत्तेजना बौद्धिक भी हो सकती है और शारीरिक भी। कई लोग इसका ताल्लुक़ यौन आकर्षण से जोड़ते हैं। इतिहास गवाह है कि मर्दों का ध्यान खींचने के लिए प्राचीनकाल में महिलाएं अपनी आंखों को डाइलेट करती थीं यानी उन्हें चौड़ा करने के जतन करती थीं।
मुहब्बत का इज़हार
इसके लिए एक पौधे का अर्क़ इस्तेमाल होता था, जिसे हम आज बेलाडोना के नाम से जानते हैं। एक हालिया रिसर्च बताती है कि हम आंखों की पेशियों की हलचल से बहुत से संवाद कर लेते हैं। सामने वाले की बहुत सी बातें जान लेते हैं। जैसे कि आंखों ही आंखों में हम दिलचस्पी, ग़ुस्से, नफ़रत या मुहब्बत का इज़हार कर लेते हैं।
नज़रें हमारे जज़्बातों का पैग़ाम बड़ी मुस्तैदी से पहुंचा देती हैं। आंख़ों की पुतलियों के इर्दगिर्द की मांसपेशियां भी कई बार इज़हार-ए-जज़्बात करती हैं। युवावस्था में इनके ज़रिए सामने वाले को संदेश देने का काम आसानी से हो जाता है। अक्सर किसी मर्द से वक़्ती ताल्लुक़ात बनाने की इच्छुक महिलाएं इन गोलों यानी लिंबल रिंग का इस्तेमाल अपना पैग़ाम देने के लिए करती हैं।
तो, साहब हमारे जो शायर, कवि और नग़मानिगार ये कहते आए हैं कि आंखें भी होती हैं दिल की ज़ुबां, तो इसमें कुछ भी ग़लत नहीं। इसके ज़रिए आप किसी इंसान का ज़हन छू रहे होते हैं। ये आंखें देखकर लोग यूं ही सारी दुनिया नहीं भूल जाते। किसी अजनबी से आंखें चार होते ही इश्क़ हो जाए... तो, उससे कहिएगा... आंखों की गुस्ताख़ियां माफ़ हों।